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क्या मंटो, फैज को पढ़ना गुनाह है?

क्या मंटो, फैज को पढ़ना गुनाह है?

भारतीय विश्वविद्यालयों में भारत-पाकिस्तान के लोकप्रिय लेखकों मंटो, फैज अहमद पर प्रतिबंध लगाने की अप्रत्यक्ष कोशिश क्या इशारा कर रही है। प्रसिद्ध लेखक-पत्रकार-चिन्तक अपूर्वानंद इसके पीछे कुछ और देख रहे हैं। आप भी जानिएः 

“क्या सरकार को मालूम है कि (एक/ किसी) पाकिस्तानी लेखक की एक/ कोई किताब अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी या जामिया मिल्लिया इस्लामिया और देश के दूसरे शिक्षा संस्थानों में पढ़ाई जा रही है,जिसकी भाषा भारतीय नागरिकों के प्रति अपमानजनक है और जो आतंकवाद का समर्थन करती है ? अगर हाँ, तो उसके ब्योरे क्या हैं और क्या सरकार को उक्त पाकिस्तानी लेखक की किताब की जांच करनी चाहिए और क्या इसके लिए ज़िम्मेवार लोगों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करनी चाहिए?” 

यह प्रश्न किसी सांसद ने किया है जिसका जवाब दिया जाना अनिवार्य है। मामला चूँकि सिर्फ़ अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिल्लिया इस्लामिया से नहीं जुड़ा है, सरकार ने यह सवाल विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को भेज दिया।आयोग ने इसे सारे विश्वविद्यालयों को भेजा। फिर यह सवाल हर विभाग को भेजा गया।

इसके पहले कि हम इस सवाल पर और इस खोज अभियान पर बात करें, यह पूछना ज़रूरी है कि यह सवाल क्या स्कूलों की किताब बनाने वाली संस्थाओं को भी भेजा गया या नहीं।आख़िर यह ख़तरा तो वहाँ भी है कि साहित्य या विज्ञान या समाज विज्ञान में कोई पाठ ऐसा हो जो किसी पाकिस्तानी का लिखा हो? 

अब सवाल पर लौट आएँ।सवाल करने वाले को नहीं मालूम वह पाकिस्तानी लेखक कौन है या वह किताब या पाठ कौन सा है जिसमें भारतीयों के बारे में अपमानजनक रवैया है या आतंकवाद का प्रचार है।सरकार से यह पता करने को कहा जा रहा है कि वह पाकिस्तानी लेखक कौन है।यह भी कि कहीं भारत विरोध पढ़ाया तो नहीं जा रहा? 

हम अब इस हाल में पहुँच गए हैं कि इतना बेतुका सवाल और वह भी किसी सांसद की तरफ़ से किया जा सकता है। क्या यह सवाल सिर्फ़ केंद्रीय विश्वविद्यालयों से किया जा रहा है या राज्यों के विश्वविद्यालयों को भी खोजना होगा कि उनके किस विभाग में किस पाकिस्तानी लेखक के पाठ को पढ़ाया जा रहा है जो भारत के नागरिकों के लिए अपमानजनक है और आतंकवाद को बढ़ावा देता है?  

जो हो, इस सवाल के पीछे की ज़ेहनियत साफ़ है।वहअलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिल्लिया इस्लामिया के नामों के उल्लेख से ही साफ़है। भारत के अपमान और आतंकवाद की आशंका केसाथ ख़ासकर इन दो नामों का ज़िक्र मानीख़ेज है।पिछले कुछ सालों से बार बार इनका नाम लेकर बताने की कोशिश की जाती रही है कि यहाँ भारतविरोधी और आतंकवादी विचार पलते हैं। पाकिस्तान का उल्लेख साथ आ जाए तो यह आरोप और मजबूत हो जाता है।

