+
दस लाख नौकरियों के वादे ने बदली राजनीति, मुमकिन है?

दस लाख नौकरियों के वादे ने बदली राजनीति, मुमकिन है?

बिहार के चुनाव में 10 लाख नौकरियों का नाम क्या आया, राजनीति का रंग बदल गया। पहले तो जमकर हीला हवाली हुई, मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री दोनों ने दलील दी कि राज्य सरकार के पास इतने लोगों को वेतन देने का भी पैसा नहीं है। 

बिहार के चुनाव में 10 लाख नौकरियों का नाम क्या आया, राजनीति का रंग बदल गया। पहले तो जमकर हीला हवाली हुई, मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री दोनों ने दलील दी कि राज्य सरकार के पास इतने लोगों को वेतन देने का भी पैसा नहीं है। 

मुमकिन है

उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी ने तो साफ कहा कि इतने लोगों को वेतन देने पर 58,415.06 करोड़ रुपए का नया खर्च होगा। इसमें पुराने कर्मचारियों के तनख़्वाह और भत्ते जोड़ लें तो कुल खर्च 1,11,189 करोड़ रुपए हो जाता है। सरकार के पास यह पैसा तो है नहीं, यानी यह वादा पूरा हो ही नहीं सकता, बस हवा हवाई है।

लेकिन सिर्फ एक ही दिन बाद जब बीजेपी का संकल्प पत्र आया तो वहाँ 19 लाख रोज़गार देने का वादा था। तर्क है कि यह रोज़गार हैं, सरकारी नौकरियाँ नहीं।

क्या राज्य के मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री को एक दिन पहले तक यह ख़बर नहीं थी कि उनकी पार्टी क्या वादा करने जा रही है ख़ैर, मसला सिर्फ यह है कि इस चुनाव में रोज़गार कितना बड़ा मुद्दा बनेगा। कमाई, पढ़ाई और दवाई का जो नारा तेजश्वी यादव ने लगा दिया है, क्या वह उन्हें कुर्सी तक पहुँचा देगा

कौन जीतेगा, कौन हारेगा, इससे बड़ा सवाल है कि क्या बिहार के बाद अब देश के दूसरे हिस्सों में भी रोजगार एक चुनावी मुद्दा बनेगा और जब रोजगार की बात होगी तो पढ़ाई की बात भी होगी।

 सरकारी नौकरी

लेकिन बिहार हो, देश का कोई और हिस्सा हो या पूरे देश की बात कर लें, यह सवाल तो उठना ही है कि रोज़गार का मतलब क्या सरकारी नौकरी या प्राइवेट नौकरी ही है या जो लोग अपना रोज़गार करेंगे, उसका श्रेय भी सरकार के ही खाते में जाना है।  

 - Satya Hindi

लॉकडाउन शुरू होते ही जिस तरह लोगों के काम- धंधे ठप हुए और प्राइवेट सेक्टर में लाखों लोगों की नौकरियाँ चली गईं, उसके बाद इस साल अचानक सरकारी नौकरी की महत्ता फिर स्थापित होने लगी है। आपके आसपास ऐसे तमाम लोग मिल जाएंगे यह कहते हुए कि सरकारी नौकरी की बात ही और होती है। प्राइवेट का क्या भरोसा। 

नौकरी क्यों नहीं देती सरकार

सीएमआइई के प्रमुख महेश व्यास इस मसले पर लगातार नज़र रखते हैं। उनके लिए भी यह एक पहेली ही है कि जब सरकारी नौकरियों के लिए इतनी ललक है, और दूसरी तरफ सरकारी सेवाओं में और दफ़्तरों में लोगों की कमी लगातार दिख रही है तो फिर सरकारें आख़िर ज़्यादा लोगों को नौकरी देती क्यों नहीं हैं

एक समाज के तौर पर भी हम यह तर्क क्यों बर्दाश्त कर लेते हैं कि सरकार के पास पैसा नहीं है, इसलिए वह आवश्यक सेवाओं के लिए स्टाफ़ रखने का बुनियादी काम भी पूरा नहीं करेंगी

