मंदिर तो कांग्रेस बना रही थी, संघ ले उड़ा
राजीव गाँधी से लेकर राहुल गाँधी तक कांग्रेस ने कई बार हिंदुत्व को अपनाने की कोशिश की लेकिन उसे इसका नुकसान हुआ। मुसलमान तो नाराज़ हुआ ही, हिंदू भी बीजेपी के पास चला गया।
जिन हाथों ने अयोध्या में विवादित ढाँचा गिराया, उन पर सभी की नज़र गई। पर जो हाथ उन्हें रोक सकते थे, वे फिर भी ख़ामोश रहे, वे नज़र में आने से रह गए। बीजेपी और उसके सहयोगी संगठनों ने खुलेआम ध्वंस की स्थितियों का निर्माण किया। ध्वंस में भूमिकाएँ निभाईं। मगर कुछ लोग ऐसे भी थे जो इस पूरे घटनाक्रम के अहम हिस्सों का रिमोट थामे नेपथ्य में छिपे हुए थे। वे फ़िलहाल सामने नहीं आना चाहते थे मगर सही वक़्त देखकर ध्वंस के मिशन में अपने योगदान के प्रचार से चूकना भी नहीं चाहते थे। वे अतीत में भी ऐसा कर चुके थे। वे वर्तमान में भी यही करना चाहते थे।
कार्रवाई के वक़्त रहे चुप
अयोध्या में हुए इस ध्वंस की एक कड़वी सच्चाई यह भी थी कि जो लोग, ख़ासकर कांग्रेसी नेता अयोध्या में त्वरित कार्रवाई चाहते थे, जो गोली चला ढाँचे को बचाना चाहते थे, लेकिन जब उनके कार्रवाई करने का वक़्त आया तब वे सब बग़लें झाँकने लगे। 6 दिसम्बर की रात 9 बजे उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लग जाता है। बावजूद उसके 36 घंटे बाद तक भारत सरकार अयोध्या में कोई कार्रवाई नहीं करती है। कारसेवकों से विवादित परिसर खाली कराने की कोई कोशिश नहीं होती है। यह सब अनायास नहीं था।इसके पीछे हिंदुत्व की ज़मीन हथियाने की शातिर सोच थी, जिसने कांग्रेस के ऊपरी सेक्युलर ताने-बाने को तार-तार किया। कांग्रेस को इसका चुनावी ख़ामियाज़ा भी भुगतना पड़ा। बाद में 2014 के चुनाव में राहुल गाँधी को इस ताने-बाने में तुरपाई करने के लिए कहना पड़ा कि बाबरी मस्जिद न गिरती, अगर नेहरू-गाँधी परिवार का कोई सदस्य प्रधानमंत्री होता। लेकिन सच्चाई अलग थी।
ज़िम्मेदारी से नहीं बच सकती कांग्रेस
नेहरू-गाँधी परिवार के ही एक प्रधानमंत्री थे जिन्होंने अयोध्या को लेकर हिंदुत्व की जंग में जम कर ताल ठोंकी थी। कई बार उन्होंने ऐसे दाँव भी चले जिन्होंने हिंदुत्व के सबसे बड़े झंडाबरदारों के भीतर असुरक्षा की भावना भर दी। अयोध्या में हुआ शिलान्यास इसका जीवित प्रमाण था। विवादित इमारत में मूर्तियाँ रखवाना, फिर ताला खुलवाना और अंत में ध्वंस। इन तीनों घटनाओं में कांग्रेस अपनी ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकती या यूँ कहें कि तीनों के पीछे कांग्रेस ही थी। भाजपा तो बहुत बाद में तस्वीर में आती है।साल 1988 कांग्रेस पर हो रहे चौतरफा हमलों का दौर था। विश्व हिंदू परिषद यकायक सक्रिय हो उठी थी। बीजेपी को भी बिल्ली के भाग का छींका सामने दिख रहा था, जो ज़रा-सी कारगर पहल से टूट सकता था। विश्व हिंदू परिषद ने फरवरी 1989 में इलाहाबाद के माघ मेले में तीसरी धर्म संसद बुलाई। इस धर्म संसद में देवरहा बाबा भी मौजूद थे। परमहंस रामचंद्र दास की अध्यक्षता में हुई इस धर्म संसद ने एलान किया कि 9 नवंबर, 1989 को अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास होगा। 25 करोड़ की लागत से नागर शैली में बनने वाले प्रस्तावित मंदिर के प्रारूप को भी धर्म संसद ने मंज़ूरी दी। 9 नवंबर को देवोत्थानी एकादशी थी।ऐसी मान्यता है कि चार महीने की नींद के बाद देवतागण उठते हैं। वैसे भी इस मौक़े पर लाखों लोग अयोध्या में सरयू स्नान और चौदह कोसी परिक्रमा के लिए जमा होते हैं। चौदह कोसी परिक्रमा यानी समूची अयोध्या की परिक्रमा। पौराणिक मान्यता के मुताबिक़, अयोध्या की परिधि चौदह कोस की थी, इसीलिए चौदह कोसी परिक्रमा का विधान था। शिलान्यास की जो जगह तय थी, वह विवादित ज़मीन के दायरे में पड़ती थी।