भीमा कोरेगाँव : अब सत्य के लिए धर्मयुद्ध लड़ेगा दलित
अभी एक धर्मयुद्ध होना बाक़ी है। सतयुग और त्रेता युग में तो कई धर्म युद्ध हुए। पुराणों में ढेरों ज़िक्र हैं - कैसे देवता और दानवों की लड़ाई हुई, कैसे सत्य और असत्य में युद्ध हुआ, कैसे समुद्र मंथन हुआ और हर बार यह बताया गया कि देवता जीते। ये कौन देवता हैं क्यों हर बार दानव ही हारते हैं क्या देवता ही सच हैं दानव हमेशा असत्य के साथ रहते हैं यह एक विमर्श है। यह वह विमर्श है जिसे उच्च जातियों ने लिखा। जिसके लेखक हमेशा ब्राह्मण ही रहे।
दलितों ने कब लिखा वह जो हमेशा से, सदियों से, हाशिये पर था, ग़ुलामी की ज़िंदगी जी रहा था, उसने कब लिखा शायद कभी नहीं उसे तो अपनी बात कहने का हक़ नहीं था। वह सिर उठा कर नहीं चल सकता था। उसका वर्णन हमेशा दानवों में ही हुआ होगा। उसे असत्य की काल कोठरी में क़ैद कर दिया गया होगा। पर अब वह जाग गया है। वह अपने पुराण लिखना चाहता है। वह अब कलियुग में नया धर्म युद्ध लड़ेगा। वह सत्य को अपने हिसाब से परिभाषित करेगा। वह आज का दलित है। वह दलित, जो हर साल 1 जनवरी को भीमा कोरेगाँव में इतिहास से अपना हिसाब माँगने जाता है।
दलितों को नहीं रोक सकी सरकार
वह दलित पिछले साल फिर कोरेगाँव गया था। उसके ऊपर पत्थर फेंके गए थे। वह डरा नहीं। इस बार फिर वह कोरेगाँव में इकट्ठा हुआ। महाराष्ट्र सरकार जिसके मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस हैं, उन्होंने काफ़ी तैयारियाँ की पर वह दलितों को रोक नहीं पाए। यह जानते हुए भी कि पिछले साल जो हिंसा हुई, उसके गुनहगारों को अब तक सजा नहीं मिली है। जिन सँभाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे के बारे में शुरू में कहा गया था कि उनकी वजह से हिंसा हुई, उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हुई।
आज़ाद घूम रहा है भिड़े
मिलिंद तो कुछ समय के लिए सीखचों के पीछे भी रहा पर एफ़आईआर में नाम होने के बाद भी भिड़े का कोई बाल भी बाँका नहीं कर पाया। वह स्वतंत्र है। आज़ाद है। शुरू में कहा गया था कि हिंसा के लिए हिंदुत्ववादी संगठन ज़िम्मेदार हैं। साल ख़त्म होते-होते नए गुनहगार आ गए। अब हिंसा के लिए “अर्बन नक्सल” को ज़िम्मेदार बताया जा रहा है। दस लोगों को गिरफ़्तार भी किया गया है। यह संदेश दिया जा रहा है कि ये बड़े बुद्धिजीवी नक्सल समर्थक हैं और प्रधानमंत्री मोदी की हत्या की साज़िश रच रहे थे। वह भी पत्र लिख कर।
पिछले साल भीमा कोरेगाँव में हुई हिंसा के बाद से ही दलितों में इसे लेकर आक्रोश है कि पुलिस इस मामले की सही ढंग से जाँच नहीं कर रही है और हिंदुत्ववादियों को बचा रही है।
पिछले साल भीमा कोरेगाँव की लड़ाई के दो सौ साल हुए थे। बड़ी संख्या में दलित जुटे थे। दलितों का आरोप है कि इस आयोजन में विघ्न डालने के लिए भिड़े और एकबोटे इलाक़े में काफ़ी सक्रिय थे। क़रीब दो महीने से इनके संगठन के लोग स्थानीय स्तर पर लोगों का ब्रेन वाश कर रहे थे। दलित कार्यकर्ता जैसे ही वडू बुदरुक से कोरेगाँव को लिए बढ़े, उन पर छतों से पत्थर की बौछार शुरू हो गई। दलितों की तरफ़ से भी जवाब दिया गया। इस हिंसा में एक आदमी की मौत हुई और सैकड़ों लोग घायल हुए। पुलिस ने 22 एफ़आईआर दर्ज़ कीं और 114 लोगों को गिरफ़्तार किया।
