बीजेपी को कितना बदल पायेंगे नड्डा?
जो लोग चेहरे पर मुस्कराहट की क़ीमत नहीं समझते हैं, उन्हें जगत प्रकाश नड्डा को अपना गुरू बना लेना चाहिए। उम्मीद है कि 20 जनवरी को बीजेपी के नए अध्यक्ष के तौर पर उनके नाम का एलान कर दिया जाएगा। नड्डा की मुस्कराहट शायद उस दिन भी कम नहीं हुई थी जब 2009 में उन्हें हिमाचल प्रदेश में धूमल सरकार के मंत्रिमंडल से जबरदस्ती इस्तीफ़ा देना पड़ा था। तब भी उनकी मुस्कराहट कम नहीं हुई थी जब 2014 के चुनावों के बाद उन्हें बीजेपी का अध्यक्ष बनाए जाने की चर्चाएं तेज़ हो गईं थीं और शायद वह उस दिन भी मुस्करा रहे थे जब 2019 के चुनावों में भारी सफलता के बाद मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में उन्हें मंत्री नहीं बनाया गया। लेकिन पार्टी में उनके विरोधी माने जाने वाले युवा सांसद अनुराग ठाकुर मंत्री पद की शपथ ले रहे थे।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से नड्डा का नजदीकी और लंबा रिश्ता रहा है। बीस साल पुरानी एक घटना है। तब नरेन्द्र मोदी बीजेपी के पंजाब, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और चंडीगढ़ के प्रभारी थे। हिमाचल में फरवरी, 1998 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी और कांग्रेस को बराबर-बराबर 31-31 सीटें मिली थीं। कांग्रेस से अलग हुए नेता और भ्रष्टाचार से चौतरफ़ा घिरे सुखराम की पार्टी हिमाचल विकास कांग्रेस को 5 सीटें मिली थीं। उस वक्त बीजेपी के पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ नेता शांता कुमार ने सुखराम की पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाने से इनकार कर दिया था।
मोदी की रणनीति, नड्डा का साथ
मोदी के लिए यह पहला मौक़ा था, अपनी राजनीतिक कुशलता दिखाने का। मोदी हिमाचल में बीजेपी की सरकार बनाना चाहते थे। मोदी ने रणनीति बनाई और जगत प्रकाश नड्डा ने उसे अमलीजामा पहनाने में अहम भूमिका निभाई। बीजेपी ने हिमाचल विकास कांग्रेस के चार विधायकों, कांग्रेस के एक नाराज विधायक और एक निर्दलीय विधायक को अपने पक्ष में कर लिया और बीजेपी के व अन्य सभी विधायकों को हिमाचल से हरियाणा के पंचकुला ले जाया गया। फिर पंचकूला से चंडीगढ़ के शिवालिक व्यू होटल में रखा गया। उस दौरान मैं भी वहां मौजूद था। लेकिन हिमाचल प्रदेश के इंटेलीजेंस के अफ़सरों को भनक लग गई, इसलिए उन्हें वहां से हटाना ज़रूरी था। तब मोदी ने हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री बंसीलाल से बात की और विधायकों को कुरुक्षेत्र में सुरक्षित स्थान पर ले जाया गया। लंबी सियासी कसरत के बाद प्रेम कुमार धूमल मुख्यमंत्री बने और उस सरकार में नड्डा स्वास्थ्य और संसदीय कार्यमंत्री बनाए गए। तब से मोदी और नड्डा का रिश्ता बरकरार रहा।
कहा जाता है कि पहाड़ों में जो लोग गीत गाते, हंसते-मुस्कराते चलते हैं उनकी जिंदगी में उतार-चढ़ाव आसानी से पार हो जाते हैं। दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी के अध्यक्ष पद तक पहुंचने का नड्डा का सफर 1977 में शायद तब शुरू हुआ होगा जब वह जेपी आंदोलन से निकलकर पटना विश्वविद्यालय छात्रसंघ के सचिव चुने गए थे।
