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घूस देकर वोट ख़रीदते बीजेपी-कांग्रेस

घूस देकर वोट ख़रीदते बीजेपी-कांग्रेस

ठीक चुनाव के समय लोकलुभावन नारे उठाने वाली पार्टियाँ दूसरे दलों के इसी तरह की घोषणाओं का मजाक उड़ाने में लगी हैं। क्या है मामला?

बार-बार के इस्तेमाल से सच भी घिस पिट कर तुच्छ बन जाता है। वोट के बदले नकद बाँटने के इस मूर्खतापूर्ण मौसम में काम करने नहीं, आश्वासन देने की राजनीति के पराग कण हवा में छितराए हुए हैं। ऐसी कोई पार्टी नहीं है, जिसने मतदाताओं को मुफ़्त की चीजों के रूप में घूस देने की कोशिश न की हो। पाखंड कभी ख़त्म नहीं होता है। हर पार्टी दूसरी पार्टी का यह कह कर मखौल उड़ा रही है कि उसने जो वायदे किए हैं, वे कभी पूरे नहीं हो सकते।

हर किसान के बैंक खाते में हर महीने 500 रुपये जमा करने से जुड़ी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की घोषणा का कांग्रेस ने मजाक उड़ाया और पूछा कि इसके लिए पैसे कहाँ से आएँगे। मोदी को पैसे मिल गए और उन्होंने प्रचार अभियान के दौरान ही पैसे दे भी दिए। जब राहुल गाँधी ने इसके जवाब में पैसे देने का बम गिरा दिया तो बीजेपी ने कहा कि यह तो ग़लत है।

राहुल गाँधी ने संपत्ति और कल्याण की नीति का एलान करते हुए कहा कि ग़रीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले सबसे ग़रीब 20 प्रतिशत लोगों की मासिक आय 12,000 रुपये सुनिश्चत की जाएगी। इससे भगवावादियों में खलबली मच गई। जैसी कि उम्मीद थी, सत्तारूढ़ दल के बढ़-चढ़ कर कुछ भी बोलने वाले नेताओं ने राहुल की अर्थव्यवस्था पर सवाल उठाए।

कांग्रेस घोषणापत्र ने कुछ चुनिंदा लोगों की संपत्ति बढ़ाने के बजाय अधिक से अधिक लोगों के कल्याण के लिए पैसे खर्च करने की सरकार की क्षमता और भूमिका पर एक अर्थपूर्ण बहस छेड़ दी है। कांग्रेस ने बीजेपी को चुनौती दी कि वह बताए कि किसानों की कल्याणकारी योजनाओं, स्वास्थ्य स्कीमों और बजट में बताई गई दूसरी लोकलुभावन घोषणाओं के लिए वह पैसे आख़िर कहाँ से लाएगी। सरकारी बैंकों की पूँजी बढ़ाने के लिए 2 लाख करोड़ रुपए की व्यवस्था करने और जीएसटी के रूप में उम्मीद से 80,000 करोड़ रुपये कम वसूली की भरपाई करने के बीजेपी की कामयाबी की कांग्रेस ने हँसी उड़ाई।

साल 2019 का लोकसभा चुनाव दूसरों को चूसने वाले ठगों के लिए बहुत अच्छा है जो अर्द्ध समाजवाद और क्रोनी कैपिटलिज़म का मिला जिला रूप पसंद करते हैं। कुछ अपवादों को छोड़ कर, बैंकों से बड़ा कर्ज़ लेकर नहीं चुकाने वाले ज़्यादातर लोग उनकी कंपनियों की जायदाद पर कब्ज़ा कर लेने के बावजूद एशो आराम की ज़िंदगी जी रहे हैं, जबकि ग़रीब निहायत ही कष्टपूर्ण स्थिति में जीवन यापन कर रहे हैं। चूँकि वंचित लोग ही वोट डालने के लिए बड़ी तादाद में निकलते हैं, कुछ समय के लिए उनकी ओर ध्यान गया है। राजनेता ख़ुद को समृद्धि का सौदागर साबित करने के लिए आम जनता से राय माँग रहे हैं।

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स्टॉक कारोबार पर टर्न ओवर टैक्स

साल 1991 में जब बाज़ार को उदार बनाया गया, प्रमोटरों, बैंकरों, विदेशी संस्थागत निवेशकों और सटोरियों ने कर मुक्त कैपिटल गेन व्यवस्था का भरपूर फ़ायदा उठाया। शेयर कारोबार सबसे अधिक मुनाफ़े का धंधा बन गया और गोपनीय संसाधनों से पूँजी की व्यवस्था की गई। बाज़ार ज़बरदस्त फ़र्ज़ीवाड़ा करने वालों का अड्डा बन गया। बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज और राष्ट्रीय स्टॉक एक्सचेंज में रोज़ाना 40,000 करोड़ रुपये का कारोबार होता है।

चाहे कांग्रेस की सरकार हो या बीजेपी या तीसरे मोर्चे की, बीते 25 साल में किसी की हिम्मत नहीं हुई कि पूँजीगत लाभ यानी कैपिटल गेन पर नाम मात्र का भी टैक्स लगा दे।

हालाँकि शेयर कारोबार से होने वाली आय पर अल्प अवधि और लम्बे समय के लिए कर लगाया गया। पर वेतनभोगी लोगों पर लगने वाले आयकर की तुलना में हस्यास्पद ढंग से कम है। घरेलू और विदेशी निवेशकों की ताक़तवर लॉबी ने स्टॉक एक्सचेंज को समान कर प्रणाली से बाहर रखा, हालाँकि यह दूसरे नागरिकों पर लागू होता है।

