बेगूसराय में काँटे की टक्कर, वजूद बचाने की कोशिश में वामपंथ
एक जमाने में बेगूसराय बिहार के मॉस्को के नाम से मशहूर था और आज यह जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार और मोदी सरकार के मंत्री गिरिराज सिंह के बीच मुक़ाबले को लेकर सुर्खियों में है। बेगूसराय पहुँचने के बाद मेरी मुलाक़ात साहित्य प्रेमी प्रभाकर जी से होती है। वह बताते हैं कि कन्हैया कुमार अपने गाँव के अपने लोगों के पास गए और वोट माँगे। गाँव के एक बुजुर्ग ने सवाल किया कि तुम तो वही हो न! जो अपने पिता की मृत्यु के बाद माथा नहीं मुंडवाए थे इसपर कन्हैया कुमार ने जवाब दिया कि वह धर्म को नहीं मानते। इसपर उस बुजुर्ग ने कहा कि जाओ, हम भी तुमको अपना बेटा नहीं मानते। तुम्हें अपना नहीं मानते।
यह दृष्टांत यह समझने के लिए काफ़ी है कि कभी बिहार का मॉस्को माने जानेवाला बेगूसराय अब बदल गया है। वह बदल गया है ठीक वैसे, जैसे रूस का लेनिनग्राद बदल कर फिर से सेंट पीटर्सबर्ग बन गया है।
बेगूसराय अब मार्क्स और लेनिन में नहीं, महादेव और शैलपुत्री में ज़्यादा विश्वास करता है। तभी तो बीजेपी प्रत्याशी गिरिराज सिंह नामांकन से पहले महादेव और शैलपुत्री की पूजा करते हैं और 200 प्रतिशत अपनी जीत का दावा करते हैं।
वर्षों से बेगूसराय की राजनीति को भलीभाँति समझने वाले व्योमकेज जी से मेरी चाय पर चर्चा होती है। वह बताते हैं कि बेगूसराय में क़रीब 4 लाख भूमिहार मतदाता और 2 लाख मुसलिम मतदाता हैं। डेढ़ लाख यादव, 80 हजार कुर्मी, 80 हजार कोईरी और इसके बाद बनिया, केवट, मल्लाह आदि मतदाता हैं।
व्योमकेज जी के साथ प्रभाकर जी भी चाय पीते हुए बताते हैं कि आरजेडी उम्मीदवार तनवीर हसन बड़े अच्छे स्वभाव वाले और विनम्र व्यक्ति हैं। भूमिहार समाज में भी उनके अनेक मित्र और शुभ-चिंतक हैं। व्योमकेज जी भी उनके मित्र हैं। प्रभाकर जी कहते हैं, ‘अब इनलोगों के लिए दुविधा जैसी स्थिति है। मैं कहाँ जाऊँ, फैसला नहीं होता। एक तरफ़ मित्रता है और दूसरी तरफ़ जाति का बंधन।’
बेगूसराय में तनवीर हसन की छवि ऐसी है कि उनकी छवि की बदौलत आरजेडी की छवि में भी चार चाँद लग जाते हैं। लोग कहते हैं कि लालू के साथ सिर्फ़ शहाबुद्दीन ही नहीं, तनवीर हसन जैसे अमनपसंद शरीफ़ मुसलमान भी हैं।
ज़मीनी हक़ीक़त पर रोशनी डालते हुए बेगूसराय वाले संतोष जी बताते हैं कि बीजेपी प्रत्याशी गिरिराज सिंह का असली मुक़ाबला आरजेडी प्रत्याशी जनाब तनवीर हसन से ही है। उनकी छवि हर जाति और धर्म के लोगों के बीच अच्छी है। संतोष जी, गिरिराज जी के दाहिने हाथ हैं।
