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जाति के विनाश के बाद ही मिलेगी सामाजिक आज़ादी

जाति के विनाश के बाद ही मिलेगी सामाजिक आज़ादी

डॉ. आंबेडकर भारतीय संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष थे और संविधान के हर शब्द पर उनकी सोच का असर है।

अप्रैल का महीना डॉ बी. आर. आंबेडकर के जन्म का महीना है, 14 अप्रैल 1891 के दिन उनका जन्म हुआ था। इस अवसर  पर उनकी राजनीति की बुनियादी समझ को एक बाद फिर से  समझने की ज़रूरत है। 'जाति की संस्था का विनाश' उनकी सोच और दर्शन का बुनियादी आधार है। डॉ आंबेडकर भारतीय संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष थे और संविधान के हर शब्द पर उनकी सोच का असर है।

भारतीय संविधान सामाजिक बराबरी का लक्ष्य हासिल करने का एक महत्वपूर्ण दस्तवेज़ है और उस पर डॉ आंबेडकर की दार्शनिक सोच का साफ़ असर दिखता है। 

अजीब विडम्बना है कि भारत में लोकसभा के लिए आम चुनाव अक्सर अप्रैल के महीने में ही पड़ते हैं और इस महीने में आंबेडकर की राजनीतिक विचारधारा की धज्जियां उड़ाई जाती हैं।

उन्होंने जाति के विनाश की बात की थी, लेकिन चुनावों के दौरान सारी जोड़-गाँठ जाति के इर्द गिर्द ही मंडराती रहती  है। जातियों के आधार पर ही वोटों की बात की जाती है। महात्मा गांधी के समकालीन रहे डॉ आंबेडकर  ने अपने दर्शन की बुनियादी सोच का आधार जाति प्रथा के विनाश को माना था। उनको विश्वास था कि जब तक जाति का विनाश नहीं होगा, तब तक न तो राजनीतिक सुधार लाया जा सकता है और न ही आर्थिक सुधार लाया जा सकता है।

राजनीतिक सोच पर किताब का असर

जाति के विनाश के सिद्धांत को प्रतिपादित करने वाली उनकी किताब 'द एनीलेशन ऑफ़ कास्ट' ने हर तरह की राजनीतिक सोच को प्रभावित किया। है। आज भारत की सभी राजनीतिक पार्टियां डॉ आंबेडकर के नाम की रट लगाती हैं, लेकिन उनकी बुनियादी सोच से बहुत बड़ी संख्या में लोग अनभिज्ञ हैं। पश्चिम और दक्षिण भारत में सामाजिक परिवर्तन के जो भी आन्दोलन चले हैं उसमें किताब 'द एनीलेशन ऑफ़ कास्ट'  का बड़ा योगदान है।

जो  काम महाराष्ट्र में उन्नीसवीं सदी में महात्मा ज्योतिराव फुले ने शुरू किया था। उनके बाद के क्रांतिकारी सोच के नेताओं ने उनसे बहुत कुछ सीखा। डॉ आंबेडकर ने महात्मा फुले की शिक्षा संबंधी सोच को परिवर्तन की राजनीति के केंद्र में रख कर काम किया और आने वाली नस्लों को जाति के विनाश के रूप में एक ऐसा मन्त्र दिया जो सही मायनों में परिवर्तन का वाहक बनेगा। डॉ आंबेडकर ने ब्राह्मणवाद के ख़िलाफ़ शुरू किये गए ज्योतिबा फुले के अभियान को एक अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य दिया। 

'द एनीलेशन ऑफ़ कास्ट' में डा आंबेडकर ने बहुत ही साफ़ शब्दों में कह दिया है कि जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता समता, न्याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था नहीं कायम हो सकती।

ज़ाहिर है कि जाति व्यवस्था का विनाश हर उस आदमी का लक्ष्य होना चाहिए जो आंबेडकर के दर्शन में विश्वास रखता हो। आंबेडकर के जीवन काल में किसी ने नहीं सोचा होगा कि उनके दर्शन को आधार बना कर राजनीतिक सत्ता हासिल की जा सकती है।

क्या किया मायावती ने?

