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क्या बिहार में सवर्णों की पार्टी बनती जा रही है बीजेपी?

क्या बिहार में सवर्णों की पार्टी बनती जा रही है बीजेपी?

बिहार में चर्चा है कि सबका साथ, सबका विकास का नारा देने वाली बीजेपी सवर्ण और बनियों की पार्टी वाली पुरानी पहचान की तरफ़ लौटने को विवश हो गयी है।

बिहार में लोकसभा चुनाव, 2019 के उम्मीदवारों की लिस्ट जारी हो गयी है। खगड़िया लोकसभा सीट को छोड़ कर शेष 39 सीटों पर उम्मीदवारों की घोषणा कर दी गयी है। दिलचस्प बात यह है कि इस सूची में बीजेपी के 17 उम्मीदवारों में से 9 सवर्ण जाति से हैं, दो बनिया हैं, जो कहने को तो पिछड़ी जाति से हैं, मगर स्वाभाविक रूप से वे सवर्णों के ही क़रीब रहते हैं। ऐसे में बिहार के सियासी गलियारों में यह सवाल उठने लगा है कि क्या राज्य में बीजेपी एक बार फिर से सवर्णों की पार्टी बनने को मजबूर हो गयी है।

पिछले कुछ चुनावों से बीजेपी ने कभी यादवों तो कभी अति पिछड़ों को जोड़ने का दाँव खेला था। 2014 के लोकसभा चुनाव में इसी क़वायद के तहत कई यादवों को टिकट दिया गया था ताकि बिहार की यह बहुसंख्यक मजबूत जाति आरजेडी का साथ छोड़कर बीजेपी के साथ आ जाये। इसी तरह 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में पार्टी ने अति पिछड़ों पर दाँव खेला। 

बीजेपी की लोकसभा उम्मीदवारों की लिस्ट में यादवों और अति पिछड़ों के बदले सवर्णों, वह भी ख़ास कर राजपूतों पर अधिक लाड़ नज़र आ रहा है।

बीजेपी की 17 उम्मीदवारों की सूची देखें तो इनमें सबसे बड़ी संख्या राजपूतों की है। पार्टी ने पाँच राजपूतों को टिकट दिया है, ये हैं पूर्वी चंपारण से राधामोहन सिंह, आरा से आरके सिंह, महाराजगंज से जनार्दन सिग्रीवाल, सारण से राजीव प्रताप रूढ़ी और औरंगाबाद से सुशील कुमार सिंह। पार्टी ने दो ब्राह्मण प्रत्याशियों को भी टिकट दिया है, ये हैं दरभंगा से गोपालजी ठाकुर और बक्सर से अश्विनी चौबे। 

भूमिहार और कायस्थ जाति के एक-एक उम्मीदवार - क्रमशः गिरिराज सिंह और रविशंकर प्रसाद हैं। इस तरह पार्टी ने 17 में से नौ सवर्णों को टिकट दिया है। दो बनिया उम्मीदवार भी हैं, ये हैं पश्चिमी चंपारण से संजय जायसवाल और शिवहर से रमा देवी, ये जाति भी बीजेपी की कोर वोटर रही है। 

इसके मायने क्या हैं

इसके मायने यह हैं कि बीजेपी इस बार बिहार में अपने कोर वोटरों को बचाने में जुटी है और किसी तरह का ख़तरा मोल लेने के लिए तैयार नहीं है। सवर्ण और बनिया ही उसके कोर वोटर हैं। हाँ, इसमें उसने एक प्रयोग यह किया है कि भूमिहार और ब्राह्मणों के बदले राजपूतों को अधिक भाव दिया है।

  • राज्य में महज पाँच फ़ीसदी आबादी वाली राजपूत जाति को पाँच सीटें दी गयी हैं। कई लोगों को यह बात जम नहीं रही है। क्योंकि तक़रीबन इतनी ही आबादी और राजनीतिक रूप से इतनी ही सक्षम भूमिहार जाति को सिर्फ़ एक सीट देकर टरका दिया गया है। 

बीजेपी के प्रति निष्ठावान रहने वाले ब्राह्मणों को भी पार्टी ने सिर्फ़ दो सीटें दी हैं। इस बारे में पूछने पर प्रभात ख़बर के बिहार संपादक अजय कुमार कहते हैं कि संभवतः इसकी वजह यह हो सकती है कि बिहार में राजपूत ऐसी जाति है जो किसी पार्टी के प्रति बहुत निष्ठावान नहीं रहती, वह हर पार्टी में अपने कैंडिडेट को मजबूत करने की कोशिश करती है, वह आरजेडी को भी वोट करती रही है, ख़ास कर रघुवंश प्रसाद सिंह और जगदानंद सिंह की वजह से। 

हाल के वर्षों में ब्राह्मणों और भूमिहारों ने बीजेपी को अपनी पार्टी के तौर पर स्वीकार कर लिया है। इसलिए बीजेपी इनके बदले राजपूतों को तरजीह दे रही है।

एक जानकार इसकी एक व्याख्या यह करते हुए भी कहते हैं कि बिहार बीजेपी में भी यूपी की तरह राजपूतों का प्रभुत्व बढ़ रहा है। बिहार में एक-दो उम्मीदवार तो योगी आदित्यनाथ के काफ़ी क़रीबी भी बताये जाते हैं।

इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि हाल के वर्षों में भूमिहार जाति जेडीयू के नज़दीक रही है, इसलिए यह मान लिया गया हो कि बीजेपी राजपूतों को प्रमोट करेगी और जेडीयू भूमिहारों को, हालाँकि ऐसा होता भी नहीं दिखता। जेडीयू ने भी सिर्फ़ दो भूमिहारों को टिकट दिया है। 

  • जेडीयू का इस बार पूरा जोर कुर्मी-कोइरी और अति पिछड़ी जातियों को साधने पर है। उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी के महागठबंधन का हिस्सा बनने के बाद जेडीयू कुशवाहा वोटों को रोकने में जुटी हुई दिखती है। इसलिए जेडीयू ने इस जाति के तीन उम्मीदवारों को टिकट दिया है। 

जेडीयू ने अति पिछड़ी जाति के छह प्रत्याशियों को मौका दिया है जबकि नीतीश की कुर्मी जाति से सिर्फ़ एक ही उम्मीदवार पार्टी की तरफ़ से उतारा गया है।

एलजेपी की छह में से पाँच सीटों के उम्मीदवारों का ही फ़ैसला हुआ है। इसमें तीन तो रामविलास पासवान के परिवार के ही सदस्य हैं। शेष दो में से एक नवादा से टिकट पाने वाले चंदन कुमार भूमिहार और वैशाली की वीणा सिंह राजपूत हैं। 

ऐसा लगता है कि एनडीए गठबंधन में सवर्णों को लुभाने का जिम्मा बीजेपी का, अति पिछड़ों को साधने का जेडीयू का है। एलजेपी दलितों को कितना साध पायेगी, इस सवाल का हल भविष्य में ही मिलेगा। मगर यह बात तो साफ़ है कि सबका साथ, सबका विकास का नारा देने वाली बीजेपी बिहार में सवर्ण और बनियों की पार्टी वाली पुरानी पहचान की तरफ़ लौटने को विवश हो गयी है। 

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