बांग्लादेश की ‘आग’ में जलें या सबक़ लें, मर्ज़ी आपकी, भारत भी है आपका!
“बांग्लादेश में हिंदू सुरक्षित हैं। अगर भारतीयों को शेख़ हसीना से इतना ही प्यार है तो उन्हें मोदी को हटाकर शेख़ हसीना को अपना प्रधानमंत्री बना लेना चाहिए। रिपब्लिक टीवी बांग्लादेश की के राजनीतिक घटनाक्रम का इस्तेमाल भारत में सांप्रदायिक घृणा फैलाने के लिए कर रहा है,” - बांग्लादेश के जातीय हिंदू महाजोट के महासचिव एडवोकेट गोबिंद चंद्र प्रामाणिक का ये बयान 6 अगस्त को दोपहर बाद एक्स समेत तमाम सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्म पर वायरल था। यह बताता है कि भारतीय न्यूज़ चैनलों में बांग्लादेश में तख़्तापलट और प्रधानमंत्री शेख़ हसीना के बांग्लादेश छोड़ने के बाद किस तरह की रिपोर्टिंग की और उसका क्या प्रभाव वहाँ के अल्पसंख्यकों पर पड़ा है।
ऐसा नहीं है कि बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों, ख़ासतौर पर हिंदू समुदाय के आवास और मंदिरों पर हमले नहीं हुए, लेकिन कट्टरपंथियों के इन प्रयासों का विरोध करने वाले भी वहीं के लोग थे। मंदिरों को घेर कर बैठे बांग्लादेश के मुस्लिम छात्रों और बुज़ुर्गों की तस्वीरें भी सोशल मीडिया पर वायरल थीं, लेकिन अर्णव गोस्वामी के रिपब्लिक टीवी जैसे चैनलों के लिए पूरा घटनाक्रम महज़ कुछ तस्वीरों तक सीमित था जो अल्पसंख्यकों के उत्पीडन से जुड़ी थीं।
उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं रहा कि शेख़ हसीना के बांग्लादेश छोड़ने से पहले और बाद में हुई घटनाओं में जिन लगभग चार सौ लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी, उनमें अधिकतर मुस्लिम थे। शेख़ हसीना विरोधियों पर आंदोलन के दौरान जो क़हर टूट रहा था उसका रुख़ तख़्तापलट के बाद उनकी पार्टी अवामी लीग के समर्थकों की ओर हो गया। बांग्लादेश के हिंदू ‘अवामी लीग’ के समर्थक बतौर देखे जाते हैं तो निशाना वे भी बने।
Yes, #Bangladesh must protect its minorities, and I am so proud of my young friends on the ground for safeguarding temples and places of worship belong to our minority communities. Still some miscreants are trying to settle scores taking advantage of the vacuum created by the… https://t.co/AMTgvu0qPo
— Sultan Mohammed Zakaria (@smzakaria) August 7, 2024
लेकिन भारतीय न्यूज़ चैनलों के लिए मुद्दा केवल वहाँ के हिंदू थे। इसे मोदी सरकार की उसी बांग्लादेश नीति का विस्तार समझा जाना चाहिए जिसके तहत असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा सरमा बांग्लादेशी ‘घुसपैठियों’ का मुद्दा उठाकर रात-दिन सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रयास करते हैं या फिर प.बंगाल के बीजेपी नेता करोड़ों बांग्लादेशी हिंदुओं के भारत में स्वागत की हाँक लगाते हैं। पड़ोसियों से रिश्तों की यही समझ आज भारत को अलग-अलग कर रही है। पाकिस्तान और चीन ही नहीं, नेपाल, श्रीलंका, म्यांमार जैसे पड़ोसी भी भारत से दूर जा चुके हैं।
बांग्लादेश में शेख़ हसीना के जाने के बाद बनने वाली सरकार भारत विरोधी होगी, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है। भारत के अधिकतर पड़ोसी देशों भारत विरोधी भावनाओं ने राजनीतिक ताक़त हासिल कर ली है जो एक बड़ी कूटनीतिक असफलता है। शेख़ हसीना पर अपना पूरा दाँव लगाना भी भारत सरकार को भारी पड़ रहा है। वहाँ के दूसरे विपक्षी दलों के साथ रिश्ते न रखने का ही नतीजा है कि बांग्लादेश में शेख़ हसीना को पूरी तरह भारत की कठपुतली समझा जा रहा है। इसने हसीना विरोधी भावनाओं को भारत विरोधी भावनाओं में बदलने का मौक़ा दिया है।
Hindus Are Safe in Bangladesh.#Bangladesh: Students were seen protecting Temples and minorities from attacks in Bangladesh.
