आख़िरकार मुकेश सहनी को बिहार मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। यह सिर्फ़ एक मंत्री को बर्खास्त किए जाने का मामला नहीं है। ये पूरा प्रकरण, जातीय स्वाभिमान के दम पर खड़ी हुई छोटी छोटी राजनीतिक पार्टियों के सामने अपने अस्तित्व को बचाने के लिए आने वाली नयी चुनौती का संकेत है। मुकेश सहनी को मंत्रिमंडल से हटाने से पहले विकासशील इंसान पार्टी (वी आई पी ) को जिस तरह बीजेपी ने निगल लिया उसे देख कर यही लगता है कि बड़ी पार्टियाँ छोटी पार्टियों को सिर्फ़ तब तक ज़िंदा रहने देंगीं जब तक चुनाव जीतने के लिए उनकी ज़रूरत है।
वीआईपी, बिहार के मल्लाहों की पार्टी के रूप में मशहूर है। इसके संस्थापक मुकेश सहनी "सन आफ मल्लाह" के रूप में जाने जाते हैं। 2020 में बिहार विधान सभा के चुनाव में वीआईपी और बीजेपी का गठबंधन था।
वीआईपी के चार विधायक चुने गए हालाँकि मुकेश सहनी ख़ुद चुनाव हार गए। तब भी उन्हें नीतीश कुमार की सरकार में शामिल किया गया और बाद में वो बीजेपी के सहयोग से विधान परिषद के सदस्य बने। अभी हाल में उनकी पार्टी के चार में से तीन विधायकों को बीजेपी में शामिल कर लिया गया। एक विधायक की मौत हो चुकी है। यानी वीआईपी पार्टी विधान सभा में ख़त्म।
कैसे बनी जातीय आधार पर पार्टियां?
पिछले बीस पच्चीस सालों में बिहार और उत्तर प्रदेश में जाति आधारित छोटी छोटी पार्टियों की बाढ़ सी आयी हुई है। 1990 में मंडल आंदोलन के बाद पिछड़ी जातियों में एक नयी राजनीतिक चेतना का उदय हुआ। नब्बे से पहले पिछड़ी जातियाँ कांग्रेस, समाजवादी पार्टियों और सीपीआई तथा सीपीएम जैसी पार्टियों मे बंटी हुई थीं। इसी दौर में बिहार में लालू यादव और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव पिछड़ों के नेता के रूप में उभरे। दोनों राज्यों में यादव पिछड़ों में सबसे समृद्ध जाति है। इनकी आबादी भी काफ़ी बड़ी है।
1992 में बाबरी मस्जिद टूटने के बाद मुसलमान भी कांग्रेस से अलग होने लगे और लालू मुलायम के साथ जुड़ गए। दोनों राज्यों में मुस्लिम -यादव समीकरण (एमवाई ) के साथ अति पिछड़ों के जुड़ने के बाद राजनीतिक समीकरण बदलने लगे।
उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) ने भी दलितों और अति पिछड़ों में राजनीतिक महत्वकांक्षा को बढ़ावा दिया। सन 2000 के बाद अति पिछड़ों का यादव नेतृत्व से मोहभंग होने लगा। कभी लालू यादव के सहयोगी रह चुके नीतीश कुमार ने बिहार में अति पिछड़ों और अति दलितों का नया राजनीतिक समीकरण तैयार किया और यादव नेतृत्व को चुनौती दी।
उत्तर प्रदेश में यही काम मायावती के नेतृत्व में बीएसपी ने किया। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में क़ुर्मी, क़ुशवाहा, निषाद या मल्लाह, मोर्या, राजभर, सैनी और लोधी जैसी जातियों के कई पाकेट हैं। पिछले 10/12 सालों में इन जातियों के कई मजबूत नेता खड़े हो गए। चुनाव की राजनीति में इनकी भूमिका लगातार मजबूत होती गयी।
बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग
नीतीश कुमार के अति पिछड़ा और अति दलित के प्रयोग की सफलता से सबक़ लेकर बीजेपी ने एक नए सामाजिक समीकरण पर काम करना शुरू किया। बीजेपी के इस गठजोड़ में मुसलमानों की जगह सवर्ण हिंदू जातियाँ आ गयीं। लेकिन अति पिछड़ों को बीजेपी के साथ रखना आसान नहीं था। सबसे बड़ी चुनौती ये थी कि ज़मीनी स्तर पर सवर्णों और अति पिछड़ों के बीच सामाजिक संघर्ष अब भी मौजूद था। ऐसे में जाति आधारित छोटी पार्टियां महत्वपूर्ण साबित हुई।
नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने 2014 के चुनाव से ही छोटी पार्टियों को साधना शुरू किया। बीजेपी की लगातार चुनावी सफलता में अति पिछड़ों की भूमिका महत्वपूर्ण होती गयी। बिहार विधान सभा चुनाव 2020 के दौरान बीजेपी ने मुकेश सहनी को अपने साथ कर लिया।
नीतीश कुमार अपने छिटके हुए सहयोगी उपेन्द्र कुशवाहा को साथ लेने में कामयाब रहे। नीतीश फिर मुख्यमंत्री बने और मुकेश सहनी विधान सभा चुनाव हारने के बावजूद मंत्री बन गए। इसी तरह की सोशल इंजीनियरिंग उत्तर प्रदेश में 2022 के चुनाव में दिखाई दिया। यूपी में बीजेपी ने अपना दल (सोने लाल ) और निषाद पार्टी को साथ लेकर कई बड़े पिछड़े नेताओं के बग़ावत के वावजूद चुनाव में अच्छी सफलता प्राप्त की।
महत्वाकांक्षा का टकराव
मुकेश सहनी मुंबई में फ़िल्मों का सेट बनाने का काम करते थे। 2018 में उन्होंने बिहार की राजनीति में क़दम रखा। 2019 के लोकसभा चुनावों में उन्हें कोई ख़ास सफलता नहीं मिली लेकिन 2020 में बीजेपी गठबंधन के साथ आने के बाद उनके चार विधायक चुने गए। इस जीत से सहनी की महत्वकांक्षा और बढ़ी। 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा में भी उन्होंने सीटों की माँग की लेकिन बीजेपी इसके लिए तैयार नहीं हुई। यूपी में निषाद या मल्लाह को साधने के लिए बीजेपी ने निषाद पार्टी को साथ लिया जिसके 6 विधायक चुने गए हैं।
समझौता नहीं होने पर सहनी ने यूपी में अपनी पार्टी के 57 उम्मीदवार खड़े कर दिए और चुनाव सभाओं में बीजेपी की जमकर आलोचना की। सहनी को यूपी में कोई सफलता नहीं मिली लेकिन बीजेपी से टकराव शुरू हो गया।
वीआईपी विधायक मुसाफ़िर पासवान की मौत के बाद उप चुनाव में बीजेपी ने यह सीट सहनी को देने से इंकार कर दिया। यह विवाद चल ही रहा था कि बीजेपी ने एक और धमाका किया।
वीआईपी के बाक़ी के तीन विधायकों ने बीजेपी में जाने की घोषणा कर दी। दरअसल तीनों विधायक पहले बीजेपी में थे। चुनाव लड़ने के लिए वो सहनी के साथ हो गए थे और जब ज़रूरत पड़ी तो फिर घर वापसी की घोषणा कर दी। एमएलसी के तौर पर सहनी का कार्यकाल जुलाई में ख़त्म हो रहा है।
जातिगत पार्टियों का भविष्य
बीजेपी को अपने चुनाव विजय का सिलसिला जारी रखने के लिए अति पिछड़ी जातियों का समर्थन ज़रूरी है। इसलिए बीजेपी जातीय नेताओं को साथ तो ले रही है लेकिन उनके सामने दूसरे जातीय नेताओं को भी खड़ा कर रही है ताकि किसी का क़द हद से ज़्यादा नहीं बढ़े। उत्तर प्रदेश में भी ओम प्रकाश राजभर जैसे कई नेताओं के साथ यही हुआ।विधायकों का दल बदल अब आम बात है लेकिन यह पहला मौक़ा हाँ जब सत्ताधारी दल ने अपने सहयोगी को ही निगल लिया है। छोटी पार्टियों के लिए ये एक सबक़ है।