क्या उपाय है

अब इससे मुक़ाबला करने के दो रास्ते हैं। एक सरकार अपनी फिजूलखर्ची पर लगाम लगाए। और दूसरा, वह अपनी कमाई बढ़ाए। फिजूलखर्ची रोकने के दर्जनों उपाय अलग अलग आयोग सुझा चुके हैं लेकिन रस्म निभाने से आगे कोई ठोस काम होता दिखता नहीं है। और यह भी सही है कि एक विकासशील समाज में सरकार खर्च कम कर करके अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभा सकती।

10 लोगों को नौकरी देने के तेजस्वी यादव ने कैसे बदल दी बिहार चुनाव प्रचार की रणनीति, देखें वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष को। 

दूसरा रास्ता है कमाई बढ़ाना। यह भी कोई आसान राह नहीं है। ख़ासकर कोरोना काल में। सरकार की ज़्यादातर कमाई टैक्स से आती है, टैक्स वसूली तभी होगी जब लोगों की या व्यापार में कमाई हो रही हो। लॉकडाउन के बाद हालात कितने बिगड़ चुके थे इसका अंदाजा तो इसी से लग सकता है कि केंद्र सरकार जीएसटी में राज्यों का हिस्सा देने तक की हालत में नहीं थी। आख़िरकार उसे राज्यों को लंबे समय का कर्ज दिलवाकर ही इसका हल निकालना पड़ा।  

माँग-खपत निकली

अब कुछ अच्छी खबरें ज़रूर आ रही हैं। जितनी कंपनियों के दूसरी तिमाही के नतीजे अभी तक आ चुके हैं, उनके आधार पर कहा जा रहा है कि इकोनॉमी पटरी पर लौट रही है। ख़ास तौर पर कंपनियों की बिक्री के आँकड़े दिखा रहे हैं कि बाज़ार में माँग लौट रही है।

सिर्फ दशहरे के दिन मुंबई, गुजरात और कुछ दूसरे शहरों में कुल 200 मर्सिडीज़ कारें बिक गईं। यह पिछले दशहरे से ज़्यादा है। मारुति ने नवरात्रि में 96,700 गाड़ियाँ बेच लीं और कंपनी को उम्मीद है कि दीपावली तक उसका धंधा चमकता ही रहेगा।

 - Satya Hindi

कुल मिलाकर दूसरी तिमाही में कंपनी ने इस साल की कुल बिक्री का 41% हासिल किया है। पिछले साल यही आँकड़ा 38.6% पर था। सारी कार कंपनियों को जोड़ लें तो नवरात्रि और दशहरे में दो लाख कारें बिक चुकी हैं।

नवरात्रि शॉपिंग

नवरात्रि की ही एक और ख़बर यह है कि हमारे देश के लोग ऑनलाइन पोर्टल्स पर हर मिनट डेढ़ करोड़ रुपए के मोबाइल फ़ोन खरीद रहे थे। लॉकडाउन की वजह से बाज़ारों में हलचल भले ही कम हो लेकिन ऑनलाइन शॉपिंग करनेवालों की गिनती पिछले साल से 85% बढ़ गई है।और इन्होंने जो खरीदारी की वो भी पिछले साल से 15 प्रतिशत ऊपर ही है।

नवरात्रि में ही करीब 4 अरब डॉलर यानी करीब सवा लाख करोड़ रुपए की ऑनलाइन शॉपिंग हुई है। मॉल्स में भी लॉकडाउन के बाद पहली बार इतनी रौनक दिखी, हालांकि वहां बिक्री पिछली नवरात्रि के मुक़ाबले कम ही रही।

लेकिन व्यापारी निराश नहीं हैं, वो दुकानें सजा रहे हैं और उन्हें उम्मीद है कि दिवाली तक पिछले साल के मुकाबले कम से कम 85% कारोबार तो वापस आ ही जाएगा। 

कोर सेक्टर

उधर औद्योगिक उत्पादन के इंडेक्स यानी आईआईपी और कोर सेक्टर के आँकड़े भी उम्मीद जगा रहे हैं। मार्च में लॉकडाउन लगते ही 22% और उसके बाद अप्रैल में 66.6% तक गिरने के बाद से आईआईपी में लगातार सुधार दिख रहा है।

ऐसा नहीं कि इसमें पिछले साल के मुकाबले बढ़त आ गई लेकिन हर महीने गिरावट का आँकड़ा कम से कम होता रहा। मई में 37.9%, जून में 16%, जुलाई में 11.6% और अगस्त तक 8.6% की ही गिरावट रह गई।