— ROHIT SHARMA (@IamRohitsha45) August 7, 2024
The footage is from Dhakeshwari Mandir in #Dhaka taken around 3 am.#AllEyesOnBangladeshiHindus लिटन दास #SheikhMujiburRahman pic.twitter.com/joPUmC7VQ0
मोदी सरकार ने बांग्लादेश के हिंदू अल्पसंख्यों के उत्पीड़न पर चिंता ज़ाहिर की है लेकिन परेशानी ये है कि भारत में अल्पसंख्यकों पर हमले की बढ़ती घटनाओं को उसने हमेशा ‘आंतरिक मामला’ बताकर अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकर संस्थाओं और अन्य देशों को चुप कराया है। यहाँ तक कि जून में जब धार्मिक स्वतंत्रता रिपोर्ट जारी करते हुए अमेरिकी विदेशमंत्री एंटली ब्लिंकन ने मोदी सरकार और बीजेपी पर मुस्लिम और ईसाई अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव करने का आरोप लगाया था तो भारत सरकार की ओर से इसे पक्षपातपूर्ण बताते हुए तुरंत ख़ारिज कर दिया गया था। इस मसले पर दस्तावेज़ी रिपोर्ट जारी करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को भारत विरोधी टूल-किट का हिस्सा बताना तो अब रिवाज हो चला है।
आज से कई साल पहले विपक्ष के नेता राहुल गाँधी ने लोकसभा में भारत की इस कूटनीतिक असफलता की ओर ध्यान दिलाते हुए कहा था कि पाकिस्तान और चीन का एक साथ आना भारत के लिए बड़ा ख़तरा है। उन्होंने सरकार को सलाह दी थी कि कांग्रेस पार्टी के अनुभवी नेताओं से उसे मदद लेनी चाहिए जिन्होंने लंबे समय तक भारतीय विदेश नीति में संतुलन बना कर रखा था। लेकिन राहुल गाँधी को तवज्जो न देने की नीति पर चल रही मोदी सरकार ने इस सुझाव को मज़ाक़ में उड़ा दिया था। संतोष की बात ये है कि बांग्लादेश के घटनाक्रम के बाद सरकार ने सर्वदलीय बैठक बुलायी। ये अलग बात है कि इस बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शामिल नहीं हुए लेकिन राहुल गाँधी ने तमाम विपक्षी नेताओं के साथ इस बैठक में शिरकत की और सरकार को इस मामले में पूरा समर्थन देने का वादा भी किया। यह विदेश नीति के प्रश्न पर पक्ष-विपक्ष के एकमत रहने की परंपरा के अनुरूप था।
यह देखना वाक़ई तकलीफ़देह है कि उपद्रवियों ने बंगबंधु मुजीबुर्रहमान की मूर्तियों को तोड़ा क्योंकि यह ‘आइडिया ऑफ़ बांग्लादेश’ पर सवाल उठाने जैसा है। मुमकिन हो यह उनकी बेटी शेख़ हसीना के तानाशाही रवैये से उपजा हुआ क्रोध हो जो लगभग पंद्रह साल से शासन कर रही थीं। उन्होंने लगातार चुनाव जीते और विकास के पैमाने पर बांग्लादेश को काफ़ी आगे ले गयीं लेकिन यह भूल गयीं कि तरक़्क़ी तानाशाही का लाइसेंस नहीं है। उन्होंने विपक्षी नेताओं को जेल में डाला और विरोध में उठी आवाज़ों को देशद्रोही बताकर ख़ासतौर पर बेरोज़गारी