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दानिश अली को नहीं, भारत की अवधारणा को गाली‌

दानिश अली को नहीं, भारत की अवधारणा को गाली‌

बीजेपी सांसद रमेश बिधूड़ी द्वारा संसद में बसपा सांसद दानिश अली को अपशब्द कहा जाना क्या महज संयोग है या सिर्फ़ आवेश में कही गई बात है? इस पर बीजेपी की प्रतिक्रिया क्या संकेत देती है?

क्या रमेश बिधूड़ी की भाषा पर बीजेपी कोई कार्रवाई करेगी? क्या लोकसभाध्यक्ष ओम बिरला इतनी हिम्मत दिखाएंगे कि वे इस अमर्यादित और अशालीन भाषण के लिए रमेश बिधूड़ी को एक सत्र के लिए भी निलंबित कर सकें? 

फिलहाल ऐसा लगता नहीं। बिधूड़ी की आलोचना में शामिल भाजपा नेताओं की भाषा देखिए। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का कहना है कि अगर बिधूड़ी की बात से किसी को ठेस पहुंची है तो वह खेद प्रकट करते हैं। क्या उन्हें खुद ऐसी भाषा से ठेस नहीं पहुंची? क्या इस बात पर शर्म नहीं आई कि जिस देश के वे रक्षा मंत्री हैं उसके एक समुदाय के बारे में उनकी ही पार्टी के नेता लगातार अपशब्द कह रहे हैं और वह उनकी रक्षा करने में असमर्थ हैं? 

नए भवन में नया भाव पैदा करने की अपील करने वाले प्रधानमंत्री बिधूड़ी के बयान पर खामोश क्यों हैं? बीजेपी ने ज़रूर अपने सांसद को नोटिस देकर पंद्रह दिन में जवाब मांगा है। लेकिन गालियों का क्या तर्क हो सकता है? उनकी क्या कैफियत हो सकती है? और जवाब के लिए 15 दिन की मोहलत क्यों? क्या इसलिए नहीं कि बीजेपी को लगता है कि‌ सोशल मीडिया के इस स्मृतिभ्रष्ट समय में लोग ये गालियाँ तब तक भूल चुके होंगे और बिधूड़ी अपने बयान के लिए खेद प्रकट कर नफरतों की नई खेती में लग पाएंगे?

चाहें तो याद कर सकते हैं कि बीजेपी का इतिहास ऐसे ही बयानों का इतिहास रहा है। महात्मा गांधी की हत्या को लेकर प्रज्ञा ठाकुर निर्द्वंद्व भाव से बोलती‌ हैं और प्रधानमंत्री कहते हैं कि वह उन्हें दिल से माफ़ नहीं कर पाएंगे।

दरअसल, रमेश बिधूड़ी ने जो कुछ कहा है, वह गुस्से में भले कहा गया हो, लेकिन उन्हें बाकायदा इसका वैचारिक प्रशिक्षण हासिल है। संघ परिवार के भीतर अल्पसंख्यकों को लेकर जो घृणा और हिकारत का भाव है, वह अक्सर अनौपचारिक बातचीत में इसी शब्दावली में फूटता है। बेशक यह पहली बार हुआ है कि बिल्कुल लोकसभा के भीतर एक सांसद ने वह सब कह डाला जिसे सार्वजनिक तौर पर कहने से संघ परिवार बचता।

यह टिप्पणी संघ परिवार के भाषिक या वैचारिक रुझानों की याद दिलाते हुए उस पर हमले के लिए नहीं लिखी जा रही है। यह उस विफलता का शोक मनाने के लिए लिखी जा रही है जिसके हम सब ज़िम्मेदार और गुनहगार हैं।