प्रतिभूतियों और स्टॉक कारोबार से होने वाली मासिक आय 2.25 लाख करोड़ रुपये पर 0.10 प्रतिशत का अतिरिक्त कल्याण कर भी लगा दिया जाए तो सरकार को सालाना कम से कम 2.60 लाख करोड़ रुपए की अतिरिक्त आमदनी होगी।

इससे ग़रीबों को मासिक पैसे देने वाली न्याय प्रणाली पर होने वाले खर्च का 60 प्रतिशत से ज़्यादा निकल जाएगा। इसी से इतने पैसे मिल जाएँगे कि मोदी सरकार की किसान-कल्याणकारी योजना के लिए पैसे का इंतजाम हो जाएगा। इसके अलावा भारत दुनिया का शायद अकेला देश है, जहाँ ग़रीब और अमीर को समान आयकर और कैपिटल गेन कर चुकाना होता है। अमेरिका में इस कर का आकलन हर व्यक्ति की आय के आधार पर किया जाता है।

डेरवेटिव कारोबार धूर्तों का खेल है, जहाँ अधिकतर निवेशक सटोरिए होते हैं, इसलिए केंद्र सरकार यदि इस कारोबार पर अधिक कर लगा दे तो उसे सालाना 20,000 करोड़ रुपये की अतिरिक्त कमाई होगी।

इसके पहले इस पर नियंत्रण नहीं के बराबर था, विदेशों के अज्ञात स्रोतों से निवेश लाने के लिए उसमें भी छूट दे दी गई। डेरीवेटिव कारोबार में नुक़सान होने पर उसकी भरपाई के लिए छूट देने के प्रावधान को भी सरकार ख़त्म कर सकती है।

डॉलर अरबपतियों पर सरचार्ज

सरकार जब तक वित्तीय व्यवस्था में होशियारी दिखा कर या धनी लोगों को अधिक कर चुकाने के लिए मजबूर कर ज़्यादा राजस्व उगाही नहीं करती है, नया भारत नहीं बन सकता है। उदार कर प्रणाली का लाभ उठा कर भारतीय प्रमोटरों ने उन कंपनियों में निजी संपत्ति के रूप में अकूत पैसा इकट्ठा किया है, जिनमें उनके पुरखे मूल प्रमोटर थे। अब ऐसे मूल प्रमोटर कम ही बचे हैं, जिनके पास उनकी कंपनी का बहुमत शेयरहोल्डिंग हो। इस स्थिति का लाभ उठा कर बहुत सारे डॉलर करोड़पति और डॉलर अरबपति बन गए हैं। ये हज़ारों घरेलू और पासपोर्ट धारी अनिवासी भारतीय हैं, जिनकी कुल संपत्ति 200 अरब डॉलर से अधिक है। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जिनमें से हरेक के पास 5 अरब डॉलर से ज़्यादा की जायदाद है।

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ऐशो-आराम की चीजों पर कर

खुली बाज़ार व्यवस्था और उदार आयात नीतियों की वजह से ऐशो-आराम की चीजों की खपत में ज़बरदस्त इजाफ़ा हुआ है। बीते एक दशक में विदेशी सुपर कार, जेट हवाई जहाज़, यॉट, मनोरंजन के उपकरण, घरेलू इस्तेमाल की चीजें और अत्याधुनिक ऑफ़िस के उपकरण का आयात 1,000 प्रतिशत बढ़ गया है। भारत की सभी हवाई कंपनियों के पास कुल मिला कर जितने हवाई जहाज़ हैं, उससे अधिक निजी जेट यहाँ हैं। इस तरह की चीजों पर आयात कर और जीएसटी दोनों ही 30 प्रतिशत से कम नहीं होनी चाहिए। निजी जेट जहाज़ों पर होने वाले खर्च की एक सीमा तय होनी चाहिए और उससे ऊपर के खर्च पर अतिरिक्त कर लगना चाहिए।

कारोबार कर 

भारतीय कारपोरेट जगत के लोग अपने बढ़ते कारोबार को लेकर डींग हांकने का कोई मौक़ा कभी नहीं छोड़ते। एक निजी अध्ययन में पाया गया है कि कारपोरेट टैक्स कम करने से कारोबार में बढ़ोतरी होती है और कर बढ़ाने से कारोबार कम होता है। जैसे जैसे कंपनी बढ़ती जाती है, आँकड़ों से छेड़छाड़ करके कर बचाने या कर चुकाने से बचने की जुगत लगाने की प्रवृत्ति भी बढ़ती जाती है। वास्तविक वित्तीय स्थिति कमज़ोर होने पर भी वे कारोबार के आधार पर बैंकों से कर्ज़ उठा लेते हैं।

जिन कंपनियों का कारोबार 100 करोड़ रुपये से ज़्यादा होता हो, उन पर सिर्फ़ 1 प्रतिशत कारोबार कर लगा करके सरकार सालाना 40,000 करोड़ रुपये का इंतज़ाम कर से सकती है।

जहाँ चाह, वहाँ राह

यदि भारत बग़ैर किसी तरह के भेदभाव वाली कर प्रणाली लागू करे तो समग्र विकास के मॉडल के लिए पर्याप्त पैसे की व्यवस्था की जा सकती है। देश ग़रीबों के लिए सब्सिडी और अमीरों के लिए प्रोत्साहन की नीति पर चलता आया है। हर बार चुनाव में नया नारा वंचितों को मंत्रमुग्ध कर देता है। ऐसी वित्तीय व्यवस्था की बहुत ही अधिक ज़रूरत है जिसमें ग़रीबों को सशक्त करने के लिए अमीर पैसे चुकाएँ। जब तक राजनीतिक दल बराबरी के आधार पर संपत्ति का बँटवारा और मौके सुनिश्चित नहीं करते, नया भारत एक आकर्षक नारा ही बना रहेगा।

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