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वंचितों की चेतना का अब कौन सा पड़ाव होगा?

वंचितों की चेतना का अब कौन सा पड़ाव होगा?

सदियों से दबे वर्ग में सशक्तिकरण की झूठी चेतना पैदा करने की उत्तर प्रदेश और बिहार बड़ी प्रयोगशालाएं रही हैं। साल  2000 की ही बात है, बिहार विधानसभा चुनाव में लालू यादव यादव-बाहुल्य वाले राघोपुर क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे थे। फिर क्या हुआ?

साल 1990 के बिहार विधानसभा चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) –लिबरेशन (या स्थानीय लोगों के लिए माले) विनोद मिश्रा की सदारत में पहली बार अपने टू-लाइन सिद्धांत के तहत सशस्त्र संघर्ष-जनित भूमिगत स्थिति से बाहर निकल कर चुनावी राजनीति में पूरी तरह आ रहा था। माले ने पहली बार इंडियन पीपुल्स फ्रंट (आईपीएफ़) के बैनर तले 7 सीटें जीती थीं। अगले चुनाव में यानी सन 1995 में इस धुर वामपंथी संगठन में जोश था।

सामूहिक चेतना का विकास

मैंने पटना में मिश्र से पूछा था, “उद्देश्य क्या है एक तरफ सशस्त्र संघर्ष जारी रखने और दूसरी तरफ लोकतान्त्रिक प्रक्रिया यानी चुनाव में भाग लेने के पीछे अगर इस लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में विश्वास है तो सशस्त्र संघर्ष क्यों और अगर लोकतान्त्रिक व्यवस्था एक मुखौटा है तो चुनाव में शिरकत क्यों” दशकों तक भूमिगत रहे इस नेता का जवाब था,

“हमारा उद्देश्य है दबे, सताए, शोषित रहे वर्ग में सामूहिक चेतना पैदा करने के लिए उन्हें राज्य और पूँजी के शिकारी तंतुओं से बचाते हुए उनमें चेतना पैदा करना।”


विनोद मिश्र, संस्थापक सचिव, सीपीआई (एम-ए), लिबरेशन

मेरा अगला सवाल था, "तो फिर उत्तर भारत में ये कांसीराम, लालू यादव और मुलायम सिंह क्या कर रहे हैं” मिश्र का जवाब था, “यह उस चेतना के दूषित पक्ष (करप्ट साइड ऑफ़ कांशसनेस) के पोषक हैं जबकि हम उस चेतना के सकारात्मक-रचनात्मक पक्ष को मजबूत कर रहे हैं और साथ हीं चुनाव प्रक्रिया में आ कर इस क्षद्म प्रजातंत्र की इमारत को भीतर घुस कर  तोड़ना चाहते हैं”

कालांतर में अगर कई जातिवादी नेता 1990 में मंडल-उत्तर काल में ‘सोशल जस्टिस फोर्सेज’ के नाम पर दलित और पिछड़ी जातियों में सशक्तिकरण की ‘झूठी चेतना’ विकसित कर रहे थे तो माले उस चेतना को खूनी संघर्ष से लाल कर रहा था, हालांकि कुछ हद तक उस चेतना का विकास रचनात्मक भी होने लगा था।

वाम-पंथ और धुर-वाम तो अंतिम सांसें लेने लगा, लेकिन सशक्तिकरण की झूठी चेतना देने वाली राजनीति अगले दो दशकों तक परवान चढ़ती रही।   

सशक्तीकरण की झूठी चेतना

सदियों से दबे वर्ग में सशक्तिकरण की झूठी चेतना पैदा करने की उत्तर प्रदेश और बिहार बड़ी प्रयोगशालाएं रही हैं। साल  2000 की ही बात है, बिहार विधानसभा चुनाव में लालू यादव यादव-बाहुल्य वाले राघोपुर क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे थे। उनका हेलीकाप्टर (बकौल लालू उड़नखटोला) उतरा और उन्होंने केवल तीन वाक्य का भाषण था।

 - Satya Hindi

“का हो, अब नदी में मछरी (मछली)  मारे ल त कौनो सरकारी अमला तंग त  ना करे ला” भीड़ का जवाब आया “ना साहेब”। लालू का दूसरा सवाल था, “आ तड़कुल (ताड़ का पेड़) से ताड़ी उतारे ल त कौनों टैक्स त ना मांगे ला” भीड़ उत्साहित थी। जवाब आया “ना साहेब”।

