भीकाजी कामा : महामारी को मात देकर अंग्रेज़ी शासन के ख़िलाफ़ जूझ पड़ीं
भीकाजी कामा को हम यूरोप में रहकर राष्ट्रवादी मुहिम चलाने और सभी तरह के क्रांतिकारियों को एक झंडे तले लाने वाली शख्सियत के रूप में जानते हैं, लेकिन उनके जीवन में प्लेग की महामारी ने भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
मुंबई के संपन्न पारसी परिवार में जन्मी भीकाजी पटेल जब बड़ी हुईं तो परिवार उनके क्रांतिकारी विचारों से चिंतित हो उठा। फ़ैसला हुआ कि इनकी शादी कर दी जाए। जल्द ही विवाह कर दिया गया और वे शहर के मशहूर वकील रुस्तम केआर कामा के साथ डोली में विदा हो गईं। लेकिन वैवाहिक जीवन के शरुआती कुछ साल बीतने के बाद समस्याएँ खड़ी होने लगीं। वह क्रांतिकारी राष्ट्रवादी विचारों की थीं और उनके पति ब्रिटिश शासन के पक्के समर्थक। भीकाजी को समझ आ गया कि मामला ज़्यादा चलने वाला नहीं है। हालाँकि उन्होंने इसे लेकर कोई बड़ा फ़ैसला लेने के बजाए ख़ुद को सामाजिक कार्यों में लगा दिया।
इसी बीच मुंबई में प्लेग की महामारी फैल गई। भीकाजी मुबंई के ग्रांट मेडिकल काॅलेज पहुँचीं और अपना नाम स्वयं सेवकों की सूची में दर्ज कर दिया। अगले ही दिन से उन्होंने वार्ड में ड्यूटी देने से लेकर गंदी बस्तियों के सफ़ाई अभियान में जाने का काम शुरू कर दिया। यह ऐसा काम था जो न उनके मायके वालों को पसंद आया और न ससुराल वालों को। इसका जो जोख़िम था वो अलग। नगर के लोग ही नहीं अस्पतालों में काम करने वाले स्वास्थ्यकर्मी भी बड़े पैमाने पर प्लेग का शिकार बन रहे थे। यह जोख़िम इसलिए भी बड़ा था कि शुरुआत में इस महामारी के शिकार लोगों में मृत्यु दर 82 फ़ीसदी थी, यानी औसतन सिर्फ़ सौ में 18 लोगों की ही जान बच पाती थी। बाद में जब हाॅफकिन की वैक्सीन और लस्टिग का सीरम उपलब्ध हुआ तो यह मृत्यु दर 50 फ़ीसदी तक आ गई, लेकिन ख़तरा तब भी छोटा नहीं था।
भीकाजी ने लगातार कई साल तक प्लेग के मरीज़ों की सेवा की। जब बीसवीं सदी का पहला साल शुरू हुआ तो प्लेग के संक्रमण ने उन्हें भी डस लिया। लेकिन कई दिनों के संघर्ष के बाद अंततः वह बच गईं। उन्होंने अपने आप प्लेग को मात दी या वैक्सीन, सीरम वगैरह से उनका इलाज हुआ इसका ब्योरा उपलब्ध नहीं है।
डाॅक्टरों ने जब उन्हें प्लेग से बच निकलने की ख़बर दी तभी उन्हें एक दूसरी ख़बर भी मिली। उनके पति रूस्तम कामा ने उन्हें तलाक़ दे दिया था।
प्लेग को तो उन्होंने हरा दिया था लेकिन शारीरिक रूप से वह काफ़ी कमज़ोर हो गई थीं। उनके परिवार ने तय किया कि स्वास्थ्य लाभ के लिए उन्हें ब्रिटेन भेज दिया जाए। हालाँकि एक बार जब वह यूरोप गईं तो जीवन के अंतिम वर्ष में ही लौटीं।
लंदन में उनकी मुलाक़ात दादा भाई नौरोजी से हुई और उसके बाद उन्होंने राष्ट्रवादी आंदोलन को संगठित करने का बीड़ा उठा लिया। ब्रिटिश सरकार ने जब उन पर पाबंदियाँ लगानी शुरू कीं तो वह पेरिस चली गईं और वहाँ जाकर क्रांतिकारियों को संगठित करने का काम किया।
जीवन के अंत तक वह यही कहती रहीं कि प्लेग की महामारी और उससे जुड़ी समस्याएँ भारत को अंग्रेज़ सरकार की देन हैं।