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जोड़तोड़ के बाद भी अभी बीजेपी नहीं पा सकती है राज्यसभा में बहुमत 

जोड़तोड़ के बाद भी अभी बीजेपी नहीं पा सकती है राज्यसभा में बहुमत 

अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद बीजेपी राज्यसभा में बहुमत से दूर तो है ही, इसके लिए उसको 100 सीटों की ज़रूरत है।

अपनी तमाम हिकमत अमली के बावजूद केंद्र सहित कई राज्यों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी इस समय राज्यसभा में बहुमत ही नहीं, बल्कि 100 सीटों के आँकड़े से भी दूर है। आठ राज्यों की 19 राज्यसभा सीटों के लिए हाल ही में हुए द्विवार्षिक चुनाव के बाद भी संसद का यह उच्च सदन त्रिशंकु स्थिति में बना हुआ है। यानी किसी भी पार्टी या गठबंधन का यहाँ फ़िलहाल बहुमत नहीं है। राज्यसभा में यह स्थिति पिछले तीन दशक से बनी हुई है और आगे कब तक बनी रहेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता।

हालाँकि 19 में से 8 सीटें केंद्र में सत्तारूढ़ बीजेपी को मिलने से उसके संख्या बल में इजाफा ज़रूर हुआ है, लेकिन उसे बहुमत हासिल करने के लिए अभी कुछ साल और इंतज़ार करना पड़ सकता है, अगर कुछ बहुत अप्रत्याशित नहीं हुआ तो। 245 सदस्यों वाले इस सदन में बहुमत का आँकड़ा 123 होता है, जबकि बीजेपी के इस समय 85 सदस्य हैं। फ़िलहाल बीजेपी ही नहीं, बल्कि उसकी अगुवाई वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए भी बहुमत से दूर है।

ग़ौरतलब है कि इस वर्ष राज्यसभा की 73 सीटों के द्विवार्षिक चुनाव प्रस्तावित थे। इनमें से 18 राज्यों से राज्यसभा की 56 सीटों के लिए बीती 26 मार्च को चुनाव होने थे, लेकिन मतदान से ठीक दो दिन पहले चुनाव आयोग ने कोरोना वायरस संक्रमण का हवाला देते हुए इन चुनावों को टाल दिया था। हालाँकि राज्यसभा की 56 में से 37 सीटों का चुनाव निर्विरोध हो चुका था और राष्ट्रपति के मनोनयन कोटे की खाली हुई एक सीट भी सेवानिवृत्त प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई के मनोनयन से भरी जा चुकी थी। इस बीच कर्नाटक की रिक्त हुई चार सीटों के लिए भी निर्विरोध चुनाव हो गए। 

जिन 19 सीटों के द्विवार्षिक चुनाव कोरोना संक्रमण और लॉकडाउन की वजह से बीते मार्च महीने में टाल दिए गए थे, उन सभी सीटों के लिए 19 जून को चुनाव हुआ। जिन सीटों के लिए यह चुनाव हुआ, उनमें गुजरात और आंध्र प्रदेश की 4-4, मध्य प्रदेश और राजस्थान की 3-3, झारखंड की 2 तथा मणिपुर, मिज़ोरम और मेघालय की 1-1 सीटें हैं।

इन चुनावों के बाद 13 सीटों के लिए इसी साल नवंबर में चुनाव होना है। इनमें अकेले उत्तर प्रदेश की 11 सीटें और उत्तराखंड तथा केरल की 1-1 सीट होगी। इन 13 में से 11 सीटें बीजेपी को मिलेंगी, जबकि 1 सीट समाजवादी पार्टी और एक मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के खाते में जाएगी। बीजेपी को जो 11 सीटें मिलेंगी, उनमें से 3 सीटें तो उसकी अपनी पुरानी होंगी और 8 सीटों का उसके संख्या बल में इजाफा होगा।

इस प्रकार इस साल के अंत तक इस उच्च सदन में बीजेपी की कुल सीटें 93 हो जाएँगी। लेकिन इसके बावजूद वह बहुमत और 100 सीटों के आँकड़े से दूर ही रहेगी।

इसके बाद अगले वर्ष यानी 2021 में भी राज्यसभा की आठ सीटें खाली होंगी, जिनमें से जम्मू-कश्मीर की 4, केरल की 3 और पुदुचेरी की 1 सीट होगी। जम्मू-कश्मीर की चारों सीटों का कार्यकाल फ़रवरी महीने में समाप्त होगा चूँकि इस समय जम्मू-कश्मीर की विधानसभा अस्तित्व में नहीं है, वहाँ राज्यसभा के चुनाव होना न होना इस बात पर निर्भर करेगा कि फ़रवरी से पहले विधानसभा चुनाव होते हैं या नहीं। केरल में राज्यसभा की तीनों सीटों के चुनाव मार्च में होने हैं और वहाँ विधानसभा में मौजूदा संख्या बल के आधार पर दो सीटें मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को और एक सीट कांग्रेस को मिलना है। पुदुचेरी की एक सीट के लिए अगले साल अक्टूबर में चुनाव होगा और वह सीट कांग्रेस को मिलेगी। यानी अगले वर्ष बीजेपी के संख्या बल में इजाफा होने के कोई आसार नहीं हैं।