का दंश झेल रहे नौजवाना का ग़ुस्सा उस स्तर तक पहुँचा दिया कि उन्हें देश छोड़ना पड़ा। इस ग़ुस्से की लहर पर वे भी सवार हो गये जो बांग्लादेश को कट्टरपंथी रास्ते पर ले जाने के लिए दशकों से छटपटा रहे है। शेख़ हसीना के घर से बाल्टी-मग्गा और कुर्सी लेकर भागने वाले या हिंदू मंदिरों पर हमला करने वाले उन बाग़ी छात्रों की भावना से बिल्कुल उलट हैं जिन्होंने ढाका की सड़कों को इनक़लाबी नारों से पाट दिया है या जिनके गीतों में ‘प्रिय मातृभूमि’ के लिए बलिदान हो जाने की प्रेरणा गूँज रही है।
बहरहाल, बांग्लादेश का घटनाक्रम इतिहास का ऐसा पाठ है जिससे भारत की मोदी सरकार ने सबक़ नहीं लिया तो नतीजा पूरे देश को भुगतना पड़ेगा। मोदी सरकार भी विपक्षी नेताओं को जेल में डालने और विरोध की आवाज़ों को ‘देशद्रोही’ क़रार देने की परंपरा सिद्ध कर चुकी है। विकास के उसके तमाम दावों को भीषण बेरोज़गारी के आँकड़ों ने धूमिल कर दिया है। भारत की कहानी रोज़गार-विहीन विकास और कॉरपोरेट मुनाफ़े के दुश्चक्र में उलझ गयी है। बढ़ती ग़ैर-बराबरी की रिपोर्ट ने दुनिया को चौंकाया है जो बताती है कि एक फ़ीसदी धनपतियों ने भारत की चालीस फ़ीसदी संपदा पर क़ब्ज़ा कर लिया है। ग़रीबों को लाभार्थी बनाने की योजना नाकाफ़ी साबित हुई है और लोकसभा चुनाव में बीजेपी को बहुमत से दूर रखकर लोगों ने मन में पल रहे ग़ुस्से का इशारा दे दिया है।
बांग्लादेश के घटनाक्रम ने मोदी सरकार को एक मौक़ा ज़रूर दिया है कि वह भारत की सड़कों पर बढ़ रहे तापमान को ठंडा करने का कोई कारगर उपाय सोचे। यह संभव नहीं है कि शेख़ मुजीबुर्रहमान की मूर्ति ढहाने वालों को लानत भेजी जाये लेकिन भारत में महात्मा गाँधी की प्रतिमा तोड़ना वालों या उनकी तस्वीर पर गोली चलाने वालों को धर्मध्वाजाधारी समझा जाये। आरएसएस की शाखाओं में सरकारी अफ़सरों-कर्मचारियों को जाने की छूट देकर बांग्लादेश को जमात-ए-इस्लामी के हाथों में फँसने की चिंता बेमानी ही समझी जाएगी। भारत को कट्टरता की राह पर ले जाना बांग्लादेश को कट्टरपंथ की राह पर ले जाने की कोशिश करने वालों को बल देना है। भारतीय उपमहाद्वीप के दुर्भाग्यपूर्ण बँटवारे से उपजे देशों की क़िस्मत की डोर कुछ इसी अंदाज़ में आपस में गुँथी हुई है।
काफ़ी पहले हेलमेट को ज़रूरी बताने वाले एक सरकारी विज्ञापन में कहा जाता था- ‘मर्ज़ी आपकी, सर भी है आपका!’ बांग्लादेश के घटनाक्रमों को देखते हुए हम क्या सबक़ लेते हैं, यह हम पर है। वहाँ की आग से भारत को जलाना है या फिर सबक़ लेकर लोकतंत्र की कसौटियों पर खरा उतरना है, यह फ़ैसला भारत की सरकार को ही नहीं, जनता को भी करना है।
(लेखक कांग्रेस से जुड़े हुए हैं)