मुल्क़ में हर साल 11 नवम्बर यानी मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की यौम-ए-पैदाईश के दिन को ‘राष्ट्रीय शिक्षा दिवस’ के तौर पर मनाया जाता है। शिक्षा के क्षेत्र में मौलाना आज़ाद का योगदान अतुलनीय है। वे आज़ाद भारत के पहले शिक्षा मंत्री थे। आज़ादी के बाद शिक्षा के क्षेत्र में जो भी नेशनल प्रोग्राम बने, उनमें मौलाना आज़ाद का अहमतरीन रोल था।
दूसरी आलमी जंग के बाद जब सारी दुनिया में तालीम को लेकर बड़े पैमाने पर काम हो रहा था, तब वे मौलाना आज़ाद ही थे, जिन्होंने भारत में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए अहम किरदार निभाया। विश्वस्तरीय शिक्षा का देश में प्रसार हो, इसके लिए उन्होंने ना सिर्फ बच्चों को, बल्कि बड़ों को भी ज़्यादा से ज़्यादा स्कूल से जोड़ने की प्रक्रिया शुरु की।
शिक्षा पर दिया जोर
शिक्षा के बारे में मौलाना आज़ाद के ख़याल बड़े ही क्रांतिकारी थे। उनका कहना था, ‘‘यह प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है कि उसे कम से कम बुनियादी शिक्षा मिले। जिसके बगैर वह एक नागरिक के तौर पर अपने कर्तव्यों को पूरी तरह नहीं निभा सकता।’’ दरअसल, शिक्षा के माध्यम से मौलाना आज़ाद, समाज का स्तर ऊपर उठाना चाहते थे। यही वजह है कि शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने कई कार्य किए।
शिक्षा मंत्री के रूप में मौलाना आज़ाद ने देश में नई राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली को बनाया। इसमें सभी बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य व मुफ्त की गई। उन्होंने देश में उच्च शिक्षा के लिए आधुनिक संस्थानों को बनाने पर भी काफी जोर दिया।
यूजीसी की नींव रखी
मौलाना आज़ाद ने यूजीसी यानी यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन की नींव रखी। जिसका मुख्य उद्देश्य उच्च शिक्षा को बढ़ावा देना, भारत के सभी विश्वविद्यालयों के कार्यों का विश्लेषण करना और एक-दूसरे के बीच समायोजन स्थापित करना था। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने हमेशा आधुनिक संस्थाओं को खोलने की हिमायत की।
घर पर ही हुई तालीम
11 नवम्बर, 1888 को सऊदी अरब के मक्का शहर में जन्मे मौलाना आज़ाद की पूरी तालीम घर में ही हुई। उनके परिवार का माहौल निहायत ही मज़हबी था। उन्होंने फारसी का इल्म पिता के कदमों में, अरबी का इल्म मां की गोद में और उर्दू का इल्म अपनी बहनों के साये में हासिल किया। साल 1895 में मौलाना आज़ाद का परिवार भारत आ गया। बचपन से ही वे अध्ययन में गहरी दिलचस्पी रखते थे। बारह साल की छोटी सी उम्र में वे फारसी और अरबी की तालीम पूरी कर चुके थे।
बचपन में ही निकाला अखबार
मौलाना आज़ाद ने स्वाध्याय से ही अंग्रेजी का अभ्यास किया। बचपन से ही वे जिज्ञासु प्रवृति के थे। हर विचार को अपनाने से पहले वे उस पर खूब चिंतन-मनन करते। लिखने-पढ़ने से ये लगाव ही था कि उन्होंने बचपन में ‘बलाग’ नाम का समाचार-पत्र निकाला और ग्यारह साल की उम्र तक आते-आते ‘नैरंगे आलम’ नामक पत्रिका निकाली। ये पत्रिका उर्दू अदब पर केन्द्रित थी।