लेकिन उत्तर प्रदेश में उनकी सोच का दावा करने वाली राजनीतिक पार्टी की सरकार बनी और आज मायावती के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी एक ऐसी पार्टी है, जिससे सभी राजनीतिक दल गठबन्धन करना चाहते हैं। मायावती और उनके राजनीतिक गुरू कांशीराम ने अपनी राजनीति के विकास के लिए आंबेडकर का सहारा लिया और सत्ता के केंद्र तक पंहुचे। 

इस बात की पड़ताल करना दिलचस्प होगा कि आंबेडकर के नाम पर सत्ता हासिल करने वाली मायावती ने उनके सबसे प्रिय सिद्धांत को आगे बढ़ाने के लिया क्या कोई क़दम भी उठाया? क्या उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने ऐसे कोई नियम क़ानून बनाए जिसके चलते जाति संस्था का विनाश हो सके?

जातीय पहचान की पक्षधर?

उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की राजनीति पर नज़र डालने से प्रथम दृष्टया ही समझ में आ जाता है कि उन्होंने जाति प्रथा के विनाश के लिए कोई काम नहीं किया है। इसके विपरीत वे जातियों के आधार पर पहचान बनाए रखने की पक्षधर बनी रहीं। दलित जाति को अपने हर साँचे में फिट रखने के लिए तो उन्होंने छोड़ ही दिया है, अन्य जातियों को भी उनकी जाति सीमाओं में बांधे रखने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चला रही हैं। जब वह मुख्यमंत्री थीं तो हर जाति की भाईचारा कमेटियाँ बना दी गई थीं और उन कमेटियों को मायावती की पार्टी का कोई बड़ा नेता संभालता था। डाक्टर साहब ने साफ़ कहा था कि जब तक जातियों के बाहर शादी ब्याह की स्थितियां नहीं पैदा होती तब तक जाति का इस्पाती सांचा तोड़ा नहीं जा सकता। चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजने वाली मायावती जी ने एक बार भी सरकारी स्तर पर ऐसी कोई पहल नहीं की जिसकी वजह से जाति प्रथा पर कोई मामूली सी भी चोट लग सके। ज़ाहिर है जब तक समाज जाति के बंधन के बाहर नहीं निकलता आर्थिक विकास का लक्ष्य भी नहीं हासिल किया जा सकता।

अनुयायियों को किताब की जानकारी नहीं

मायावती जब मुख्यंमंत्री थीं तो उनकी सरकार के कई मंत्रियों को यह भी नहीं मालूम था कि आंबेडकर के मुख्य राजनीतिक विचार क्या हैं? उनकी सरकार के कुछ महत्वपूर्ण मंत्रियों से बातचीत करने का अवसर मिला था। उनमें से अधिकतर को डॉ  आंबेडकर के बारे में कुछ नहीं मालूम था। उनको यह भी नहीं मालूम था कि बाबासाहब की किताब का नाम क्या है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कम्युनिस्ट पार्टी का कोई नेता मार्क्स के सिद्धांतों को न जानता हो, या दास कैपिटल नाम की किताब के बारे में जानकारी न रखता हो।

डॉ आंबेडकर की सबसे महत्वपूर्ण किताब के बारे में यह जानना दिलचस्प होगा कि वह एक ऐसा भाषण है जिसको पढ़ने का मौका उन्हें नहीं मिला। लाहौर के 'जात पात तोड़क मंडल' की और से उनको मुख्य भाषण करने के लिए न्यौता मिला था। आयोजकों ने उनसे निवेदन किया कि अपने भाषण की लिखित प्रति भेज दें। जब डाक्टर साहब ने अपने प्रस्तावित भाषण को लिखकर भेजा तो ब्राहमणों के प्रभुत्व वाले जात-पात तोड़क मंडल के कर्ताधर्ता, काफ़ी बहस मुबाहसे के बाद भी इतना क्रांतिकारी भाषण सुनने कौ तैयार नहीं हुए। शर्त लगा दी कि अगर भाषण में आयोजकों की मर्जी के हिसाब से बदलाव न किया गया तो भाषण हो नहीं पायेगा। डॉ आंबेडकर ने भाषण बदलने से मना कर दिया। और उस सामग्री को पुस्तक के रूप में छपवा दिया जो आज हमारी ऐतिहासिक धरोहर का हिस्सा है। 

