संविधान, क़ानून व उसके लिए बनी संस्थाएँ, शासकीय नैतिकता, समारोहों में लिया गया वह शपथ जिसमें संविधान में निष्ठा की कसम खाई जाती है, केवल तब तक ज़िंदा हैं जब तक सत्ता और संस्थाओं में बैठे लोग इसका सम्मान करें। संविधान-सभा की पहली बैठक 9 दिसम्बर, 1946 को हुई। इस उद्घाटन बैठक में प्रोविज़नल चेयरमैन सच्चिदानंद सिन्हा ने दुनिया के जाने-माने अमेरिकी न्यायविद जोसेफ स्टोरी को उद्धृत करते हुए कहा था, ‘संविधान की इस भव्य इमारत को ढहने में एक घंटा भी नहीं लगेगा अगर लोक-संस्थाओं से उन लोगों को बाहर कर दिया जाएगा जो सच बोलने की हिमाकत करते हैं, और चाटुकारों को पुरष्कृत किया जाएगा ताकि वे जनता से झूठ बोलकर उन्हें ठग सकें’।
नारद घोटाले में सीबीआई ने सत्ताधारी टीएमसी के चार नेताओं को गिरफ्तार किया लेकिन मुख्य अभियुक्त सहित जो अन्य आरोपी केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी में शामिल हो गए उन पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। क्योंकि उनके ख़िलाफ़ अभियोग की अनुमति या तो माँगी नहीं गयी या लोक-सभा स्पीकर ने नहीं दी, जबकि राज्यपाल ने, जिनका राज्य की मुख्यमंत्री से झगड़ा भारतीय लोकतंत्र का एक बदनुमा दाग़ बन गया है, चुनाव परिणाम आने के पांच दिनों के भीतर अनुमति दे दी।
राज्यपाल से यह अनुमति सीबीआई ने विगत जनवरी में माँगी थी। क़ानून कहता है कि अपराध होने के वक़्त अभियुक्त किस ओहदे पर था यानी उसे किसने नियुक्त किया था, इसके अनुसार अनुमति माँगी जाती है। नारद स्टिंग ऑपरेशन में ये सभी नेता-आरोपी या तो मंत्री थे या सांसद। ये सभी स्पष्ट रूप से पैसे लेते एक स्टिंग ऑपरेशन में दिखाए गए। इन आरोपियों/अभियुक्तों में जो सांसद थे उनके लिए स्पीकर/सभापति से और जो राज्य सरकार में मंत्री, उनके ख़िलाफ़ अभियोजन के लिए राज्यपाल से अनुमति लेनी होती है।
क्यों भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ स्पष्ट मामलों में भी राजनीतिक आकाओं से इज़ाज़त का क़ानून है? इसकी पृष्ठभूमि काफ़ी दिलचस्प है। संविधान के अनुच्छेद 311 में तमाम विरोधों के बावजूद सरदार पटेल ने केंद्रीय और राज्य सेवा में लगे अधिकारियों के लिए सेवा शर्तों में एक सुरक्षा कवच दिया। सभा में पटेल ने कहा, ‘इस प्रावधान से अधिकारी निडर हो कर अपनी बात राजनीतिक आकाओं से कह सकेंगें’।
1980 के मध्य में कांग्रेस सरकार ने सिंगल डायरेक्टिव के तहत सीबीआई के लिए किसी भी जॉइंट सेक्रेटरी और उसके ऊपर के अधिकारी के ख़िलाफ़ लगे भ्रष्टाचार के आरोप पर जाँच के पहले सरकार की अनुमति लेने की बाध्यता कर दी। बाद में दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट एक्ट के सेक्शन 6(1) में ‘सिंगल डायरेक्टिव’ जोड़ते हुए सीबीआई (जो इसी क़ानून के तहत अस्तित्व में आया था) इसे और पुख्ता कर दिया। उधर संशोधन के तहत धारा 19 भ्रष्टाचार निरोधक क़ानून में भी यही प्रावधान लाया गया। इसे दो-दो बार सुप्रीम कोर्ट की खंड (दिसम्बर, 1997) और संविधान पीठों ने समानता के अधिकार के ख़िलाफ़ बताते हुए निरस्त किया लेकिन 2003 में वाजपेयी सरकार ने इसे फिर से सीवीसी एक्ट में भी शामिल किया और मोदी सरकार ने न केवल इसे भ्रष्टाचार निरोधक क़ानून के प्रावधान के रूप में प्रतिष्ठापित किया बल्कि सिंगल डायरेक्टिव पूरी ताक़त से प्रयोग किया जाने लगा।
यहाँ सोचने की बात है कि राज्यपाल अभियोग चलाने की मंजूरी दे देता है लेकिन बीजेपी में शामिल लोगों के ख़िलाफ़ वही अभियोग नहीं चलाया जा सकेगा क्योंकि स्पीकर उस पर कोई फ़ैसला नहीं ले रहा है या सीबीआई ने अनुशंसा का पत्र ही नहीं भेजा है।
सीबीआई के अधिकारी, स्पीकर, राज्यपाल, मंत्री और सांसद संविधान में निष्ठा या रक्षा की शपथ लेते हैं लेकिन कौन आरोपी/अभियुक्त/अपराधी एक ग़लत क़ानून की आड़ में संसद में बैठ कर स्वयं क़ानून बनाएगा, कौन जेल जाएगा (क्योंकि पाला नहीं बदला), और किस पर सीबीआई की दयादृष्टि ‘आका’ के इशारे पर होगी, यह संविधान नहीं तय करेगा।
तमाम ऐसे लोगों को जो सरकार के ख़िलाफ़ कोरोना में सही प्रबंधन न करने का आरोप लगाते हुए आवाज़ उठा रहे हैं उन्हें देशद्रोह में गिरफ्तार किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश के एक पूर्व आईएएस अधिकारी ने जब गंगा में बहती लाशों की फोटो सोशल मीडिया पर साझा की तो पुलिस ने उन्हें देशद्रोह के आरोप में निरुद्ध किया।
जोसेफ स्टोरी की 200 साल पहले कही गयी बात सही साबित हो रही है। पार्टी में आ जाएँ तो सात खून माफ़ लेकिन सरकार के ख़िलाफ़ जाएँगे तो ‘देशद्रोह’। संदेश साफ़ है ‘पाला बदलो या सीबीआई को झेलो और जेल भोगो’। क्या इस सन्देश का तार्किक विस्तार यह नहीं हो सकता कि ‘हमारे ख़िलाफ़ होने का मतलब सीबीआई/ एन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट या इनकम टैक्स की चाबुक झेलने को तैयार रहो। क्या हम आदिम सभ्यता, जिसमें ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ हुआ करती थी, में फिर से वापस नहीं जा रहे हैं?