लोहिया, जेपी और नरेंद्र देव को कभी याद करते हैं कांग्रेसी?
क्या कभी किसी सोशलिस्ट नेता विचारक स्वतंत्रता सेनानी को आज तक कांग्रेस ने ससम्मान याद किया है? किसी की भी तस्वीर मात्र भी कांग्रेस कार्यालयों में है? स्कूलों के पाठ्यक्रमों में उनके त्याग बलिदान का ज़िक्र आने दिया है? मरणोपरांत भी किसी को सम्मानित किया है? यही हाल मुख्यधारा की दूसरी पार्टी भाजपा का है।
मैं कुछ ही नाम गिनाता हूँ- आचार्य नरेंद्र देव, यूसुफ मेहर अली, डॉ. राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, ऊषा मेहता, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, अच्युत पटवर्धन, मीनू मसानी, मधु लिमये, कर्पूरी ठाकुर, चंद्रशेखर, मामा बालेश्वर दयाल, अब्दुल बारी सिद्दीकी, राजनारायण, मधु दंडवते, हरि विष्णु कामथ, नाथ पै, एस एम जोशी, नारायण गोरे, कैप्टन अब्बास अली, रामसेवक यादव, सूरज नारायण सिंह, बदरीविशाल पित्ती आदि आदि!
और बड़ी संख्या में कई सोशलिस्ट कार्यकर्ता और स्वयंभू चिंतक इस बुढ़ापे में भी अब न जाने क्या हसीन सपने पाल कर कांग्रेस के अंधसमर्थन में बिछे जा रहे हैं। दो कौड़ी में कांग्रेस पूछती नहीं है फिर भी मैं नहीं समझ पा रहा हूँ कि अपने वैचारिक मुद्दों पर अड़ कर, मनवा कर समर्थन या दूरी क्यों नहीं तय कर सकते? विचार आधारित राजनीति क्यों नहीं हो पा रही है? क्या बचा है जो खो जायेगा इनका? उन एकाध अपवादों को छोड़ दीजिये जो नौकरी करने लगे हैं या किसी पद के लिये आज भी लालायित हैं।
बुनियादी समाजवादी मूल्य जिन पर पूरा जीवन काम किये हैं, खपाये हैं; उसके लिये वचनबद्ध होकर क्यों संगठित लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती सरकारों के खिलाफ। जीवन के संध्याकाल में तो वैसे भी आ चुके हैं तो इस संघर्ष में भी अधिकतम क्या होगा- जेल या मौत! सत्ताओं के खिलाफ एक बहादुर सोशलिस्ट की भाँति अंत हो! कायर मरघिल्ले याचक की तरह नहीं!
(रमाशंकर सिंह के इस तर्क का अनिल सिन्हा ने एक लेख में जवाब दिया है। इस लिंक पर उनके जवाब को पढ़ा जा सकता है।)