मैंने उन लोगों से पूछा कि बेगूसराय में वामपंथ का बड़ा जनाधार रहा है। इस पर व्योमकेज जी बताते हैं, ‘वह अब बिख़र गया है। श्रीबाबू यानी बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री, वह भी भूमिहार जाति के थे। उनके बाद महेश बाबू और रामचरित्तर बाबू के बीच जो द्वन्द की राजनीति चली, उससे भूमिहार समाज में राजनीतिक बिखराव आरंभ हो गया। श्री बाबू की विरासत को आगे बढ़ाने की क्षमता रामचरित्तर बाबू में थी। मगर महेश बाबू की राजनीति के चलते वह हाशिए पर पहुँचा दिए गए। फिर उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी। यहीं से भूमिहार जाति की राजनीति का बिखराव शुरू होकर विविध दलों में पहुँच गया।’ व्योमकेज जी बताते हैं कि महेश बाबू के चलते भूमिहार जाति का बहुत राजनीतिक नुक़सान हुआ है और उसी का नतीजा है कि बिहार की राजनीति में भूमिहार आज हाशिए पर हैं। इस बीच प्रभाकर जी बताते हैं कि संपूर्ण भूमिहार समाज बीजेपी के साथ आँख मूंद कर खड़ा हो जाता है। मगर टिकट सिर्फ़ एक को दिया जाता है। वह कहते हैं कि भूमिहारों के साथ ऐसा सलूक अब और आगे नहीं चलनेवाला है।
वामपंथी भी दक्षिणपंथियों जैसे
प्रभाकर जी आगे एक और दिलचस्प बात बताते हैं कि कन्हैया कुमार अच्छे वक्ता हैं। अच्छा बोलते हैं। लोकतंत्र में विपक्ष में ऐसे वक्ताओं की आवश्यकता है, इसलिए कम्युनिस्ट पार्टी उन्हें केरल, पश्चिम बंगाल या त्रिपुरा आदि कहीं से लड़ाती, बंगाल या त्रिपुरा आदि कहीं से लड़ाती, तो वह चुनाव जीत सकते थे और लोकतंत्र को मजबूत कर सकते थे। प्रभाकर जी आगे कहते हैं, ‘मगर, वामपंथियों ने अपने सारे आदर्श और मूल्यों को ताख पर रखकर कन्हैया को बेगूसराय से लड़वाया। इसका एक ही मतलब है कि कन्हैया भी भूमिहार है और यहाँ 4 लाख भूमिहार मतदाता हैं। तब तो वामपंथ की सोच भी तो वही हो गई, जो दक्षिणपंथियों की सोच है। दोनों तो इसी सोच से चलते हैं। सिर्फ़ झंडे अलग हैं, रंग अलग है, निशान अलग हैं, पार्टी अलग है, आत्मा और अंतरआत्मा की आवाज एक है। वह आवाज़ है - जाति सर्वोपरि है। जाति के जरिए होती है जीत। भारतीय लोकतंत्र का सबसे बड़ा सच यही है।’
दिल्ली में दूरभाष पर वरिष्ठ पत्रकार जयशंकर गुप्त जी से बात हुई, तो उन्होंने सारी बातें सुनने के बाद कहा कि अगर भूमिहार जाति का जरा-सा भी वोट इधर-उधर हुआ, तो तनवीर हसन निकल जाएँगे।
वैसे, बेगूसराय की हवा ऐसी है कि वामपंथी अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहे हैं। भूमिहार समाज भी राजनीतिक हाशिए से बाहर निकलने के लिए संघर्ष कर रहा है। नतीजा, तो नतीजे के दिन पता चलेगा। लेकिन बेगूसराय का चुनाव दिलचस्प है, इसमें कोई शक़ नहीं है। यह तो नतीजे के दिन पता चलेगा कि कौन यह गीत गाएगा, ‘जीने-मरने की हम थे वजह और हमीं बेवजह हो गए देखते-देखते। सोचता हूँ कि वे कितने मासूम थे क्या से क्या हो गए देखते-देखते।’