फ़िलहाल राज्यसभा में बीजेपी का जो संख्या बल है, वह हासिल करना भी उसके लिए आसान नहीं रहा है। इसके लिए उसने कुछ महीनों पहले उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के तीन सांसदों से इस्तीफे दिलवाकर उन्हें उपचुनाव में अपने टिकट पर राज्यसभा में भेजा और अपने संख्या बल में इजाफा किया। उसके बाद हाल ही में हुए चुनाव में अतिरिक्त सीटें जीतने के लिए उसे गुजरात और मध्य प्रदेश में बड़े पैमाने पर विपक्षी विधायकों से इस्तीफा दिलवाना पड़ा, जिसके लिए उस पर विधायकों की खरीद-फरोख्त का आरोप भी लगा।

विपक्षी विधायकों के इस्तीफे कराने से उसे दोनों ही राज्यों में एक-एक सीट का फायदा हुआ। राजस्थान में भी उसने कांग्रेस के विधायकों को इसी तरह तोड़ने की कोशिश की थी लेकिन कामयाबी नहीं मिली। अन्यथा वहाँ भी उसे न सिर्फ़ राज्यसभा की एक अतिरिक्त सीट मिलती बल्कि वहाँ मध्य प्रदेश की तरह कांग्रेस सरकार के गिरने की नौबत भी आ जाती।

बहरहाल, इस सारी जोड़तोड़ और तिकड़म के बावजूद राज्यसभा में बहुमत के आँकड़े से न सिर्फ़ बीजेपी अकेली पार्टी के तौर पर दूर है, बल्कि सहयोगी दलों की 23 सीटों के संख्या बल के सहारे भी उसके गठबंधन एनडीए का बहुमत नहीं बन पाया है। अलबत्ता इसके बावजूद उसे कोई विधेयक पारित कराने में कोई कठिनाई पेश नहीं आएगी, क्योंकि बीजू जनता दल और तेलंगाना राष्ट्र समिति जैसी क्षेत्रीय पार्टियाँ हमेशा ही उसकी मदद करती रही हैं। इस समय भी दोनों पार्टियों की सदस्य संख्या क्रमश: 9 और 7 है।

आने वाले दिनों में बीजेपी को कोरोना महामारी को लेकर घोषित किए गए 20 लाख करोड़ के पैकेज और श्रम क़ानूनों में संशोधन से संबंधित कुछ विधेयक पारित कराने होंगे, जिसमें उसे कोई समस्या नहीं आएगी। लंबे समय से चर्चा है कि मोदी सरकार समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में क़दम उठाने वाली है।

यह मुद्दा 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के घोषणा पत्र में भी शामिल रहा है। चूँकि मोदी सरकार पिछले दिनों संविधान के अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने और तीन तलाक़ को दंडनीय अपराध बनाने जैसे चुनौतीपूर्ण विधेयक राज्यसभा में अपना सामान्य बहुमत न होने के बावजूद पारित करा चुकी है, इसलिए अगर वह समान नागरिकता क़ानून लागू करने के संबंध में भी कोई विधेयक आने वाले दिनों में लाती है, तो माना जा सकता है कि उसे बहुत ज़्यादा दिक्कत नहीं आएगी, क्योंकि बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्र समिति और वाईएसआर कांग्रेस जैसी क्षेत्रीय पार्टियाँ एनडीए का हिस्सा न होते हुए भी संसद के दोनों सदनों में आमतौर पर सरकार के सहयोगी दल की भूमिका में ही रही हैं। 

जहाँ तक राज्यसभा में बहुमत का सवाल है, पिछले तीन दशक से इस सदन में यह स्थिति रही है कि सरकार भले ही किसी की भी हो, लेकिन इस सदन में उसका बहुमत नहीं रहा है। वर्ष 1990 के पहले तक इस सदन में कांग्रेस का बहुमत होता था, क्योंकि अधिकांश राज्यों में उसकी सरकारें थीं। लेकिन 1990 से स्थिति बिल्कुल बदल गई। उत्तर प्रदेश, बिहार और गुजरात जैसे बड़े राज्य उसके हाथ से निकल गए, जहाँ वह अभी तक वापसी नहीं कर पाई है।

महाराष्ट्र में भी उसके जनाधार में लगातार गिरावट आने से विधानसभा में उसके संख्या बल में कमी आती गई है। दक्षिण भारत में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना उसके हाथ से पूरी तरह निकल चुके हैं, जबकि कर्नाटक विधानसभा में भी उसके संख्या बल में लगातार कमी आ रही है। 

दूसरी ओर इन तीन दशकों के दौरान बीजेपी भी ज़्यादातर राज्यों में अपना जनाधार स्थिर नहीं रख पाई, जिसकी वजह से विधानसभाओं में उसका संख्या बल घटता-बढ़ता रहा। यही वजह रही कि 1989 से लेकर आज तक सभी सरकारों को राज्यसभा में महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित कराने में छोटे-छोटे दलों को साधना पड़ा है या विपक्षी दलों के साथ मिलकर आम सहमति बनानी पड़ी है। लेकिन इस स्थिति से भारतीय जनता पार्टी की सरकार धीरे-धीरे उबर रही है। उसकी इस स्थिति का सकारात्मक पहलू यह है कि अब छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों या निर्दलीय सांसदों की अपनी अनुचित माँगों को लेकर अपने समर्थन के बदले सरकार से मोलभाव करने की स्थिति ख़त्म हो रही है। लेकिन इसका नकारात्मक पहलू यह है कि अब संसदीय कामकाज में आम सहमति की राजनीति के अवसर कम हो रहे हैं, जो कि लोकतंत्र के लिए सेहतमंद स्थिति नहीं है।

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