लालू का आश्वस्त करता चुनाव-भाषण का तीसरा और अंतिम वाक्य था, “बस,मछरी खा, आ ताड़ी पी के मस्त रह।” लालू के हेलीकॉप्टर का रोटर नाचा और लालू जबरदस्त मतों से जीते।

इन तीन वाक्यों में “मोदी के भाइयों-बहनों, अनाज बांटना चाहिए कि नहीं बांटना चाहिए, हाथ उठा कर बताएं” वाला डायरेक्ट जनता से संवाद भी था और उसके विश्लेषणात्मक विवेक को सशक्तिकरण के झूठे अहसास से भ्रष्ट करने का तरीका भी। नदी में मछली मारने पर और ताड़ी उतारने पर टैक्स की व्यवस्था थी। 

भ्रष्टाचार में लालू

जब कुछ वर्षों में इस वर्ग की सामूहिक चेतना पूरी तरह दोषित हो गयी तो उसी समय लालू यादव पर चारा घोटाले का आरोप लगा। मैंने एक संपादक के रूप में 5 रिपोर्टरों की टीम राघोपुर रवाना किया। रिपोर्टरों को केवल दो ही सवाल पूछना था। पहला, “क्या लालू-शासन में नदी पर पुल बनाने की मांग पूरी हुई और दूसरा, “आपका नेता तो भ्रष्टाचार के आरोप में फंस गया है, अब आप क्या सोचते हैं”।

पहले का जवाब गोलमोल था, क्योंकि लालू के लोगों ने उन्हें समझाया था कि रोड और पुल बन जाएगा तो अफ़सर आने लगेंगे और ग़ैर-क़ानूनी अफ़ीम की खेती बंद हो जायेगी।

दूसरे प्रश्न पर उनका जवाब समाजशास्त्रियों के लिए चौंकाने वाला था। “किस जात के हैं आप रिपोर्टर साहेब जब इसके पहले सवर्ण मुख्यमंत्री बिना दो लाख रुपये आये दतुअन (दातून) नहीं करता था तब कहाँ थे अब हमारा नेता यही कर रहा है तो आप लोगों को बर्दाश्त नहीं हो रहा है”

शायद माले के नेता विनोद मिश्र सही थे। भ्रष्टाचार भी “हमारे नेता और उनके नेता” में बंट गया था। वंचित वर्ग की सामूहिक चेतना भ्रष्ट की जा चुकी थी।                          

चेतना स्थाई तौर पर भ्रष्ट नहीं रख सकते 

कांसीराम-मायावती हो या मुलायम सिंह या फिर लालू यादव, ये तीनों सशक्तिकरण की झूठी चेतना जगाने के लिए प्रतीकों का बखूबी इस्तेमाल करते रहे हैं। कांसीराम का तिलक-तराजू, लालू यादव का “भूराबाल (भूमिहार, राजपूत, बनिया और लाला याने कायस्थ) साफ़ करो” और मुलायम सिंह यादव का अपराधियों को राजनीति में लाना दलितों-पिछड़ों की चेतना को इसी तरह भ्रष्ट करने का एक यंत्र था।

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मायावती ने अपनी जीवन-शैली को अभिजात्य बना कर और मुलायम ने सैफई में संस्कृति के नाम पर मुंबई की हीरोइनों का डांस करवा कर भ्रष्ट करने की प्रक्रिया में कुछ “संवर्धन किया”। लालू ने बीवी-बच्चों को राजनीति में डाल कर और फिर पांच-सितारा जीवन शैली के लिए प्रेम गुप्ता सरीखे लोगों को शीर्ष पर ला कर समझा कि अब यह वोट बैंक स्थायी हो गया। 

लेकिन चेतना कितने दिनों तक भ्रष्ट की जा सकेगी, इसका समाजशास्त्र है। शिक्षा के विस्तार, प्रति-व्यक्ति आय वृद्धि और मीडिया की पैठ की वजह से तर्कशक्ति में इजाजा स्वतः होता है, रफ़्तार कम या ज़्यादा हो सकती है।

