यूपी में 2010 में खत्म हुई माओवादी हिंसा, देश से कब होगी?
माओवादियों का दंडकारण्य से नेपाल तक का लाल गलियारा उत्तर प्रदेश के सोनभद्र, मिर्जापुर और चंदौली से होकर गुजरता है। 1997 से लेकर 2007 तक यह इलाका बेहद अशांत रहा, जहां अब नक्सलवाद पर पूरी तरह काबू पाया जा चुका है। यह तीनों उत्तर प्रदेश के आदिवासी बहुल जिले हैं, जिनकी सीमाएं बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ को छूती हैं।
इन तीन पठारी जिलों के नगवा, चतरा, चोपन और कोन के जंगल छत्तीसगढ़, बिहार, मध्य प्रदेश व झारखंड के माओवादियों के बड़े केंद्र बन गए थे, जहां 1997 के आसपास माओवादी गतिविधियां और हिंसा शुरू हुई।
हत्याओं का सिलसिला
1997 में सोनभद्र के मांची थाना क्षेत्र के रामपुर गांव के रामशंकर जायसवाल की हत्या के अलावा पलपल, नेवारी, पल्हारी, कोदई गड़वान आदि इलाकों में तेंदू पत्ता के फड़ों में आग लगाए जाने की घटना, पनौरा में शौकत अली की बंदूक लूट जैसी घटनाएं हुईं, जिसमें नक्सलियों का हाथ माना गया।
1998 में सुकृत पुलिस चौकी इलाके के ग्रामीण बिहारी लाल की हत्या हुई। वहीं 2000 और 2001 में पन्नूगंज थाना क्षेत्र में माओवादियों से मुठभेड़ें हुईं। इस बीच एसओजी टीम में शामिल रहे गोरख यादव के पिता की हत्या हो गई। 2002 में पीएसी कैंप से असलहों की बड़ी लूट हुई। सोनभद्र की सबसे बड़ी घटना 26 फरवरी 2003 को हुई, जब विजयगढ़ के युवराज शरण शाह व उनके दो कर्मचारियों की हत्या कर दी गई।
2004 में 18 जवान शहीद
इसके बाद केंद्र सरकार ने सोनभद्र व चंदौली में सीआरपीएफ के जवानों की तैनाती की। 2001 में मिर्जापुर में भी माओवादियों ने पीएसी कैंप से बड़े पैमाने पर हथियारों की लूट को अंजाम दिया। चंदौली के नौगढ़ पुलिस थाने के हिनौत घाट में नवंबर 2004 में बड़ी वारदात हुई, जिसमें माओवादियों ने विस्फोट कराकर पुलिस का वाहन उड़ा दिया और पीएसी के 18 जवान शहीद हो गए।
माओवादी नेताओं की धरपकड़
उत्तर प्रदेश में 2007 में मायावती की पूर्ण बहुमत सरकार बनने के बाद कई माओवादी नेताओं की धरपकड़ हुई। सुरक्षा बलों ने कमलेश चौधरी और शत्रुघ्न कोल को मार गिराया। चंदौली के एक माओवादी जोनल कमांडर राम सजीवन कुशवाहा को गिरफ्तार कर लिया गया। इनके अलावा मुन्ना विश्वकर्मा, लालव्रत कोल, अजित जैसे माओवादियों के नाम सामने आए।
माओवादी हिंसा के दौरान वाराणसी में लंबे समय तक रिपोर्टिंग कर चुके भरत कुमार बताते हैं कि इस इलाके में माओवाद के बढ़ने की सबसे बड़ी वजह स्थानीय आदिवासी महिलाओं का यौन शोषण और कर्मचारियों व अधिकारियों का भ्रष्टाचार था।
खासकर खनिज संपदा से संपन्न इन इलाकों में माओवादियों को कोयला स्मगलिंग आदि से धन मिल जाता था। इस रैकेट में पुलिस कर्मी से लेकर अन्य विभाग के कर्मचारी शामिल रहते थे। इसकी पुष्टि तमाम पुलिस अधिकारी व सीनियर ब्यूरोक्रेट करते हैं।
माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर में महादेव पहचान वाले कृष्णमुरारी की चंदौली से गिरफ्तारी के बाद इसी तरह के शोषण की कहानी निकलकर सामने आई। आईजी एटीएस असीम अरुण के मुताबिक मिर्जापुर के मड़िहान इलाके के कृष्ण मुरारी के पिता की मौत के बाद दबंगों ने उसकी जमीन पर कब्जा कर लिया। वह आर्थिक तंगी में हिमाचल प्रदेश में काम करने लगा और वहीं उसका संपर्क झारखंड के एक माओवादी संपर्क वाले व्यक्ति से हुई और वह बदला लेने के लिए इस प्रतिबंधित संगठन में शामिल हुआ।
