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बाबरी मसजिद केस: फ़ैसला वही आया, जैसी कि उम्मीद थी!

बाबरी मसजिद केस: फ़ैसला वही आया, जैसी कि उम्मीद थी!

बाबरी मसजिद मामले में सीबीआई ने जो वीडियो आदि सबूत दिखाए, वे जज को विश्वसनीय नहीं लगे। क्या दुनिया में जितने भी अपराध होते हैं, उनका फ़ैसला वीडियो के आधार पर होता है?

बाबरी मसजिद विध्वंस मामले में दो ही तरह के फ़ैसलों की उम्मीद (आशंका भी कह सकते हैं) थी।

1. बाबरी मसजिद विध्वंस किसी साज़िश या उकसावे का नतीजा नहीं था, इसलिए इन सभी अभियुक्तों को बरी किया जाता है।

2. बाबरी मसजिद विध्वंस साज़िश और उकसावे का नतीजा था लेकिन अभियुक्त उस साज़िश या उकसावे के दोषी नहीं थे। असली षड्यंत्रकर्ता कोई और थे।

इससे इतर किसी तीसरे या चौथे फ़ैसले की उम्मीद बेमानी थी। बेमानी इसलिए कि जब जाँच की महज़ ख़ानापूर्ति की जाये, सबूत जानबूझकर न जुटाये जायें और वादी अपने मामले को साबित करने की कोशिश भी न करे, तो निर्णय तो यही आना था। 

इससे पहले समझौता ट्रेन ब्लास्ट और भगवा आतंकवाद के कई मामलों में हम इसी तरह का पैटर्न देख चुके हैं। सीबीआई पुलिस अभियुक्तों के ख़िलाफ़ या तो साक्ष्य जुटाती नहीं है, जुटाती है तो दिखाती नहीं है और दिखाती है तो इस तरह कि उन्हें प्रतिवादी पक्ष के वकील कमज़ोर और झूठा साबित कर सकें। 

बाबरी मसजिद मामले में भी यही हुआ। सीबीआई ने प्रमाण के तौर पर कुछ वीडियो, ऑडियो और तसवीरें दिखाईं लेकिन जज साहब को वे ऑथेंटिक (विश्वसनीय) नहीं लगे। उन्हें विध्वंस के दौरान के वीडियो, ऑडियो और तसवीरें और तसवीरों के नेगेटिव चाहिए थे जो सीबीआई, आप समझ ही सकते हैं क्यों, उपलब्ध नहीं करा सकी।

कहा जाता है कि जब विध्वंस शुरू हुआ तो वहाँ मौजूद पत्रकारों को भगा दिया गया, महिला-पुरुष सभी के साथ बदसलूकी की गई, उन्हें मारा-पीटा गया, उनके कैमरे तोड़ दिए गए और ऐसी सारी रिकॉर्डिंग नष्ट कर दी गईं जिनसे इन नेताओं की मिलीभगत साबित हो सकती थी।

इसलिए, विध्वंस के दौरान किसने क्या किया, क्या कहा, इसका रिकॉर्ड बहुत कम है। लेकिन जब स्थिति ऐसी थी और जज साहब को इसके बारे में बताया गया था तो उनको उन निष्पक्ष गवाहों के बयानों पर भरोसा करना चाहिए था जिन्होंने बताया कि विध्वंस के दौरान वहाँ क्या-क्या हुआ। क्या दुनिया में जितने भी अपराध होते हैं, उनका फ़ैसला वीडियो और ऑडियो रिकॉर्डिंग के आधार पर होता है

देखिए, अदालत के फ़ैसले पर चर्चा- 

सब कुछ अचानक हुआ

जज साहब कहते हैं कि जो किया, अराजक तत्वों ने किया जिनपर इन नेताओं का कोई कंट्रोल नहीं था। वे यह भी कहते हैं कि जो हुआ, अचानक हुआ। जज साहब ने शायद इस पर ध्यान नहीं दिया कि क्या पुलिस ने जो कार्रवाई नहीं की, वह भी अचानक नहीं की (या किसी के कहने पर नहीं की) पत्रकारों को जो पीटा गया, वह भी अचानक पीटा गया फावड़े, कुदालें भी वहाँ अचानक आए माइक से जो नारे लगे- ‘एक धक्का और दो, बाबरी मसजिद तोड़ दो’, वे भी अचानक लगे

दरअसल, अचानक कुछ भी नहीं हुआ था और इस जजमेंट को भी अचानक आया फ़ैसला नहीं माना जा सकता है। पिछले साल के अयोध्या फ़ैसले के बाद आये इस जजमेंट से एक तरह से हिंदू ब्रिगेड की जीत न केवल पूरी हो गयी, बल्कि उस पर वैधानिक मुहर भी लग गयी।

अगर आज के अपने फ़ैसले में अदालत यह कह देती कि बाबरी मसजिद विध्वंस में, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने एक आपराधिक घटना कहा था, बीजेपी-वीएचपी और आरएसएस के नेताओं की अहम भूमिका थी और उन्हें इसके लिए सज़ा होती तो यह खाने में कंकड़ आने जैसा हो जाता।

किसी को नहीं हुई सजा

कितने अफ़सोस की बात है। प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस के ख़िलाफ़ दो ट्वीट किए तो सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें अदालत की अवमानना का दोषी ठहरा दिया और सज़ा सुनाई जबकि प्रशांत भूषण के ट्वीट से देश में एक चींटी भी नहीं मरी। लेकिन 1992 में जब संघ परिवार और तत्कालीन यूपी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को दिया गया अपना वादा तोड़ दिया और बाबरी मसजिद को टूटने दिया, जिसके परिणामस्वरूप कितनों की जानें गईं मगर इस वादाख़िलाफ़ी के लिए सुप्रीम कोर्ट ने आज तक किसी नेता को एक दिन की सज़ा भी नहीं दी है। 

जब सुप्रीम कोर्ट ऐसे नेताओं के प्रति इतनी नरमी दिखा सकता है तो स्पेशल कोर्ट से हम कैसे उम्मीद करें कि वह कुछ और फ़ैसला देगा। यह भी संयोग है कि फ़ैसला सुना कर जज साहब आज रिटायर हो रहे हैं!

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