विहिप ने कहा, हम इसे विवादित स्थल नहीं मानते हैं। 9 नवंबर को भूमि पूजन और 10 नवंबर को शिलान्यास तय हुआ। आंदोलन को व्यापक आधार देने के लिए संतों ने देश के हर गाँव से मंदिर के लिए एक शिला लाने की योजना बनाई। देश भर के तीन लाख गाँवों से पूजित शिलाएँ शिलान्यास के लिए 5 नवंबर तक यात्राओं की शक्ल में अयोध्या पहुँचनी थीं। गाँव-गाँव में हिंदुत्व के उभार का इससे बेहतर कार्यक्रम नहीं हो सकता था।
मंदिर के समर्थन में उतरी बीजेपी
बीजेपी उस वक़्त महज दो सांसदों वाली पार्टी थी। उसने मौक़ा ताड़ लिया और 11 जून को हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक बुलाई और इस आंदोलन का समर्थन कर दिया। राम जन्मभूमि का मुद्दा पहली बार बीजेपी के अजेंडे में शामिल हुआ। देश का माहौल गरमाने लगा। दोनों तरफ़ से आग उगलने वाले भाषण होने लगे। प्रधानमंत्री राजीव गाँधी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। व्यक्ति के तौर पर वे सीधे और सरल थे। मगर चंपुओं से घिरे रहते थे। उनके चंपुओं ने उन्हें समझाया कि बहुसंख्यक हिंदू भावनाओं को ध्यान में रख शिलान्यास करवा देना चाहिए। इससे पहले कि यह मुद्दा बीजेपी लपक ले, आप स्वयं पहल करें और हिंदुत्व के पुरोधा बनें। अगले साल मार्च तक लोकसभा चुनाव होने थे।
अयोध्या से शुरू किया प्रचार
राजीव गाँधी के निजी सहायक आर.के.धवन ने मुझे एक साक्षात्कार में बताया कि ‘उन्हें यह समझाया गया कि शिलान्यास करा कर, आप चुनाव वक़्त से पहले कराएँ और अयोध्या से ही अपने चुनाव अभियान की शुरुआत करें।' यही हुआ भी। राजीव गाँधी ने अपना चुनाव अभियान अयोध्या से ही शुरू किया और भाषण में ‘रामराज्य’ के प्रति कांग्रेस पार्टी की प्रतिबद्धता दुहराई। उस वक़्त राजीव गाँधी के भाषण के लेखक मणिशंकर अय्यर होते थे। उनका कहना था कि मेरे लिखे भाषण में रामराज्य का कहीं ज़िक़्र भी नहीं था। राजीव गाँधी ने इसे माहौल के दबाव में खुद से शायद जोड़ा था, ताकि भावनात्मक स्तर पर चुनाव में इसका फायदा हो। क्योंकि वे यह समझ चुके थे कि इस देश में चुनाव भावनाओं पर लड़े जाते हैं।राजीव गाँधी को नहीं पता था कि वे दो नावों की सवारी कर रहे हैं। दो नावों की सवारी का मतलब हर हिंदुस्तानी जानता है। चुनाव अभियान की शुरुआत में ही राजीव गाँधी द्वारा रामराज्य के एलान के गूढ़ अर्थ थे। प्रचार के दौरान सबने रामराज्य की अपनी-अपनी सोच के मुताबिक़ व्याख्या की। लोगों ने इसे कांग्रेस की बदलती हुई लाइन समझा। वामपंथी मित्रों ने कहा, यह कांग्रेस का ‘साफ़्ट हिंदुत्व’ है। शिलान्यास ने कांग्रेस की नरम हिंदुत्ववादी लाइन एकदम साफ़ कर दी थी। मगर यह कोई पहला मौक़ा नहीं था। राम जन्मभूमि का ताला खुलने के दौरान भी राजीव गाँधी की कांग्रेस ने कुछ ऐसा ही दाँव चला था।दिल्ली में बनी थी योजना
ताला खुलने के पीछे भी दिल्ली ही थी। दिल्ली में उस समय राजीव गाँधी की सरकार थी। प्लानिंग इतनी ज़बरदस्त थी कि दूरदर्शन की टीम ताला खुलने की पूरी प्रक्रिया कवर करने के लिए पहले से ही अयोध्या में भेज दी गई थी। तब दूरदर्शन के अलावा कोई और समाचार चैनल नहीं था। इस कार्रवाई को दूरदर्शन से उसी शाम पूरे देश में दिखाया गया। उस वक़्त फ़ैज़ाबाद में दूरदर्शन का केंद्र नहीं था। कैमरा टीम लखनऊ से गई थी। लखनऊ से फ़ैज़ाबाद जाने में तीन घंटे लगते हैं। यानी कैमरा टीम पहले से भेजी गई थी। इस पूरे घटनाक्रम की पटकथा दिल्ली में लिखी गई थी। अयोध्या में तो सिर्फ़ किरदार थे।सिर्फ़ सीएम को था पता