यह भी आरोप लगाया गया कि पुणे के शनिवारवाडा में यलग़ार परिषद की जो कॉन्फ़्रेंस हुई थी उसमें भड़काऊ भाषण दिए गए। भाषण देने वालों में दलित नेता जिग्नेश मेवाणी और उमर ख़ालिद के नाम प्रमुखता से लिए गए। इन दोनों के खिलाफ केस भी दर्ज़ हुआ। दिलचस्प बात यह है कि यलग़ार परिषद की बैठक सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज और प्रेस काउंसिल के पूर्व चेयरमैन जस्टिस पी. बी. सावंत ने बुलाई थी। स्थानीय एनजीओ कबीर कला मंच इस आयोजन में बराबर का साझीदार था। पुलिस ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि कबीर कला मंच के सदस्यों और सुधीर धावले ने आपत्तिजनक गाने प्रस्तुत किए, राष्ट्रविरोधी भाषण दिए गए और समाज को बाँटने की कोशिश की गई। जिसकी वजह से भीमा कोरेगाँव में हिंसा हुई। जस्टिस सावंत ने इससे साफ़ इनकार किया पर पुलिस अपनी थ्योरी पर क़ायम रही। अब सारा फ़ोकस हिंदुत्ववादियों से हट कर माओवादियों पर आ गया है। दलितों को यह बात पसंद नहीं आ रही है।
भिड़े, एकबोटे पर हिंसा का आरोप
जस्टिस सावंत ने हफ़िंगटन पोस्ट को दिए एक इंटरव्यू में पुलिस की थ्योरी को ग़लत बताया। उन्होंने साफ़ कहा कि यलग़ार परिषद के लोगों का माओवादियों ये कोई लेना-देना नहीं हैं। इसलिए यह कहना कि यलग़ार परिषद को माओवादियों ने फ़ंड किया था और आयोजन के असली कर्ता-धर्ता वही थे, ग़लत है। जस्टिस सावंत का कहना है कि भिड़े और एकबोटे ने हिंसा कराई। उनके मुताबिक़, भिड़े इस इलाक़े में पिछले पचीस साल से ग़ैर ब्राह्मण लड़कों को ग़लत तरीके से इतिहास बताता है और मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैला रहा है।
जस्टिस सावंत के अनुसार, सरकार हिंदुत्ववादियों को बचा रही है। उन्होंने कहा, यह हमेशा ही ऐसे हिंदुत्ववादियों को बचाते हैं जो हिंसा करते हैं और मुझे हैरानी नहीं होगी अगर दलितों पर हिंसा करने वाले हिंदुत्ववादियों को बचाने में पुलिस भी शामिल हो। जस्टिस सावंत का कहना है कि वह यह नहीं कहते कि सरकार ने पुलिस को ऐसा करने के निर्देश दिए हैं लेकिन अगर ऐसा होता है तो उन्हें संदेह नहीं होगा क्योंकि यही मोदी और अमित शाह का इतिहास है।
यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि गुजरात में हुए 2002 के दंगों की जाँच के लिए जस्टिस कृष्णा अय्यर की अगुवाई में इंडियन पीपुल्स ट्रिब्यूनल बना था। जस्टिस सावंत इसके सदस्य थे। ट्रिब्यूनल ने मोदी और अमित शाह पर मुक़दमा चलाने की सिफ़ारिश की थी। इस रिपोर्ट के कारण ही मोदी को दूसरे देशों ने वीज़ा देना बंद कर दिया था।
भीमा कोरेगाँव में हारे थे मराठे