साल 1903 में मौलाना आज़ाद ने ‘लिसानुल सिदक’ मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। कम उम्र में मौलाना आज़ाद की काबिलियत, सलाहियत और दानिश्वरी से मुतासिर होकर मौलाना शिबली नोमानी ने उनसे कहा था,‘‘तुम्हारा जेहन व दिमाग अजायबे रोजगार (आश्चर्यजनक वस्तुओं) में से है। तुम्हें तो किसी इल्मी नुमाइशगाह में बतौर अजूबे के पेश करना चाहिए।’’ उनके बारे में कमोबेश ऐसी ही बात सरोजिनी नायडू ने भी की थी। उन्होंने कहा था, ‘‘मौलाना की उम्र की बात मत करो, जब वे पैदा हुए थे, तब पचास साल के थे।’’
कम उम्र में लिखी किताबें
मौलाना आज़ाद ने तेरह साल से अठारह साल तक की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते मुसलिम विधि पर ‘एलानुल-हक’, सूफी मतों पर टीका करते हुए ‘अहसनुल-मसालिक’, मशहूर शायर उमर खय्याम का जीवन चरित्र, इसलाम और आधुनिक विज्ञान के तुलनात्मक अध्ययन पर ‘अल-अलूमुल जदीदः वलइसलाम’, नक्षत्र ज्ञान पर ‘अलहैयत’, इसलाम के अद्वैतवाद और संसार के अन्य धर्मों की एकरूपता पर ‘इसलामी तौहीद और मज़ाहिबे आलम’ जैसी किताबें लिख दी थीं।
मौलाना आज़ाद ने मुसलमानों को तंग नजरिए और फिरकापरस्ती से दूर रहकर, इंसानियत से मोहब्बत करने की तालीम दी। मुसलमानों को समझाने के लिए वे अपनी बात अक्सर कुरान के हवाले से करते थे,‘‘कुरान में इंसानी बिरादरी और भाईचारे पर जोर दिया गया है और इस ख़याल की मुखालिफत की गई है कि सामाजिक या नस्ल के आधार पर इंसान का कोई तबका, दूसरे तबके से अफजल (श्रेष्ठ) हो सकता है।’’
मौलाना आज़ाद को शुरुआत में शेर-ओ-शायरी से बेहद लगाव था लेकिन बाद में उनका झुकाव पत्रकारिता की तरफ होता चला गया। उन्हें मुल्क़ भर में मकबूलियत, पत्रकारिता के पेशे में आने के बाद ही मिली। जंग-ए-आज़ादी के दौर में उनकी कलम ने खूब आग उगली।
लोगों को राष्ट्रवाद से जोड़ा
मौलाना आज़ाद ने ब्रितानिया हुकूमत के नस्ली भेदभाव और शासन के अत्याचारी तौर-तरीकों की अपने लेखों में खुलकर मुखालिफत की। साल 1902 में उन्होंने ‘अल-हिलाल’ नामक समाचार पत्र निकाला, जो आगे चलकर देश की राष्ट्रीय विचारधारा के विकास में प्रभावशाली योगदान देने वाला साबित हुआ। राष्ट्रीय क्षेत्र में ‘अल-हिलाल’ राष्ट्रवाद का प्रहरी बनकर सामने आया। इस अखबार के जरिए मौलाना आज़ाद ने ब्रिटिश नीतियों का जमकर विरोध किया। देशवासियों को उन्होंने राष्ट्रवाद के प्रति प्रेरित किया।
नतीजतन, साल 1914 में अंग्रेज़ हुकूमत ने प्रेस अधिनियम के तहत उनके अखबार पर पाबंदी लगा दी। लेकिन अंग्रेजी हुकूमत की कोई भी पाबंदियां उन्हें रोक नहीं पाईं। एक अखबार पर पाबंदी लगती, मौलाना आज़ाद दूसरा अखबार निकाल लेते। इसी तरह आम अवाम को वे लगातार अपने लेखन से बेदार (चौकन्ना) करते रहे।
कांग्रेस में हुए शामिल