आईआईपी के लिए फैक्टरियों में बननेवाले 405 उत्पादों का कारोबार देखा जाता है। अप्रैल में इनमें से 91.4% का उत्पादन पिछले साल से कम था, 70% से ज्यादा मामलों में तो यह गिरावट 50% से ज्यादा की थी। लेकिन अगस्त आते आते सिर्फ 67.6% का ही उत्पादन पिछले साल से नीचे रह गया और इनमें भी सिर्फ 10 प्रतिशत बचे, जिनका उत्पादन आधे से कम रहा। 

तिमाही रिपोर्ट

कंपनियों के तिमाही रिपोर्ट कार्ड से दिख रहा है कि ख़ाकर छोटे शहरों और गाँवों से माँग बढ़ी है। दूसरी तरफ कोरोना के बावजूद अप्रैल से अगस्त के बीच ही भारत में 35.73 अरब डॉलर का सीधा विदेशी निवेश आया है जो न सिर्फ पिछले साल से 13 परसेंट ज्यादा है, बल्कि एक नया रिकॉर्ड भी है। 

 - Satya Hindi

नौकरी मिलेगी

अब सवाल यह है कि क्या इस सबका फ़ायदा नौजवानों को, महिलाओं को नौकरी के रूप में मिलेगा अगर यह संकेत माने जाए तो जवाब हाँ में ही होना चाहिए। लेकिन अब 2 नए सवाल खड़े हो रहे हैं। एक यह कि कोरोना की विदाई कब होगी 

अमेरिका और योरप में जिस अंदाज में दूसरी और तीसरी लहर सामने आई और उन्हें और कड़े लॉकडाउन पर मजबूर होना पड़ा, कहीं वो मुसीबत हमें भी तो नहीं झेलनी पड़ेगी ऐसा हुआ तो फिर स्लेट पोंछकर सारी गणित नए सिरे से जोड़नी पड़ेगी।

सरकारी नौकरी

दूसरा सवाल यह है कि उदारीकरण के बाद जिस आर्थिक मॉडल को हम भारत में अपना चुके हैं या अपनाते जा रहे हैं, उसमें सरकारी नौकरियों की गुंजाइश बचेगी कितनी। ऐसे में नौकरी देने या रोज़गार देने की जिम्मेदारी या तो बड़ी प्राइवेट कंपनियों पर आ जाती है या फिर खुद पर यकीन करनेवाले उद्यमियों पर। हर एक पढ़ाए एक की तर्ज पर शायद नया नारा बन सकता है, जिसमें खुद का काम शुरु करके अपने साथ दो चार और लोगों के लिए भी कमाई का इंतजाम करनेवालों को प्रेरित किया जा सके।

बहुत सी बड़ी कंपनियों से ख़बर है कि कोरोना काल में जो तनख्वाह काटी गई थी, वो कटौती वापस हो गई है। कुछ कंपनियों ने तो जो पैसा काटा था वो भी लौटा दिया है। लेकिन जिन लोगों की नौकरियाँ चली गईं, उनके वापस लिए जाने की ख़बर तो अभी सुनाई नहीं पड़ी है।

राह मुश्किल

अब जो नए लोग रोज़गार के बाज़ार में उतर रहे हैं उनकी राह भी मुश्किल होती जा रही है। प्रोफेशनल नेटवर्किंग साइट लिंक्डइन ने भारत के रोज़गार के बाज़ार के आँकड़े दिए हैं। उनके हिसाब से पिछले साल के मुक़बले 12 प्रतिशत ज़्यादा नौकरियाँ तो होंगी, लेकिन नौकरी के लिए मुक़ाबला पिछले साल से 30 प्रतिशत अधिक मुश्किल हो गया है। यही नहीं बहुत से लोगों को अब ऐसा कोई नया काम ढूंढ़ना है, जिसे उन्होंने पहले कभी नहीं किया क्योंकि उन्हें किसी नई इंडस्ट्री में ही जाना पड़ेगा। 

रोज़गार अब सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती तो है ही। आनेवाले समय में यह चुनावी राजनीति का भी बड़ा सवाल बनेगा या नहीं इसका जवाब शायद बिहार के चुनाव नतीजों के बाद ही सामने आए। 

(लेखक यू ट्यूब पर अपना चैनल चलाते हैं) 

(हिंदुस्तान से साभार)

सत्य हिंदी ऐप डाउनलोड करें