जस्टिस सावंत का कहना सच हो सकता है। पर इस सच से भी बड़ा सच यह है कि दलित इस बात को मानते हैं कि सरकार दलितों के पक्ष में जाँच नहीं करवा रही है, हिंसा के लिए असली ज़िम्मेदार हिंदुत्ववादियों को बचाया जा रहा है। इसका कारण वह इतिहास में देखता है। भीमा कोरेगाँव की लड़ाई वैसे तो अंग्रेज़ों और मराठों के बीच हुई थी। इसमें मराठों की हार हुई। इस हार को हिन्दुत्ववादी हिंदू राज के अंत के तौर पर देखते हैं पर दलित ब्राहमणवाद पर अपनी विजय के तौर पर।
पेशवाशाही में हुआ दलितों का उत्पीड़न
हिंदुत्ववादियों की नज़र में शिवाजी महाराज ने जिस मराठा शासन की नींव रखी थी वह भारतीय इतिहास में सही मायनों में हिंदू राज था और ब्राह्मण पेशवाओं के नेतृत्व में हिंदू राज ने मुग़ल सल्तनत की बुनियाद हिला दी थी और उस गौरव को पाया जिसका वर्णन वैदिक काल में मिलता है। लेकिन पेशवाशाही में दलितों की हालत बहुत बुरी थी। उन्हें अपनी कमर में झाड़ू बाँध कर चलना पड़ता था ताकि चलने के साथ साथ वे सड़क साफ़ करते चलें और उच्च जाति के लोग अपवित्र न हों। दलितों को गले में लोटा भी लटका कर चलना होता था। वह सड़क पर नहीं थूक सकता था। उसे लोटे में ही थूकने की इजाज़त थी। सवाल फिर से उच्च जातियों के अपवित्र होने का था।
आंबेडकर भी आए थे कोरेगाँव
भीमा कोरेगाँव में अंग्रेज़ों की सेना में बड़े पैमाने पर महार जाति के लोग थे जिन्हें दलित माना जाता था। इस वजह से 1818 की इस लड़ाई में मराठों की अंग्रेजों के हाथों हुई हार को दलित, मराठों पर अपनी जीत मानते हैं। 1927 में बाबा साहेब आंबेडकर ने भीमा कोरेगाँव की यात्रा की। तब से दलित यहाँ हर साल इकठ्ठा होते हैं और अपनी जीत का जश्न मनाते हैं । ये बात हिंदुत्ववादियों को नागवार गुज़रती है। उन्हें लगता है कि दलित उनकी हार पर नमक छिड़कते हैं। 2018 में दो सौवीं वर्षगाँठ के मौक़े पर दलित बड़ा भव्य आयोजन करना चाहते थे। हिंदुत्ववादियों को यह गंवारा न था। लिहाज़ा हिंसा की जमीन तैयार हो गई।
भीमा कोरेगाँव में हुई हिंसा पर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस सावंत का कहना है, ‘सरकार हिंदुत्ववादियों को बचा रही है और मुझे हैरानी नहीं होगी अगर दलितों पर हिंसा करने वाले हिंदुत्ववादियों को बचाने में पुलिस भी शामिल हो’।
भीमा कोरेगाँव में एक और कारण से तनाव था। शिवाजी के पुत्र संभाजी का क़त्ल कर, उनके शरीर के टुकड़े कर नदी में बहा दिए गए थे। मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने यह एलान भी किया था कि जो भी संभाजी का अंतिम संस्कार करेगा उसे भी मौत की सजा मिलेगी। गोविंद गायकवाड़ नाम के एक दलित ने बादशाह के फ़रमान के बावजूद उनके शव का अंतिम संस्कार किया। बादशाह ने उसे भी मौत की सजा दी।
गोविंद की याद में वडु बुदरुक गाँव में एक स्मारक भी बनाया गया है। मराठे इस बात को सिरे से नकारते हैं। उनका कहना है कि संभाजी का संस्कार मराठों ने ही किया था। दलितों के द्वारा संस्कार की बात कहकर उन्हें नीचा दिखाया जाता है, उनका अपमान किया जाता है। पिछले साल गोविंद गायकवाड़ के स्मारक को तहस-नहस करने की कोशिश भी की गई। इस तनाव ने भी हिंसा को भड़काने में बड़ी भूमिका निभाई।