अगर दलितों में इन तीनों का स्तर कम रहा, लिहाज़ा मायावती से उनके मोहभंग में समय भी ज़्यादा लगेगा और वह भी भरोसे का विकल्प मिलने पर। लेकिन मुलायम और लालू ब्रांड राजनीति से वह मोह भंग होने लगा। 

लालू-पुत्र और राष्ट्रीय जनता दल के युवा नेता तेजस्वी का कोई बेहद समझदार सलाहकार है। उसे मालूम है, झूठी चेतना की राजनीति की मियाद और वह भी बिहार में जहाँ वामपंथ और धुर वामपंथ एक ज़माने में तेजी से बढे थे, सीमित होती है और इससे बाहर निकलना होगा। यही वजह है इस चुनाव में तेजस्वी ने अपने पिताश्री को ही नहीं पूरे परिवार को सीन से गायब रखा।

चेतना बदल चुकी थी। “भैंसिया” की पीठ पर बैठना या ऊँची जाति के चीफ़ सेक्रेटरी से खैनी बनाने का सार्वजानिक इसरार करना या अब निचले वर्ग को अपील नहीं करता क्योंकि नौकरी की ज़रूरत यादव को भी है और निचली जाति को भी।

आज के दौर में ऊपर के वर्ग को भी मंदिर बनना तो भाता है, लेकिन कोरोना-काल में जब नौकरी जाती है तो पलट कर नीतीश कुमार को दोषी मानने लगता है।

तेजस्वी की रणनीति

तेजस्वी की सभा में युवा थे, उनमें उत्साह था, जातिवाद के ऊपर हो कर सभी जाति के युवा इन सभाओं में नौकरी जाने के अवसाद और आगे मिलने के उत्साह के मिश्रित भाव में हाथ उठा रहे थे। सामूहिक चेतना में जाति या रॉबिनहुड इमेज के प्रति भय-जनित सम्मान-समर्पण नहीं था जो लालू काल के आपराधिक-राजनीतिक उत्पाद शहाबुद्दीन को देख कर होता था या नीतीश काल में किसी अनंत सिंह को देख कर होता था। 

जातिवाद से परे इस नयी सामूहिक चेतना का रुझान तो तेजस्वी यादव के प्रति है, लेकिन यह डर भी कि अनंत सिंह तेजस्वी की पार्टी से टिकट पाते हैं और बलात्कार में जेल काट रहा पूर्व विधायक राजबल्लभ यादव अपनी पत्नी को टिकट दिलवा देता है। 

मुलायम सिंह अमर सिंह के साथ के बाद अभिजात्य-वर्गीय शौक और अपराधियों के साथ की वजह से लोगों द्वारा नज़रों से उतारे गए, जबकि मायावती अहंकार-जनित 'क्वीन इमेज' का शिकार बनीं और लालू भ्रष्टाचार, अपराध, परिवारवाद की वजह से अपने को बदलने में अक्षम रहे।

क्या करेंगे तेजस्वी

देखना होगा कि उनका बेटा तेजस्वी आनुवांशिक गुण-दोषों को कितना ढोता है या फिर पूरी तरह नयी सामूहिक चेतना का संवाहक बन पाता है।

सामाजिक न्याय की ताक़तों को समझना होगा कि राजनीतिक पार्टियों का विकास भी जैविकीय विकास की तरह होता है।

यानी उन्हें समाज की लगातार बदलती शिक्षा, प्रति-व्यक्ति आय, बदलती तकनीकी और मीडिया-प्रसार से बनी तर्क-शक्ति के कारण अपने सन्देश का कंटेंट और सन्देश देने का मोड बदलते रहना होगा, नहीं तो सामूहिक चेतना को किसी और बड़े और ज्यादा व्यापक सांप्रदायिक-राजनीतिक प्रयासों की चौखट पर दम तोड़ना पडेगा जैसे देश में पिछले 20 वर्षों में हुआ है और भारतीय जनता पार्टी ने पैठ बनायी।

यह अलग बात है कि आक्रामक हिंदुत्व की चेतना पैदा करना वाला मोदी नेतृत्व भी अब मंद पड़ने लगा है और लोगों का मोह भंग हो रहा है।   

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