स्वतंत्रता आंदोलन में मौलाना आज़ाद का आगाज एक क्रांतिकारी के तौर पर हुआ। बंगाल के क्रांतिकारी लीडर श्याम सुंदर चक्रवर्ती और अरविंद घोष से प्रभावित होकर, वे क्रांतिकारी आंदोलन में शरीक हुए। लेकिन 18 जनवरी, 1920 को महात्मा गांधी के साथ मुलाकात के बाद, वे कांग्रेस में शामिल हो गए। मौलाना आज़ाद ने गांधी और कांग्रेस के दूसरे बड़े लीडरों के साथ असहयोग आंदोलन को जन-जन तक पहुंचाने के लिए देश भर की यात्राएं की।
जंगे आज़ादी के दौर में मौलाना आज़ाद का नाम महात्मा गांधी, सरदार वल्लभ भाई पटेल, सुभाष चंद्र बोस और लाला लाजपत राय जैसे राष्ट्रीय नेताओं के साथ अग्रिम पंक्ति में शुमार होता था।
हिंदू-मुसलिम एकता पर जोर
समग्र राष्ट्रीय आंदोलन में उनका योगदान अभूतपूर्व और अद्वितीय था। यहां तक कहा जाता है कि यदि मौलाना आज़ाद ने हिंदू और मुसलमानों को एकजुट कर दोनों को एक साथ लाने का बीड़ा न उठाया होता, तो हमारे स्वतंत्रता आंदोलन की शक्ल कुछ और ही होती। हिंदू-मुसलिम एकता के लिए महात्मा गांधी के साथ मिलकर उन्होंने बेजोड़ काम किए। उनकी सोच थी,‘‘यदि स्वराज के मिलने में देरी हुई, तो यह हिंदुस्तान का नुक़सान होगा। लेकिन अगर हमारी एकता जाती रही, तो यह विश्व-मानवता का नुकसान है।’’
अंग्रेजी हुकूमत का किया विरोध
स्वतंत्रता आंदोलन में मौलाना आज़ाद की अहमियत इसलिए और बढ़ जाती है कि उनके आने से पहले सर सैयद अहमद खां ने मुसलमानों के दिल में यह बात अच्छी तरह से बैठा दी थी कि अगर उन्हें मुल्क़ में तरक्की करनी है, तो सरकार परस्ती की राह पर चलना होगा। आज़ादी की तहरीक में मौलाना आज़ाद का आगाज हुआ, तो उन्होंने अपनी तमाम तकरीरों में मुसलमानों से उस रास्ते से हटकर, अपने हिंदू भाईयों के साथ अंग्रेज हुकूमत का विरोध करने का पैगाम दिया।
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‘‘मेरा अकीदा (भरोसा) है कि हिंदुस्तान में हिंदुस्तान के मुसलमान अपने बेहतरीन फर्ज तब तक अदा नहीं कर सकते, जब तक वे इसलाम के आदेशों के मुताबिक़ हिंदुस्तान के हिंदुओं से पूरी सच्चाई के साथ एकता और इत्तेफाक न कर लें।’’
25 अगस्त, 1921 की एक तकरीर में मौलाना आज़ाद
कई साल जेल में गुजारे
आज़ादी के आंदोलन में भागीदारी की वजह से साल 1916 में पहली बार मौलाना आज़ाद की नजरबंदी हुई और उसके बाद साल 1945 तक आते-आते वे छह बार और जेल की सलाखों के पीछे भेजे गए। दस साल का लंबा वक्फा उन्होंने जेल में बिताया, लेकिन उनकी वतनपरस्ती में कोई कमी नहीं आई। मुल्क़ के लिए किसी भी तरह की कुर्बानी देने के लिए वे हमेशा आगे रहे।
राष्ट्रीय आंदोलन में मौलाना आज़ाद की तकरीरों का मुल्क़वासियों पर काफी असर पड़ता था। देश के पहले राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने मौलाना आज़ाद की वक्तव्य कला पर चर्चा करते हुए कहा था, ‘‘उन्होंने अपनी तकरीरों से मुल्क़ में बेदारी की ऐसी लहर दौड़ाई कि हर चहार जानिब से आज़ादी का तूफान उमड़ आया हो।’’
