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क्यों भारतीय जनता पार्टी को ''हिंदू'' मतदाता ही चाहिए?

क्यों भारतीय जनता पार्टी को ''हिंदू'' मतदाता ही चाहिए?

दिल्ली में बीजेपी नेताओं ने अपने जहरीले बयानों से हिंदुओं के ध्रुवीकरण की पूरी कोशिश की लेकिन एग्जिट पोल बताते हैं कि वह ऐसा करने में सफल नहीं रही है। 

दिल्ली विधानसभा के नतीजे आने में बस कुछ घंटे शेष हैं। रिवाज़ के मुताबिक़ मीडिया ने अंदाज करने की कोशिश की है कि 11 फरवरी को किस पार्टी की जीत होगी। आम आदमी पार्टी (आप) आराम से बहुमत हासिल करके सरकार बनाती हुई दीख रही है। एग्जिट पोल बताते हैं कि बीजेपी पिछली बार के मुक़ाबले अपनी हालत बेहतर तो कर लेगी लेकिन वह 'आप' से बहुत पीछे ही रहेगी। यह बड़ी बात है क्योंकि बीजेपी ने इस अर्द्धराज्य का किला फतह करने में एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था।

एग्जिट पोल के नतीजों के बाद 'आप' की तारीफ़ यह कहकर की जा रही है कि उसने बीजेपी की साजिश समझ ली और खुद को शाहीन बाग़ से दूर कर लिया। इस तरह उसने “हिंदुओं” के ध्रुवीकरण का षड्यंत्र नाकाम कर दिया। इसे 'आप' का चुस्त राजनीतिक दांव माना जा रहा है लेकिन इसकी विडंबना से भी हम परिचित हैं।

“हिंदुओं” की पार्टी है बीजेपी!

बीजेपी के चुनाव प्रचार से एक बार फिर यह साबित हुआ कि वह खुद को सिर्फ और सिर्फ “हिंदुओं” की पार्टी मानती है और उन्हें ही सम्बोधित करती है। यहां पर उद्धरण चिह्न का प्रयोग जान बूझ कर किया गया है ताकि इन्हें सामान्य या धार्मिक हिंदुओं से अलग किया जा सके। इनका हिंदूपन इससे परिभाषित नहीं होता कि ये किस प्रकार की पूजा-अर्चना करते हैं, इनके आराध्य कौन हैं और धार्मिक ग्रंथों की इनकी जानकारी कितनी गहरी है। धार्मिक आचार-विचार को लेकर इनकी निष्ठा कितनी है, यह भी महत्वपूर्ण नहीं है। ये वेदों, उपनिषदों, गीता आदि के ज्ञान के लिए भी व्यग्र नहीं हैं। इनके भीतर धार्मिक या आध्यात्मिक जिज्ञासा का प्रायः अभाव है। इनका हिंदूपन मुसलमान, ईसाई के प्रति विरोधभाव पर टिका हुआ है। इसीलिए उद्धरण चिह्न का इस्तेमाल किया गया है। 

मुसलमान विरोधी घृणा अभियान 

बीजेपी अनथक प्रयास करती रहती है कि चुनाव हो या न हो वह अधिक से अधिक धार्मिक हिंदुओं को इस उद्धरण चिह्न के भीतर धकेल कर अपना दास बना ले। इसके लिए वह मुसलमानों को अपमानित करती रहती है और हिंदुओं में उनके प्रति भय भरने का हर संभव प्रयास करती है। इसके लिए सतत मुसलमान विरोधी घृणा अभियान चलाने की ज़रूरत होती है। 

भारत में यह काम अहर्निश होता है, यह हम सब जानते हैं। बीजेपी यह चुनाव के पहले और बाद भी करती ही रहती है लेकिन चुनाव में उसे बड़ा मौक़ा मिलता है, जब वह खुल कर नफरत की मुहिम चलाए। दिलचस्प यह है कि विश्लेषक और विचारक इसे बुरा लेकिन सह्य मानते रहे हैं। वे यह तर्क देते हैं कि आख़िर चुनाव में लोगों की अपनी ओर गोलबंदी करनी होती है और उसके लिए कई तरीके अपनाए जाते हैं। 

बीजेपी बेचारी क्या करे मुसलमान तो उसे वोट देने से रहे। फिर हिंदुओं को अपनी तरफ लाने के लिए वह हर तरीका अपनाने को मजबूर है। ऐसे लोगों का यह कहना है कि चुनाव प्रचार कुछ भी हो, देखने की बात यह है कि सरकार बनाने के बाद क्या वह पार्टी किसी समुदाय से कोई भेदभाव कर रही है! इसी तर्क के सहारे मुसलमान और ईसाई विरोधी अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी को पहले राजनेता के रूप में स्वीकार्य बनाया गया, फिर तो दोनों की तरक्की करके उन्हें राष्ट्रपुरुषों (स्टेट्समैन) का दर्जा दे दिया गया। 

