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अयोध्या में क्यों बिगड़ रहा मानव वानर संबंधों का संतुलन

अयोध्या में क्यों बिगड़ रहा मानव वानर संबंधों का संतुलन

अयोध्या में कंक्रीट के इतने जंगल उग आए हैं कि वहां बंदरों को इंसान के साथ सामंजस्य बिठाने में बहुत दिक्कत आ रही है। जानिए क्या है पूरा मामलाः

’अवध बसन को जिय चहै पै बसिये केहि ओर? 

तीनि दुष्ट यामह बसैं बेगम बानर चोर।’ 

जानें किस दिलजले शायर द्वारा कब रची गई इन काव्य पंक्तियों को अयोध्यावासी अब तक भूल नहीं पाये हैं और गाहे-ब-गाहे उद्धृत करते रहते हैं। कारण यह कि भले ही बेगमें अब इतिहास में समा गई हैं और चोरों को चोरियों में कोई संभावना नहीं दिखती, वानरों का राज अभी भी कायम है। हां, उनकी सारी ‘दुष्टई’ के बावजूद ‘अयोध्या के कोतवाल’ कहलाने वाले बजरंगबली समेत भगवान राम की लंकाविजयी सेना के अनेक रणबांकुरों के वंशज होने से जुडी उनकी 'प्रतिष्ठा' भी बरकरार ही है।

 

पिछले दिनों अयोध्या के प्रतिष्ठित आध्यात्मिक विचारक, दार्शनिक और महंत आचार्य मिथिलेशनन्दिनी शरण ने एक बहुचर्चित फेसबुक पोस्ट में सत्ताधीशों पर आरोप लगाया कि उनके द्वारा अयोध्या को ‘विनायक’ बनाते-बनाते वानर बना दिया जा रहा है {विनायकं प्रकुर्वाणो रचयामास वानरम्} तो भी शायर की उक्त पंक्तियां लोगों को बहुत याद आईं। यहां जान लेना चाहिए, विनायक शब्द गणेश और गरुड़ का पर्यायवाची तो है ही, उसके कई और गरिमामय अर्थ भी हैं।

बहरहाल, अयोध्या के धार्मिक हलकों में वानरों से जुडी एक और कथा चली आती है। यह कि 1986 में एक फरवरी को फैजाबाद के तत्कालीन जिला जज कृष्णमोहन पांडे ने एक वकील की अर्जी पर विवादित बाबरी मस्जिद में बन्द ताले खोल देने का आदेश दिया तो उनके न्यायालय में आकर अपना आसन ग्रहण करने के पहले से ही एक वानर उसकी छत पर जा बैठा था और तभी वहां से हटा था, जब ताले खोलने का आदेश ‘सुन’ लिया था। आस्थावानों द्वारा अभी भी इस कथा की कई चमत्कारिक व्याख्याएं की जाती हैं। 

लेकिन तीन साल पहले 2020 में पांच अगस्त को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राममन्दिर के निर्माण के सिलसिले में भूमि पूजन करने अयोध्या आये तो स्थानीय प्रशासन को इस अंदेशे से हलकान होना पड़ा था कि नगरी के वानरों की धमाचौकड़ी उनके पूजन में विघ्न डाल सकती है। तब इस विघ्न को रोकने के लिए उसे कई एहतियाती उपाय करने पड़े थे, जिनमें से एक के तहत कार्यक्रम स्थल के आस-पास की पांच जगहें चिह्नित करके वहां जलेबी, चने और अमरूद वगैरह रखवा दिए गये थे। इसका लाभ भी हुआ था: वानर वहां ‘दावत’ उड़ाने में व्यस्त हो गये थे और प्रधानमंत्री का भूमिपूजन निर्विघ्न सम्पन्न हो गया था।

प्रसंगवश, अयोध्या में वानरों को ऐसी दावतें प्रायः मिलती रहती हैं : देश व प्रदेश के विभिन्न हिस्सों से अयोध्या आये श्रद्धालु, पर्यटक और पुण्यार्थी तो उनको श्रद्धाभाव से चने व अमरूद वगैरह खिलाते ही हैं, स्थानीय लोग भी उनसे पीछे नहीं रहते। कोई वानरों को बन्दर कह दे तो बुरा मानते हैं सो अलग। लेकिन अब कंक्रीट के जंगलों के निरंतर फैलाव के बीच वानरों का पुराना स्वभाव, जो उनके और अयोध्यावासियों के बीच सामंजस्य का वायस हुआ करता था, तेजी से बदल रहा और उन्हें हिंसा व बरजोरी पर उतरना सिखा रहा है, जिससे रोज-रोज परेशानियां झेल रहे अयोध्यावासी चाहते हैं कि उनके दैनन्दिन जीवन में वानरों की बढ़ती दखलंदाजी घटे। अलबत्ता, वे चाहते हैं कि सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे। यानी उनकी धार्मिक आस्थाओं की भी रक्षा हो, वे आहत होने से भी बच जायें और वानरों से पीछा भी छूट जाये। लेकिन सवाल है कि ऐसा क्योंकर हो? 