इस प्रश्न से क्या क्या हो सकता है? इसके अंत में एक धमकी है।सिर्फ़ यह नहीं जानना है कि कहाँ,कि सपाकिस्तानी लेखक को पढ़ाया है, पूछा जा रहा है कि जो भी इसके लिए ज़िम्मेवार है,उस पर कोई कार्रवाई होगी या नहीं।इसमें एक सुझाव या उकसावा है। जैसे दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में हम फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को पढ़ाते हैं। फ़ैज़ की एक मशहूर नज़्म का विरोध पिछले दिनों यह कहकर किया गया है कि उसमें बुतों के उठवाने, गिरवाने की बात कही जा रही है जो हिंदू विरोधी है।‘बस नाम रहेगा अल्ला का’, इसे इस्लाम का प्रचार कहा जा रहा है। तो क्या फ़ैज़ पाकिस्तानी और भारतीय विरोधी हैं? या क्या मंटो की कहानियों को भी भारत विरोधी नहीं ठहराया जा सकता? आख़िर इन दोनों ने भारत की  जगह पाकिस्तान को चुना तो ये पहले ही भारत विरोधी हो गए।फिर इन्हें क्यों पढ़ना-पढ़ाना?

जाल बहुत बड़ा फेंका जा रहा है ताकि कहीं कोई मछली फँस जाए।बाक़ी काम व्याख्या का है। पूछा जाएगा कि क्या पाकिस्तानी ही मिला था पढ़ाने को! क्या भारतीय लेखक नहीं हैं जिन्हें पढ़ाया जा सके?


इस तरह के सवाल आने से विभाग पहले के मुकाबले और सचेत हो जाएँगे। सेंसरशिप बिना कहे कीजाएगी। न सिर्फ़ पाकिस्तानी लेखक बल्कि पाकिस्तान का आलोचना के अलावा कोई भी उल्लेख अपने आप अवैध मान लिया जाएगा। कहा जाएगा कि पढ़ाने को इतना कुछ है, पाकिस्तानी लेखक को लेकर बेकार की झंझट में क्यों पड़ना! 

हमें इस सवाल के पीछे की संकीर्ण मानसिकता के ख़िलाफ़ बात करनी होगी। ज्ञान और संस्कृति के क्षेत्र में कोई बाहर नहीं किया जा सकता। छात्रों को अब कुछ जानने का अधिकार है। विश्वविद्यालय अगर निर्भय और उदार विचार विमर्श के लिए सुरक्षित जगह नहीं तो उनका होना व्यर्थ है।

आज के सत्ताधारी दल के लिए पाकिस्तान उपयोगी है घृणा फैलाने के एक उपकरण के तौर पर।पाकिस्तान और मुसलमान इस राजनीति के लिए समानार्थी हैं।यह हिंदुओं में अपने समर्थकों को समझाना चाहती है कि भारत में पाकिस्तान के समर्थक मौजूद हैं। पाकिस्तानी शायरों के मुरीद  हों या पाकिस्तानी अभिनेताओं के चाहने वाले,या उनके खिलाड़ियों के प्रशंसक, भारत में सब देशद्रोही माने जाएँ, यह इस राजनीति की मंशा है। यह बतला कर कि ऐसे लोग भारत में प्रायः विश्वविद्यालयों में पाए जाते हैं, उनके ख़िलाफ़ भी घृणा और हिंसा फैलाई जाती है।

सरकार कह सकती है कि यह एक सांसद की जिज्ञासा है, इसमें उसकी कोई भूमिका नहीं।यह बात ग़लत नहीं लेकिन यह सरकार जिस राजनीतिक विचार का प्रचार कर रही है, यह सवाल उसी विचार से निकला है। 

इसका प्रश्न का एक शब्द में उत्तर हो सकता है, नहीं। लेकिन हमें संसद को कहना होगा कि सवाल ग़लत है। सिर्फ़ ग़लत नहीं, ग़लत मंशा से पूछा गया है। विश्वविद्यालय मात्र उदारता की शिक्षा नहीं देते,वे अनुदारता, असहिष्णुता , चतुराई, घृणा और हिंसा के  ख़िलाफ़ खड़े होने के लिए भी हमें तैयार करते हैं जहां नफ़रत के लिये कोई जगह नहीं, फिर चाहे वो धर्म हो या देश या इंसान !

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