मौलाना आज़ाद, मज़हब के नाम पर अलगाववाद को बढ़ावा देने वाली हर गतिविधि के मुखालिफ थे। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान साम्प्रदायिक मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए उन्होंने मुसलिम लीग से जुड़े कई मुसलिम सियासतदानों की खुलकर आलोचना की।
जाहिर है कि अपनी राजनीतिक आस्थाओं तथा विचारों के चलते उन्हें मुसलमानों के एक बड़े तबके का विरोध भी झेलना पड़ा। बावजूद इसके उन्होंने महात्मा गांधी और कांग्रेस का साथ नहीं छोड़ा। मौलाना आज़ाद ने नमक सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा, असहयोग, स्वदेशी, खिलाफत और भारत छोड़ो जैसे सभी बड़े आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की।
कांग्रेस के अध्यक्ष बने
क्रिप्स मिशन, शिमला कांफ्रेंस, कैबिनेट मिशन, माउंटबेटन मिशन और अस्थायी सरकार यानी जब भी किसी निर्णायक मोड़ या मरहले पर कांग्रेस को उनकी ज़रूरत पड़ी, वे सबसे आगे खड़े रहे। साल 1923 में वे कांग्रेस के सबसे युवा अध्यक्ष चुने गए। आज़ादी का आंदोलन जब निर्णायक स्थिति में था, उस वक्त यानी साल 1940 से 1945 के दरमियान भी मौलाना आज़ाद के पास ही कांग्रेस की बागडोर थी।
साल 1946 में जब मुसलिम लीग और मुहम्मद अली जिन्ना ने बंटवारे की मांग तेज की, तो मौलाना आज़ाद इसके खिलाफ डटकर खड़े हो गए। वे बंटवारे के घोर विरोधी थे। उनका मानना था कि हिंदू और मुसलमान भाई-भाई हैं, लिहाजा मज़हब के नाम पर देश के बंटवारे की कोई ज़रूरत नहीं।
पाकिस्तान नहीं गए मौलाना आज़ाद
14 जून, 1947 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में मौलाना आज़ाद ने अपनी तकरीर में कहा, ‘‘कार्यसमिति जिस फैसले पर पहुंची है, वह एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति का नतीजा है। विभाजन भारत के लिए एक ट्रैजेडी है, इसके पक्ष में सिर्फ एक बात कही जा सकती है कि हमने बंटवारे को टालने की बहुत कोशिश की है, लेकिन हम असफल रहे। फिर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मुल्क़ एक है, इसका सांस्कृतिक जीवन एक है और एक रहेगा। राजनीतिक रूप से हम असफल हुए हैं और इसलिए देश को बांट रहे हैं। हमें अपनी पराजय स्वीकार करनी चाहिए लेकिन इसी समय हमें यह भी आश्वासन देना चाहिए कि हमारी संस्कृति विभाजित न होने पाए।’’ उनकी लाख कोशिशों के बावजूद भारत का बंटवारा हो गया। बहुत से मुसलिम लीडर बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए, लेकिन मौलाना आज़ाद ने भारत में ही रहना मंजूर किया।
दो बार सांसद बने
मौलाना आज़ाद साल 1952 और 1957 के आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी की ओर से लोकसभा के लिए चुने गए। वे महात्मा गांधी के अलावा पंडित जवाहरलाल नेहरू के काफी करीबी थे। आज़ादी के बाद उन्होंने पंडित नेहरू के नजदीकी सलाहकार के तौर पर काम किया। राष्ट्रीय नीतियों को बनाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।
