देश आम्बेडकर के सपनों पर खरा उतर पाया?
देश ने स्वतंत्रता के बाद सैद्धांतिक रूप से आत्मनिर्भरता, समृद्धि के जो भी बदलाव देखे हैं वह डॉ. भीमराव आम्बेडकर के संविधान को मूलरूप से अपनाने के बाद अनुभव किए हैं। उन्होंने देश को एक ऐसा बेहतरीन लिखित दस्तावेज दिया जो हर व्यक्ति को स्वतंत्र अभिव्यक्ति के अलावा वह सभी हक़ और अधिकार देता है जिसमें समानता और बंधुत्व के साथ समाजवादी विचार भी है, जिसकी वजह से आज हम गर्व से सर ऊँचा कर ख़ुद को नागरिक कहते हैं।
परंतु यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि हमने आम्बेडकर को सिर्फ़ दलितों-पिछड़ों-शोषितों का मसीहा बताकर उनके क़द को छोटा करने का काम किया है। वह एक ऐसे इंसान थे जो ख़ुद में एक संग्रह थे इतिहास के, वाणिज्य के, क़ानून के, समाजशास्त्र के जिन्होंने उस दौर में हर एक समस्या का समाधान दिया जिससे देश सदियों से जूझ रहा था, जो देश को विकासशील देशों की श्रेणी में रखने के लिए ज़रूरी थे।
आम्बेडकर ने उस दौर में समानता और बंधुत्व की बात की थी जब जाति और धर्म सर्वोपरि था, जब छुआछूत अपने चरम पर थी, जहाँ इंसान की पहचान उसके वर्ण से की जाती थी और यही कारण था आम्बेडकर जिस समानता की बात करते रहे, वह कुछ तथाकथित ऊँची जाति वाले लोगों को नामंज़ूर थी क्योंकि यह उनकी रूढ़िवादी सोच पर प्रहार थी और जो उनकी सामंतवादी सोच के वर्चस्व को ध्वस्त कर सकने में समर्थ थी।
आम्बेडकर विचार ही समाधान
आज देश जिन परिस्थितियों से गुज़र रहा है उसका समाधान सिर्फ़ आम्बेडकरवाद से निकाला जा सकता है। आज़ादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी हम जातियों के चक्रव्यूह में इस कदर फँस चुके हैं कि उससे बाहर निकलने का रास्ता खोजना भी हमें असहज कर देता है। ऐसे में क्या हम आज भी ख़ुद को स्वतंत्र कह सकते हैं?
जहाँ यूपी में हाथरस की बेटी के साथ हुई दरिंदगी के बाद उसके शव को आधी रात को इसलिए जला दिया जाता है कि वह दलित समुदाय से है और आरोपी ऊँची जाति से। यह अधिकार सत्ता प्रशासन को, समाज को किसने दिया कि वह ऐसी सूरत में ख़ुद फ़ैसला करे कि शव को कैसे और कब जलाया जाए?
आम्बेडकर का प्रबुद्ध भारत
आज हमें यह समझना बेहद ही ज़रूरी है कि क्या हम, भारत के लोग, बाबा साहेब के प्रबुद्ध भारत के सपने को पूरा करने में विफल हुए हैं? और बार-बार हो रहे हैं?
देश के पहले क़ानून मंत्री के रूप में उनके योगदान को कोई नहीं भुला सकता। हर व्यक्ति वर्ग के लिए सभी तरह के हक़ अधिकार दिलाने की लड़ाई उन्होंने लड़ी और महिलाओं और मज़दूरों की सुरक्षा के लिए क़ानून में कई प्रावधान सुनिश्चित किये। पितृसत्ता समाज में बराबरी के हक़ महिलाओ को दिलाने में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।
आम्बेडकर एक बेहतरीन अर्थशास्त्री
अक्सर जब भी बाबा साहेब आम्बेडकर का ज़िक्र आता है तो हम क्यों भूल जाते हैं कि वह एक बेहतरीन समाजशास्त्री भी थे, जिन्होंने बिजली उत्पादन के लिए बाँध की परिकल्पना की, बहुउद्देशीय नदी घाटी विकास, जल संसाधन का उपयोग, रेलवे और जलमार्ग का विचार दिया। वह एक बेहतरीन अर्थशास्त्री भी थे जिन्होंने ‘रुपए की समस्या’ को ध्यान में रखते हुए भारतीय रिज़र्व बैंक के आधारभूत ढाँचे की नींव रखी।
आम्बेडकर एक बेहतरीन शिक्षाविद भी थे जिन्होंने हमेशा ‘शिक्षित राष्ट्र, समर्थ राष्ट्र’ का आह्वान किया। क्या इन सब योजनाओं का लाभ किसी जाति विशेष या समुदाय के लिए रहा या फिर इसका लाभ हम सबको बराबर मिला, यह विचार हमें ख़ुद से करना होगा।
आम्बेडकर के विचारों को जानबूझ कर जनता के बीच पहुँचाने में देरी की गई। आम्बेडकर विचार का जिस तरह से आज लोगों के बीच प्रचार प्रसार हो रहा है, उसका श्रेय सिर्फ़ दलित साहित्य को जाता है। आम्बेडकर का 6 दिसंबर 1956 को इस दुनिया से चले जाने के बाद उनके साहित्य को प्रकाशित करने के लिए नागपुर के एक वकील लड़ाई न लड़ते तो धीरे-धीरे आम्बेडकर साहित्य को नष्ट कर दिया जाता। इस क़ानूनी बाध्यता के चलते ही साहित्य के एक हिस्से को महाराष्ट्र सरकार द्वारा बाबा साहेब के लेखन और भाषण को लगभग 26 खंडों में सार्वजनिक किया गया।