100 से ज़्यादा जिलों में मौजूदगी
विभिन्न सूत्रों से मीडिया की खबरों के मुताबिक देश के 100 से ऊपर जिलों में माओवादियों की मौजूदगी है। बिहार के 22 जिले, उत्तर प्रदेश के 3 जिले, झारखंड के 21 जिले, छत्तीसगढ़ के 16 जिले, मध्य प्रदेश का बालाघाट, पश्चिम बंगाल के 4 जिले, आंध्र प्रदेश के 16 जिले, महाराष्ट्र के 4 जिले और ओडिशा के 19 जिले माओवाद/नक्सलवाद से प्रभावित रहे हैं।
बीजापुर का नक्सली हमला
पिछले शनिवार को छत्तीसगढ़ के बीजापुर में माओवादियों के साथ मुठभेड़ में 22 जवान शहीद हो गए। ऐसा नहीं है कि सरकार को इस हमले की पूर्व जानकारी नहीं थी। यह पहले से ही खबर आ रही थी कि बीजापुर या सुकमा जिले में हमला हो सकता है। सारी जानकारियां पहले से होने व सभी तैयारियां होने के बावजूद अत्याधुनिक हथियारों से लैस 2,000 से ज्यादा जवानों पर करीब 400 माओवादियों ने पुवर्ती गांव के पास धावा बोल दिया, जिसमें जवानों को जान गंवानी पड़ी। यह माओवादियों के बटालियन नंबर-1 के कमांडर माड़वी हिड़मा का गांव है।
माओवादी हिंसा देश में लंबे समय से चल रही है। भले ही उत्तर प्रदेश में 2007 से 2012 में मायावती के शासनकाल में माओवाद हाशिये पर चला गया, लेकिन केंद्र व राज्य सरकारें इसके लिए कोई ठोस प्रारूप तैयार करने में सफल नहीं हो पाई हैं।
76 जवानों की हत्या
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इसे देश के लिए बड़ा खतरा बताते रहे, वहीं सेना की तैनाती और अन्य तमाम मसलों पर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार का रवैया ढुलमुल ही रहा। छत्तीसगढ़ में रमन सिंह के शासनकाल में ताड़मेटला में 2010 में 76 जवानों की हत्या कर दी गई थी और उसके बाद झीरम घाटी में 25 मई, 2013 में हुए हमले में कांग्रेस के कई शीर्ष नेताओं समेत 32 लोग मारे गए थे। उस समय कांग्रेस पार्टी राज्य की रमन सिंह सरकार पर आरोप लगाती थी कि वह ढुलमुल रवैया अपना रही है।
बीजेपी का अर्बन नक्सल का राग
वहीं, बीजेपी की अपनी समस्या और वोट बैंक का खेल है। बीजेपी अपनी सुविधा मुताबिक विश्वविद्यालयों के छात्रों से लेकर तमाम लोगों को अर्बन नक्सल कहकर प्रचारित करती है। यह उसकी दक्षिणपंथी विचारधारा में फिट बैठता है और इसके माध्यम से वह उन सभी पढ़े-लिखे लोगों पर हमला कर पाती है, जो बीजेपी की तमाम नीतियों का विरोध करते हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो नोटबंदी का भी नक्सल कनेक्शन जोड़ा और जब लोगों को नोटबंदी से समस्या होने लगी तो कहा कि नोटबंदी से नक्सलवाद खत्म हो जाएगा।
सरकार के दावे कमजोर
समाज के एक बड़े तबके की राय रही है कि माओवाद की समस्या बातचीत के माध्यम से सुलझाई जाए। सरकार भी इस तरह की कवायद करती रही है। खासकर छत्तीसगढ़ सरकार का दावा था कि वह ग्रामीण इलाकों में कैंप बनाकर वहां स्कूल व राशन की दुकान आदि की सहूलियतें मुहैया करा रही है, जिससे माओवाद कमजोर पड़ा है। हालांकि हाल के हमले ने सरकार के दावों को कमजोर कर दिया है।