भारत की सामाजिक, आर्थिक और व्यापारिक नीतियों को आगे बढ़ाने में जिन नेताओं ने अपनी भूमिका निभाई, उनमें मौलाना आज़ाद अव्वल नंबर पर थे। उन्होंने देश में शिक्षा के अलावा सांस्कृतिक नीतियों की भी नींव रखी। चित्रकला, मूर्तिकला और साहित्य के विकास के लिए मौलाना आज़ाद ने ललित कला अकादमी, संगीत नाटक अकादमी और साहित्य अकादमी की स्थापना की।
मौलाना आज़ाद ने साल 1950 में ‘इंडियन काउंसिल फ़ॉर कल्चरल रिलेशंस’ की स्थापना की, जिसका मुख्य काम दीगर देशों के साथ सांस्कृतिक संबंधों को बनाना और बढ़ाना था। मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय एकता की एक अनूठी मिसाल थे।
भारतीय संविधान में धर्म निरपेक्षता, धार्मिक स्वतंत्रता और समानता के सिद्धांतों को जुड़वाने में उनकी अहम भूमिका रही। यही नहीं, उन्होंने भारतीय मुसलमानों के लिए अलग ‘मुसलिम पर्सनल लॉ’ बनाने के लिए भी खास कोशिशें की। औरतों और पिछड़े तबकों को सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक अधिकार मिलें, इसके लिए उन्होंने बुनियादी काम किए।
नेहरू का मौलाना पर भरोसा
मौलाना आज़ाद शिक्षा को समाज के बदलने का एक बड़ा माध्यम मानते थे। हमारे पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का भी ये मानना था कि यदि देश को आगे बढ़ाना है, तो शिक्षा ही अकेला और सशक्त माध्यम है। सच बात तो यह है कि पंडित नेहरू, मौलाना आज़ाद को मुल्क़ में तालीम की रोशनी फैलाने के लिए सबसे ज़्यादा मुफीद शख्स मानते थे। लिहाजा उन्होंने शिक्षा मंत्री जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी उन्हें सौंपी। मौलाना आज़ाद भी पंडित नेहरू के यकीन पर खरे उतरे।
कई आला संस्थान खोले
मौलाना आज़ाद ने स्वतंत्र भारत में शिक्षा का आधुनिक ढांचा खड़ा किया। राष्ट्रीय शिक्षा का मसौदा पेश करते हुए उन्होंने कहा था,‘‘शिक्षा की दुनिया में संकीर्ण एवं सीमित देश-प्रेम बेमानी है।’’ मौलाना आज़ाद के कार्यकाल में ही साल 1948 में ‘विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग’ की कायमगी हुई। वे वैज्ञानिक और तकनीकी तालीम के बड़े हामी थे।
मुल्क़ में ‘जादवपुर इंजीनियरिंग कॉलेज’, ‘खड़गपुर इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी’ जैसे महत्वपूर्ण संस्थान उन्हीं की कोशिशों का नतीजा हैं। मौलाना आज़ाद ‘जामिया मिलिया इसलामिया’ जैसी आला दर्जे की यूनिवर्सिटी के संस्थापक सदस्य रहे, तो वहीं ‘अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी’ का आधुनिक चेहरा भी उन्ही की कोशिशों से मुमकिन हुआ।
हिंदू-मुसलिम एकता के जांबाज सिपाही, वैज्ञानिक और तकनीकी शिक्षा के पैरोकार मौलाना अबुल कलाम आज़ाद 22 फरवरी, 1958 को हमसे हमेशा के लिए जुदा हो गए। पहले मुल्क़ की आज़ादी और फिर उसके बाद जदीद (नये) हिंदुस्तान की तामीर, इन दोनों ही मामलों में मौलाना आज़ाद का जो आला किरदार है, उसे कोई कैसे नजरअंदाज कर सकता है