1932 में सबसे विवादास्पद पूना संधि पर हस्ताक्षर करने के बाद ख़ुद डॉ. आम्बेडकर ने कहा,
“
अछूतों को अधिक सीटें दी गईं, कम अधिकार और न के बराबर शक्तियाँ। अछूतों ने अपने प्रतिनिधियों को ख़ुद से चुनने के अधिकारों को शहीद कर दिया।
डॉ. भीम राव आम्बेडकर
इस सवाल पर ऊँची जाति के वर्चस्व वाले राजनीतिक संगठनों में काम करने वाले ज़्यादातर दलित राजनेता चुप्पी साध लेते हैं और बाबासाहेब के आंदोलन और विचारों को कमज़ोर करने का काम करते हैं और ऐसे लोग राजनितिक संगठनों की कठपुतली बनकर रह जाते हैं। बहुजन हित के काम सिर्फ़ कागज़ों तक ही सिमित रह जाते हैं।
बाबासाहेब ने संविधान के अनुच्छेद 330 और 332 के माध्यम से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए राजनीतिक आरक्षण का प्रावधान कराया। उन्होंने केवल शुरुआती 10 वर्षों के लिए राजनीतिक आरक्षण का प्रावधान किया, लेकिन शैक्षिक और नौकरी के लिए आरक्षण पर उन्होंने कोई समय सीमा नहीं रखी। यह उनकी दूर दृष्टि ही थी क्योंकि उन्हें अच्छी तरह से पता था कि संयुक्त निर्वाचन प्रणाली में दलित राजनेता मात्र कठपुतली बनकर ही रह जाएँगे। लेकिन राजनीतिक आरक्षण एकमात्र ऐसा आरक्षण है जो बिना किसी राजनीतिक दल के हर 10 साल के बाद संसद में 100% वोटिंग के ज़रिए बढ़ाई जाती है। अब देखना यह होगा कि जिस दूरदर्शिता से बाबासाहेब ने इस राजनीतिक आरक्षण का प्रावधान किया वह अपने मक़सद में कामयाब होगा या फिर यूँ ही कुछ चुनिंदा राजनेता इसका लाभ लेते रहेंगे और बहुजन समाज की अनदेखी जारी रहेगी।
हैरानी की बात यह है कि बड़े-बड़े दावे करने वाला देश का शासक वर्ग आज भी सभी नागरिकों को पर्याप्त भोजन, वस्त्र और आश्रय जैसी मूलभूत आवश्यकताएँ प्रदान करने में बुरी तरह विफल रहा है जिसमें सबसे ज़्यादा पीड़ित दलित हैं। हालिया आँकड़ों के अनुसार वैश्विक भुखमरी सूचकांक में 2020 में भारत 107 देशों में से 94वें स्थान पर रहा। लोकतंत्र के तीनों स्तंभ यानी विधायिका (संसद, विधानसभा) कार्यपालिका (नौकरशाही) और न्यायपालिका साथ मिलकर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति, अति पिछड़ा वर्ग के लिए बनाए गए संवैधानिक प्रावधानों को मज़बूत करने की बजाए उन्हें कमज़ोर करने का काम रहे हैं और जिसमें मिडिया अहम भूमिका निभा रहा है। दलितों से जुड़े मुद्दों को निष्पक्षता से जनमानस में पहुँचाने के बजाए, सरकार से सवाल करने के बजाए लोकतंत्र का ये स्वयंभू चौथा स्तंभ, दलितों के मुद्दों पर अक़्सर मौन हो जाता है।
एससी, एसटी और ओबीसी के लिए संवैधानिक प्रावधानों की अवहेलना करने के लिए अब निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण का सहारा लिया जा रहा है जिससे इस वर्ग की मूलभूत ज़रूरतों की भी अनदेखी होने लगी है। नीति आयोग की सतत विकास लक्ष्य इंडेक्स (एसडीजी) 2019-20 की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2030 तक 'ग़रीबी मुक्तभारत' के अपने लक्ष्य में भारत चार अंक और नीचे लुढ़क गया है, देश के 22 राज्य ग़रीबी दूर करने में आगे बढ़ने की बजाए काफ़ी पीछे जा चुके हैं। देश में ग़रीबी रेखा से भी नीचे बसर करने वाली आबादी 21 फ़ीसदी पहुँच चुकी है। ये आँकड़े ख़ुद में सक्षम हैं उस सच को बताने के लिए, जो हम साल दर साल बड़ी ख़ूबसूरती से छुपाने की कोशिश करते रहते हैं।
क्या मौजूदा परिस्थितियों और आँकड़ों को देखने के बाद नहीं लगता कि हम संविधान के परिप्रे़क्ष्य में बाबासाहेब के सपनों के भारत को जीवंत करने में विफल रहे हैं? आज़ादी के सत्तर बरस बीत जाने के बाद भी हाशिए पर रहने को मजबूर लोग आज भी उस तंत्र पर निर्भर हैं जो उनकी बदौलत ख़ुद तो बेहतर स्थिति में पहुँच चुका है और राज कर रहा है।