यह विफलता उस भारतीय राष्ट्र राज्य के निर्माण की है जिसका सपना आज़ादी की लड़ाई के दौरान देखा गया था और जिसके बीज बोने वालों में गांधी, नेहरू, सुभाष चन्द्र बोस, भगतसिंह- सब शामिल थे। भाषाओं के आधार पर बने और बंटे यूरोपीय राष्ट्रवाद का अनुभव बताता था कि राष्ट्रवाद जिस साम्राज्यवादी परियोजना की देन है, वह‌ वर्चस्व, युद्ध, अविश्वास, श्रेष्ठता ग्रंथि और औपनिवेशिक शोषण के लगातार चलने वाले सिलसिले से ही परवान चढ़ता है। ऐसा अमानवीय आक्रामक राष्ट्रवाद भारत को नहीं चाहिए था। अंग्रेजों के औपनिवेशिक शोषण के खिलाफ संघर्ष करते हुए भारत ने लगभग एक आम सहमति कायम की थी कि हमारा राष्ट्रवाद विभिन्नता में एकता और समानता के दर्शन पर विकसित होगा। अलग-अलग बोलियां, भाषाएं, क्षेत्रीय अस्मिताएं, धार्मिक मान्यताएं और आस्थाएं अपने आप को भारतीय राष्ट्रवाद के भीतर समान अधिकार के साथ अभिव्यक्त कर सकेंगी।

राष्ट्रवाद की अवधारणा के विरुद्ध एक बहुसंख्यकवादी माहौल बनाने की कोशिश हमेशा चली, लेकिन हाल के दिनों में यह अपने चरम पर है। हमारे राष्ट्रवाद का चरित्र बदला जा रहा है। इसे चुपचाप हिंदू राष्ट्रवाद बनाया जा रहा है। यह हिंदू राष्ट्रवाद अपने बहुसंख्यक, प्राचीन और सनातन होने की भ्रामक दावेदारी के साथ तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं को बदलने की कोशिश में है। ऐतिहासिक तौर पर वर्चस्ववादी हैसियत हासिल और साधन-संपन्न एक बड़ा तबका राष्ट्रवाद की इस नई किस्म का वैश्विक हरकारा बना हुआ है जिसके दिमाग में अतीत में विश्व गुरु होने का गुमान और भविष्य में विश्व शक्ति होने का ख़याल छाया हुआ है। ऐसे किसी ख़याल में बुराई कुछ नहीं है- सिवाय इसके कि इसकी बुनियाद में जो सर्वसमावेशी संवेदना होनी चाहिए, वह कुछ कम है। कुछ वर्गों को बहुत तेज़ी से आगे बढ़ने की हड़बड़ी है। इस वजह से एक बहुत आक्रामक क़िस्म का राष्ट्रीय मनोविज्ञान बनाया जा रहा है - यह बताते हुए कि पिछले हिंदुस्तान की तो कोई महत्वाकांक्षा ही नहीं थी, वह अल्पसंतोषी था।

रमेश बिधूड़ी पर लौटें। अपने सदन के ही सांसद, बिल्कुल बराबरी के भारतीय नागरिक दानिश अली पर गालियों की यह पुष्प वर्षा उन्होंने तब की जब वे चंद्रयान तीन की उपलब्धियां गिनाते हुए प्रधानमंत्री का गुणगान कर रहे थे। तो दरअसल यह एक विकसित भारत का गौरव था, जो एक अल्पसंख्यक भारत पर टूट पड़ा था।

इसलिए इस भाषा पर आपत्ति जितनी ज़रूरी है, उतनी ही उस प्रवृत्ति पर भी ज़रूरी है जिससे यह भाषा निकलती है। जब रमेश बिधूड़ी ये अपशब्द कह रहे थे तब उनके ठीक पीछे बैठे बीजेपी के दो वरिष्ठ सांसद डॉ. हर्षवर्धन और रविशंकर प्रसाद मुस्कुराते देखे जा रहे थे। बाद में दोनों ने सफाई दी कि वे ऐसी भाषा मंज़ूर नहीं करते। लेकिन क्या उन्होंने खुल कर कहा कि यह विचार भी उन्हें मंज़ूर नहीं है? क्या किसी बीजेपी नेता ने दानिश अली से मिलकर उनसे माफ़ी मांगने की कोशिश की?

यह काम वे नहीं करेंगे। क्योंकि उनके निशाने पर दानिश अली नहीं, वह हिंदुस्तान है जो मिल-जुलकर कर रहने में भरोसा करता है- वह हिंदुस्तान जो हज़ार साल में विकसित हुआ और जिस पर स्वाधीनता संघर्ष के दौरान मुहर लगी। रमेश बिधूड़ी की गाली दानिश अली को नहीं, इसी हिंदुस्तान को लगी है।

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