जाति की राजनीति

इस पुस्तक में जाति के विनाश की राजनीति और दर्शन के बारे में गंभीर चिंतन भी है। इस देश का दुर्भाग्य है कि आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास का इतना नायाब तरीका हमारे पास है, लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है।

आंबेडकर के समर्थन का दम ठोंकने वाले लोग ही जाति प्रथा को बनाए रखने में रुचि रखते है हैं और उसको बनाए रखने के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगा रहे हैं। जाति के विनाश के लिए डाक्टर आंबेडकर ने सबसे कारगर तरीका जो बताया था वह अंतरजातीय विवाह का था, लेकिन उसके लिए राजनीतिक स्तर पर कोई कोशिश नहीं की जा रही है।

पेशे की आज़ादी

आंबेडकर का कहना था कि स्वतंत्रता की अवधारणा भी जाति प्रथा को नकारती है। उनका कहना है कि जाति प्रथा को जारी रखने के पक्षधर लोग राजनीतिक आज़ादी की बात तो करते हैं, लेकिन वे लोगों को अपना पेशा चुनने की आज़ादी नहीं देना चाहते। इस अधिकार को आंबेडकर की वजह से ही संविधान के मौलिक अधिकारों में शुमार कर लिया गया है और आज इसकी मांग करना उतना अजीब नहीं लगेगा लेकिन जब उन्होंने उनके दशक में में यह बात कही थी तो उसका महत्व बहुत अधिक था। 

आंबेडकर के आदर्श समाज में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है, बराबरी। ब्राहमणों के अधियत्य वाले समाज ने उनके इस विचार के कारण उन्हें बार-बार अपमानित किया। सच्चाई यह है कि सामाजिक बराबरी के इस मसीहा को जात पात तोड़क मंडल ने भाषण नहीं देने दिया लेकिन आंबेडकर ने अपने विचारों में कहीं भी ढील नहीं होने दी।

विचारधारा नज़रअंदाज

तक़लीफ़ तब होती है जब उनके अनुयायियों और उनके दर्शन पर आधारित राजनीति करके सत्ता पाने वाले लोग भी उनकी विचारधारा को नज़रअंदाज  करते  हैं। सारी दुनिया के समाजशास्त्री मानते हैं कि जाति प्रथा भारत के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास में सबसे बड़ा रोड़ा है है, और उनके विनाश के लिए आंबेडकर द्वारा सुझाया गया तरीका ही सबसे उपयोगी है।  

जब कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी का गठन किया था तो आंबेडकर के दर्शन शास्त्र को समझने वालों को उम्मीद थी कि जब आंबेडकरवादियों को सत्ता में भागीदारी मिलेगी तो सब कुछ बदल जाएगा,जताई प्रथा के विनाश के लिए ज़रूरी क़दम उठा लिए जायेगें। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

पाँच साल तक पूर्ण बहुमत वाली सत्ता का आनंद लेने वाली मायावती ने जाति संस्था को ख़त्म करना तो दूर उसको बनाए रखने और मज़बूत करने के लिए एडी चोटी का जोर लगा दिया। लगता है कि आंबेडकर जयंती या उनके निर्वाण दिवस पर फूल चढाते हुए फोटो खिंचाने वाले लोगों के सहारे जाति प्रथा का विनाश नहीं किया जा सकता।

वे चाहे नेता हों या आंबेडकर के नाम पर दलित लेखन का धंधा करने वाले लोग, जाति का विनाश करने के लिए उन्हीं लोगों को आगे आना होगा जो जातिप्रथा के सबसे बड़े शिकार हैं ।

मीडिया में भी डॉ आंबेडकर के क्रांतिकारी विचारों को वह महत्व नहीं  मिलता, जो मिलना चाहिए। मैंने भी डॉ आंबेडकर के बारे में काफी कुछ पढ़ा और जाना है। लेकिन अप्रैल के दूसरे हफ़्ते और दिसंबर के पहले हफ़्ते के अलावा मैं भी डॉ आंबेडकर जैसे श्रद्धेय मनीषी के बारे में कुछ नहीं  लिखता। 

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