सभ्य समाजों में ऐसे चरित्रों को सामाजिक श्रवण सीमा से दूर रखा जाता है। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा कोई सभ्य समाज हमारी दुनिया में बन ही नहीं पाया। इसीलिए मुसलमान विरोधी घृणा अभियान चलाने वालों को न सिर्फ मुल्क सौंप दिया जाता है बल्कि हमारे समाज के विशिष्ट लोग उनके साथ चाय पीने में गौरव का अनुभव करते हैं और इसे वे अपनी सभ्यता का सबूत मानते हैं। वे घृणा प्रचार के लिए मंच भी सजाते हैं और इसे प्रतिपक्षी विचारों के प्रति उदारता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रमाण मानते हैं। जब यह कहा जाता है कि इस तरह के प्रचार को किसी भी तरह जगह नहीं देनी चाहिए तो इसे असहिष्णुता कहकर इसकी निंदा की जाती है। 

चुनाव के दौरान जनता को गोलबंद करने का प्रयास किया जाता है। लगता तो यह है कि जनता नेता चुन रही है लेकिन नेता या राजनीतिक दल भी अपनी जनता चुनते हैं।

आम तौर पर सामान्य जनतांत्रिक अवस्था में एक सामान्य राजनीतिक दल यह चाहेगा कि उसकी जनता में समाज में मौजूद हर प्रकार के जन की छवि हो। यहाँ तक कि वर्ग विभाजित समाज में चुनाव लड़ते समय कम्युनिस्ट पार्टियाँ भी सिर्फ मजदूरों और किसानों तक खुद को सीमित नहीं रखना चाहतीं। वे व्यापकतर स्वीकार्यता चाहती हैं।

सच्चाई है जातीय गोलबंदी

इस व्यापक स्वीकृति के लिए या अपना आधार विस्तृत करने के लिए चुनावों के बीच की अवधि में भी वे काम करती रही हैं। भारत जैसे देश की सच्चाई यह है कि जाति गोलबंदी की एक धुरी भी है। इसलिए ऐसे भी दल हैं जिन्हें प्रधानतः एक जाति का कहा जाता है। लेकिन वे सिर्फ उसपर भरोसा करें तो कभी जीत नहीं पाएँगे। इसी वजह से वे अन्य सामाजिक समूहों से भी जुड़ने की कोशिश करते रहते हैं। कम से कम वे वे इतना तो चाहते ही हैं कि किसी सामाजिक समूह के ख़िलाफ़ न दीखें! 

शुरू में एक उग्र रुख लेने के बाद राष्ट्रीय जनता दल या बहुजन समाज पार्टी जैसे दलों ने भी खुद को बदला। इन सबसे अलग सिर्फ एक राजनीतिक दल है जो प्रयत्नपूर्वक भारत के एक बड़े सामाजिक और धार्मिक समुदाय से न सिर्फ दूरी बनाकर रखता है बल्कि वह समाज में उसके ख़िलाफ़ विद्वेष और घृणा को लगातार गहरा करता रहता है।

मुसलमानों को शत्रु बताने की कोशिश

यह इस राजनीतिक दल की दीर्घकालिक,  राजनीतिक और सांस्कृतिक परियोजना है। वह ऐसे हिंदू समाज को गढ़ने की कोशिश में लगा है जो मुसलमानों को अपना शत्रु मानता हो। अगर शत्रु मानकर उनसे घृणा की हिंसक सक्रियता में न भी जाए तो उनके ख़िलाफ़ हमलों से उदासीन ज़रूर हो जाए। यानी उन पर हमला हो रहा हो या उनका अपमान किया जा रहा हो तो वह मुँह फेर ले और उनके साथ खड़ा न हो। जो उन पर हमला कर रहे हैं, वह उनके साथ खड़ा होने से परहेज न करे।

दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी के ज़हरीले प्रचार से उसके कई “बौद्धिक” समर्थक भी हिल गए हैं। वे अपनी पार्टी के साथ इस गर्त में गिरने के लिये तैयार न थे। लेकिन उन्हें यह पता होना चाहिए कि घृणा की मिकदार (मात्रा) को क्रमशः बढ़ाते रहना होता है वरना वह टिकती नहीं है।

आज जो लोग बीजेपी नेताओं के बयानों से निराश हैं, उन्हें आज से पहले जो वे कर रहे थे उसके बारे में अपने रुख पर ज़रूर विचार करना चाहिए। अब बहुत सारे लोगों को लगने लगा है कि बीजेपी के शासन के दौरान जनता या मतदाता के चरित्र में तब्दीली आ रही है। किसी भी देश या राष्ट्र या समाज के लिए यह शुभ नहीं है कि उसे ऐसे समूहों में बाँट दिया जाए जिनकी कोई भी साझेदारी न हो। 

विद्वेष और नफरत से भरा हिंदूपन

बीजेपी का आधार ऐसा मतदाताओं का है जो खुद को हिंदू मानते हैं लेकिन उनका हिंदूपन विद्वेष और नफरत से भरा हुआ है। जो यह अच्छी तरह  जानते हैं कि उनका नेता झूठ बोल रहा है लेकिन ठीक इसी वजह से, उसकी ढिठाई और बेशर्मी की वजह से उसके समर्थक हैं। फिर वे नेता से और और नफरत की मांग करते हैं और वह उन्हें यह मुहैया कराता है। यह तो है ही कि ऐसे समाज भी बदलते हैं लेकिन कुछ पीढ़ियों के सड़ने के बाद। भारत उसी राह पर आगे बढ़ चला है, तो क्या हम हाथ मलते यह सब देखते रहें    

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