टिकटों को लेकर कांग्रेस और भाजपा में बग़ावत की जो स्थिति बनी उसे या तो दोनों पार्टियों के आलाकमानों ने गंभीरता से नहीं लिया या फिर जो भी तनाव क़ायम हुआ है उसे सार्वजनिक नहीं होने दिया गया। चुनाव नतीजों की दृष्टि से विद्रोह के हालात कई सीटों पर गंभीर स्थिति में पहुँच गए हैं। ऐसे ही चलता रहा तो इसका असर लोकसभा चुनावों पर भी पड़ने वाला है। कहा जा रहा है कि कांग्रेस के मुक़ाबले भाजपा को ही ज़्यादा नुक़सान उसके बग़ावतियों से होने वाला है। नाम वापस लेने की आख़िरी तारीख़ तक बत्तीस सीटों (कुल 230) को प्रभावित करने वाले भाजपा के 35 बाग़ी मैदान में थे। यह संख्या काफ़ी बड़ी है।
बात ‘संस्कारधानी’ शहर जबलपुर से शुरू करते हैं। जबलपुर जेपी नड्डा की ससुराल भी है। भूपेन्द्र यादव केंद्रीय मंत्री होने के अलावा एक योग्य अधिवक्ता और विनम्र व्यक्ति भी हैं। मंदिर निर्माण को लेकर सुप्रीम कोर्ट में चले प्रकरण में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है। पार्टी के मध्यप्रदेश के लिए चुनाव प्रभारी यादव इस आत्मविश्वास के साथ जबलपुर पहुँचे होंगे कि तैयारियों का जायज़ा लेने के साथ-साथ वे टिकटों को लेकर उत्पन्न हुई नाराज़गी को भी शहर की प्रतिष्ठा और कार्यकर्ताओं की ‘अनुशासनप्रियता’ के आधार पर बातचीत से शांत कर लेंगे। वैसा नहीं हुआ।
अक्टूबर के तीसरे सप्ताह में यादव जैसे ही जबलपुर स्थित संभागीय कार्यालय पहुँचे नाराज़ कार्यकर्ताओं ने उन्हें घेर लिया और धक्का-मुक्की भी की। एक सांसद के गनमेन के साथ हाथा-पाई हो गई। उसकी शिकायत पर बाद में चार लोगों को गिरफ़्तार कर लिया गया। प्रदेश अध्यक्ष, सांसद और वर्तमान में विधानसभा उम्मीदवार वीडी शर्मा के ख़िलाफ़ अपमानजनक टिप्पणियाँ और नारेबाज़ी की गईं। पार्टी ने जबलपुर में सांसद राकेश सिंह को भी विधानसभा का उम्मीदवार बनाया है। यहाँ के संसदीय क्षेत्र की आठ विधानसभा सीटों में चार अभी कांग्रेस के पास हैं। आगे क्या होगा तीन दिसंबर को नतीजों में पता चलेगा।
कांग्रेस में तो हालात कपड़े फाड़ने तक पहुँच गए। टिकट वितरण से नाराज़ कार्यकर्ताओं को कमलनाथ द्वारा दी गई सलाह कि कपड़े फाड़ना हो तो दिग्विजय सिंह और (उनके बेटे) जयवर्धन सिंह के फाड़ो का असर चुनावों के बाद भी ख़त्म नहीं होने वाला है। नामांकन दाखिल करने की आख़िरी तारीख़ तक कमलनाथ के बंगले के बाहर और दिग्विजय सिंह के आवास के भीतर तक कपड़े फाड़ने वालों की भीड़ के दर्शन किए जा सकते थे।
टिकटों को लेकर दोनों ही दलों में जो कुछ चला और आगे चलकर जो तेज़ वाला है वह यह है कि अब ‘विश्वसनीय’ कार्यकर्ताओं ने भी अपने आलाकमानों को चुनौती देना प्रारंभ कर दिया है। पार्टी प्रत्याशियों की चौथी सूची जारी होने के पहले तक जो भावपूर्ण ड्रामा शिवराज सिंह के चुनाव क्षेत्र के मतदाताओं ने देखा वह प्रदेश की राजनीति और भाजपा के लिए नया अनुभव था। अपने टिकट को लेकर पीएम से सवाल पूछने की हिम्मत दिखाने के बजाय मुख्यमंत्री ने जनता से पूछना शुरू कर दिया कि : ‘मैं चुनाव लड़ूँ या नहीं? मैं चला जाऊँगा तो बहुत याद आऊँगा।’ निश्चित ही अपने टिकट को लेकर शिवराज सिंह जनता के दबाव का इस्तेमाल करने लगे थे।
कल्पना की जा सकती है कि मोदी अगर गुजरात की तर्ज़ पर शिवराज सिंह और उनके मंत्रिमंडल के सहयोगियों के टिकट काट देते तो किस तरह का विद्रोह मच सकता था!