इतनी बड़ी योजना फ़ैज़ाबाद में घट रही थी, पर उत्तर प्रदेश सरकार को इसकी कोई भनक नहीं थी। सिवाय मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के, जिनसे कहा गया था कि वे अयोध्या को लेकर सीधे और सिर्फ़ अरुण नेहरू के संपर्क में रहें। मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद वीर बहादुर सिंह से मेरी इस मुद्दे पर लंबी चर्चा हुई थी। उनके मुताबिक़ पूरे मामले का संचालन अरुण नेहरू राजीव गाँधी के परामर्श से कर रहे थे। हाँ, मुझसे इतना ज़रूर कहा गया था कि सरकार अदालत में कोई हलफ़नामा न दे। लेकिन फ़ैजाबाद के कलेक्टर और पुलिस सुपरिटेंडेंट अदालत में हाज़िर होकर यह कहें कि अगर ताला खुला तो प्रशासन को कोई एतराज़ नहीं होगा।कांग्रेस न इधर की रही, न उधर की
वीर बहादुर सिंह ने बताया कि फ़ैज़ाबाद के कमिश्नर को दिल्ली से सीधे आदेश आ रहे थे। दिल्ली का कहना था कि इस बात के सारे उपाय किए जाएँ कि ताला खोलने की अर्ज़ी मंज़ूर हो और अदालत के फ़ैसले को फ़ौरन लागू करवाया जाए। वरना 37 साल से लटके इस मुद्दे का सिर्फ़ दो रोज़ में फ़ैसला हो जाना, वह भी संबंधित पक्षों को सुने बिना, यह मुमक़िन नहीं था। मगर यह रणनीति कांग्रेस को भारी पड़ी। वह न इधर की रही, न उधर की। मुसलमान ताला खुलने से कांग्रेस से नाराज़ हुआ और हिंदू मंदिर बनवाने के लिए बीजेपी के पास चला गया। उनके हाथ कुछ नहीं बचा।अयोध्या को लेकर कांग्रेस का यह हिंदुत्ववादी स्टैंड आज़ादी के बाद ही साफ़ हो गया था। 22-23 दिसम्बर 1949 की दरम्यानी रात विवादित परिसर में रामलला की मूर्तियाँ स्थापित कर दी गईं। उस वक़्त यूपी और केंद्र दोनों जगह कांग्रेस की सरकार थी। केंद्र में जवाहरलाल नेहरू और उत्तर प्रदेश में गोविंदबल्लभ पंत की कांग्रेसी सरकार ने यह मुक़म्मल किया कि विवादित स्थल में चोरी-छिपे स्थापित कर दी गई रामलला की मूर्ति वहीं बनी रहे। उसे किसी भी सूरत में वहाँ से हटाया न जाए।मूर्तियाँ रखे जाने से आहत थे नेहरू
शुरू की कांग्रेसी सरकारों ने जो दिशा तय कर दी, अयोध्या उसी पर चलती रही। इसे यूँ भी समझ सकते हैं कि आज़ादी के बाद अयोध्या को राम के सुपुर्द करने की दिशा में पहला क़दम कांग्रेसी सरकारों ने बढ़ाया। अजब बात थी कि स्वयं उस वक़्त के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू चोरी-छिपे मूर्तियाँ रखे जाने से आहत थे, मगर कुछ भी न कर सके। उन्होंने 17 अप्रैल 1950 को उस वक़्त के मुख्यमंत्री पंत को एक पत्र लिखा। नेहरू ने लिखा, 'जो लोग एक समय में कांग्रेस पार्टी के स्तंभ हुआ करते थे, उनके दिलो-दिमाग में साम्प्रदायिकता घुस गई है। मंदिर-मस्जिद को लेकर अयोध्या में जो कुछ घटा, वह बहुत गलत था। लेकिन सबसे अफ़सोसजनक बात यह थी कि हमारे ही कुछ लोग इसमें शामिल थे, जिनकी सहमति से यह सब हुआ।'वोटों के लिए हुए सारे प्रयोग
इतना सबकुछ लिखने और कहने के बावजूद नेहरू की सरकार ने अयोध्या की उस स्थिति में कोई हस्तक्षेप नहीं किया। कांग्रेस के उस शुरुआती शासनकाल में अयोध्या की एक दिशा तय कर दी गई। संभवतः यह उसी दिशा की परिणति थी कि राजीव गाँधी की कांग्रेसी सरकार में मंदिर का शिलान्यास हुआ, ताला खुला और कांग्रेस के नरसिंह राव की सत्ता में विवादित ढाँचा ध्वस्त कर दिया गया। मैं यह मानता हूँ कि ये सारे प्रयोग वोटों की उधेड़बुन में हुए।कांग्रेस आज भी वोट बैंक की इसी त्रासदी से जूझ रही है। राजीव गाँधी के रामभक्त लबादे से लेकर राहुल गाँधी के शिवभक्त संस्करण तक कांग्रेस की नाव अक्सर ही हिंदुत्व के किनारों पर लंगर डालती आई है। वोट की राजनीति का राजमार्ग धर्म की गुफ़ाओं से होकर गुज़रता है। कांग्रेस को भी इस सिद्धांत से गुरेज़ नहीं था।