अक्सर हिमाचली टोपी लगाए रखने वाले नड्डा का जन्म दिसम्बर, 1960 में पटना में हुआ था, जहां उनके पिता यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर भी रहे। हिंदुत्व का नारा देने वाली पार्टी के नए अध्यक्ष की स्कूली पढ़ाई पटना के कॉन्वेंट सेंट स्टीफ़ंस स्कूल में हुई और उन्होंने ग्रेजुएशन भी पटना विश्वविद्यालय से किया। इसके बाद वह अपने गृह राज्य हिमाचल प्रदेश आ गए, जहां से उन्होंने क़ानून की डिग्री हासिल की।
1984 में छात्रसंघ अध्यक्ष बने नड्डा
1978 में नड्डा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में शामिल हो गए। 1984 में उन्होंने पहला बड़ा राजनीतिक धमाका किया जब हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में स्टूडेंट फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया को हरा कर विद्यार्थी परिषद ने पहली बार छात्रसंघ चुनाव में जीत हासिल की और नड्डा छात्रसंघ के अध्यक्ष बने। इसके बाद 1986 से 1989 तक नड्डा विद्यार्थी परिषद के राष्ट्रीय महासचिव रहे। 1991 में जब बीजेपी तेजी से आगे बढ़ रही थी उस वक्त नड्डा भारतीय जनता युवा मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए गए, तब डॉ. मुरली मनोहर जोशी बीजेपी के अध्यक्ष थे।
हिमाचल प्रदेश में जब एंटी बीजेपी लहर चल रही थी तब नड्डा ने अपना पहला विधानसभा चुनाव 1993 में बिलासपुर से जीता था। उस वक्त पार्टी के ज़्यादातर बड़े नेता चुनाव हार गए थे, इसलिए नड्डा पहली बार में ही विधानसभा में विपक्ष के नेता चुन लिए गए। 2007 में भी वह विधायक बने और मंत्री भी। प्रेम कुमार धूमल तब मुख्यमंत्री थे। धूमल के दूसरी बार के कार्यकाल में नड्डा वन और पर्यावरण मंत्री थे। धूमल और नड्डा के बीच कुछ कारणों से रिश्ते ऐसे बिगड़े कि उन्हें 2009 में मंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा।
पहाड़ों में और जिंदगी में, दोनों जगह ढलान के बाद फिर चढ़ाई शुरू होती है। हिमाचल प्रदेश की सरकार से इस्तीफ़े के बाद नड्डा की शुरुआत हुई राष्ट्रीय राजनीति से। तब के बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उन्हें राष्ट्रीय महासचिव बनाया।
साल 2014 के लोकसभा चुनाव में जब अमित शाह उत्तर प्रदेश की कमान संभाल रहे थे तब नड्डा बीजेपी मुख्यालय में बैठकर चुनावी राजनीति का संचालन कर रहे थे। चुनाव के बाद उनका अध्यक्ष बनना तय माना जा रहा था। आरएसएस ने उनके नाम की सिफारिश की थी क्योंकि संघ दोनों ही, प्रधानमंत्री और बीजेपी अध्यक्ष एक ही राज्य से नहीं चाहता था लेकिन फ़ैसला मोदी का चला और अमित शाह अध्यक्ष बन गए। इसके बाद महाराष्ट्र में हुए चुनावों में जब बीजेपी की पहली बार सरकार बनी तब प्रभारी नड्डा ही थे।
2014 के चुनावों में जिस उत्तर प्रदेश ने अमित शाह को राष्ट्रीय राजनीति का हीरो बनाया उसी यूपी ने 2019 में नड्डा को ताकतवर बना दिया। बीएसपी-एसपी के गठजोड़ के बावजूद बीजेपी को नड्डा के प्रभारी रहते हुए 80 में से 61 सीटें मिली और 49.6 फ़ीसद वोट मिले। शाह के वक्त 50 फ़ीसद वोट और 71 सीटें मिली थीं।
2019 के शपथग्रहण समारोह के वक्त जब मंत्रियों की लिस्ट में नड्डा का नाम नहीं था तो कुछ लोग हैरान थे। कुछ दिनों बाद नड्डा को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया और अब वह बीजेपी के सर्वोच्च पद पर पहुंच रहे हैं। लेकिन संघ की पसंद के बावजूद सवाल यह है कि क्या नड्डा बीजेपी को अमित शाह की छाया से बाहर निकाल पायेंगे