भाजपा में ही एक तबक़े की सोच है कि एंटी-इंकम्बेंसी शिवराज सरकार के ख़िलाफ़ थी। उन्हें टिकट नहीं दिया जाता तो भाजपा की भारी बहुमत से जीत सुनिश्चित थी। भाजपा आलाकमान द्वारा इतने सांसद-मंत्रियों को इसी इरादे से मैदान में उतारा भी गया था।
कांग्रेस के बारे में चर्चा यही है कि टिकट कमलनाथ की मर्ज़ी से बाँटे गए। दिल्ली की नहीं चलने दी गई। दिग्विजय सिंह की इस स्क्रिप्ट पर कोई यक़ीन करने को तैयार नहीं है कि चार हज़ार आवेदकों में से केवल जीतने वाले नाम ही दिल्ली, प्रदेश और स्थानीय स्तर पर छानबीन के बाद अंतिम रूप से तय किए गए। अगर ऐसा हुआ है तो एमपी में कांग्रेस को डेढ़ सौ से ज़्यादा सीटें मिलनी चाहिए। ऐसा ही राजस्थान में भी हुआ। वहाँ भी अशोक गहलोत की ही चली। सचिन पायलट को लेकर चले घटनाक्रम के दौरान गहलोत ने पार्टी आलाकमान की हैसियत को ही मानने से इंकार कर दिया था। खड़गे के पहले पार्टी का अध्यक्ष नियुक्त किए जाने की पेशकश को भी गहलोत ने मुख्यमंत्री का पद नहीं छोड़ने की शर्त से जोड़कर ठुकरा दिया था। खड़गे और राहुल से पूछे बग़ैर ही दोनों नेताओं ने अपने आप को भावी मुख्यमंत्री भी घोषित कर रखा है।
चर्चाओं में इस समय सवाल यह है कि भाजपा अगर चुनाव जीत जाती है तो वह शिवराज का क्या करेगी? मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया तो शिवराज क्या करेंगे? क्या वे लोकसभा लड़ने को तैयार हो जाएँगे? पार्टी अगर हार गई तो क्या उन्हें डंप कर दिया जाएगा? वसुंधरा राजे ने बेटे के पक्ष में राजनीति से रिटायरमेंट लेने का इरादा चाहे हवा में उछाल दिया हो, भाजपा अगर राजस्थान में जीत गई तो क्या वह किसी और को मुख्यमंत्री बना पाएगी? चार महीने बाद ही पार्टी को लोकसभा चुनाव भी लड़ना है। मध्यप्रदेश और राजस्थान में मोदी को लोकसभा की लड़ाई कांग्रेस से भी लड़नी पड़ेगी और अपनी ही पार्टी के विद्रोही नेताओं से भी।
कांग्रेस आलाकमान के लिए भी एमपी और राजस्थान चुनौती के तौर पर उभरने वाले हैं। 2018 में इन्हीं दो राज्यों में कमलनाथ और गहलोत के नेतृत्व में सरकारें बन जाने के बावजूद लोकसभा में पार्टी का सफ़ाया हो गया था। ये दोनों नेता ही इस बार भी कमान में हैं और विद्रोही तेवर अपनाए हुए हैं।
उपसंहार यह कि प्रधानमंत्री और राहुल गांधी दोनों को उनकी ही पार्टियों के तपे-तपाए नेताओं ने लोकसभा चुनावों के पहले से तेवर दिखाना प्रारंभ कर दिया है। कांग्रेस के मामले में तो मध्यप्रदेश, राजस्थान के साथ कर्नाटक को भी जोड़ा जा सकता है। वहाँ का संकट अभी जारी है। दोनों ही नेता जनता के बीच जितने ताकतवर नज़र आते हैं भीतर से उतने हैं नहीं! इसी कारण दोनों के लिए विधानसभा चुनाव जीतना ज़रूरी हो गया है। हिमाचल और कर्नाटक के बाद इन प्रमुख हिन्दीभाषी राज्यों में भी भाजपा की हार केंद्रीय नेतृत्व के ख़िलाफ़ विद्रोह को और तेज कर देगी! शिवराज और वसुंधरा दोनों ही अच्छे से जानते हैं कि उन्हें टिकट किन परिस्थितियों में दिए गए हैं और उन्हें आगे क्या करना पड़ सकता है।