अयोध्या में वानरों की जो प्रजाति बहुतायत में पाई जाती है, वैज्ञानिक उसे अपनी भाषा में रीसस मकाक कहते और बताते हैं कि इस प्रजाति के वानर उनकी जीवनशैली में जरा-सा भी विघ्न पड़ा नहीं कि आक्रामक होने लगते हैं।अयोध्या में पहले ऐसे विघ्न बहुत सीमित थे, इसलिए उसके निवासियों को इनकी उग्रता नहीं झेलनी पड़ रही थी। लेकिन अब बढ़ती जनसंख्या के दबाव में नगर के अनियंत्रित व अनियोजित विस्तार ने इन वानरों की जगहों को सिकोड़ डाला है। अमरूद के वे बाग भी अब कम ही रह गये हैं, जो कभी अयोध्या-फ़ैज़ाबाद की पहचान और वानरों का अघोषित अभयारण्य हुआ करते थे। ऐसे कितने ही बागों की जगह अब रिहायशी कालोनियां खड़ी हो गई हैं, जहां से वानर दिन भर इधर से उधर भगाये जाते रहते हैं।

इससे चिढकर वे ढिठाई और बरजोरी पर उतरते हैं तो महिलाएं और बच्चे तो उनके शिकार होते ही हैं, श्रद्धालु और पर्यटक भी होते हैं। वे उनके हाथ का प्रसाद व खाने-पीने की चीजें बरबस छीनने के चक्कर में खून-खच्चर तक कर डालते हैं। नगरी में वानरों के अलग-अलग झुंडों ने अपने-अपने ‘राज’ की सीमाएं कहिए या नियंत्रण रेखाएं बना रखी हैं। दूसरे झुंडों द्वारा उनका उल्लंघन किये जाने पर उनमें भीषण टकराव होते हैं जिससे रास्ते बन्द हो जाते हैं, ट्रैफिक जाम हो जाता है और ‘युद्धविराम’ के बाद ही हालात काबू में आते हैं।

उत्पाती वानरों के डर से महिलाएं और बच्चे प्रायः निर्भय होकर खुली छतों पर नहीं जा पाते। महिलाओं के लिए वहां कपडे़, अनाज, सब्जियां व अचार वगैरह सुखा पाना भी मुश्किल होता हैं। घरों के पास खाली भूमि या किचन गार्डेन में सब्जियां आदि उगाना सपने जैसा हो गया है। फूलों की खेती करने वाले मालियों की तो और भी दुर्दशा है। उनमें वही सुखी हैं, जो अपनी फुलवारियों की बाड़बन्दी या निरंतर रखवाली में सक्षम हैं, अन्यथा वानर उनकी खेती नष्ट कर देते हैं। रेलयात्रियों, खोमचे वालों, हलवाइयों, सब्जी व फल विक्रेताओं का अलग ही दर्द है। शायद ही कोई दिन हो जब विझुत उपभोक्ताओं को वानरों के उत्पातों से पैदा हुए व्यवधान न झेलने पड़ते हों। 

बेशक, यह समस्या नगरी के अनियोजित विकास के माडल की पैदा की हुई है, जिसने मानव-वानर सम्बन्धों का संतुलन बिगाड़ डाला है, लेकिन कोढ़ में खाज उसकी लगातार अनदेखी ने पैदा किया है, जो इसके बावजूद बदस्तूर है कि नागरिक चौदह साल पहले से इसकी ओर ध्यान आकर्षित करते आ रहे हैं। 

नगरी के वरिष्ठ मानवाधिकार कार्यकर्ता गोपालकृष्ण वर्मा और उनकी समाजसेवी व लेखिका पत्नी श्रीमती शारदा दुबे ने वर्ष 2008 में ही अपनी ओर से पहलकर एक ‘सहृदय समिति’ बनाई और उसके बैनर पर ‘आपरेशन वानर’ का आगाज किया था। यह आपरेशन मुख्यतः दो बिन्दुओं पर केन्द्रित था। पहला: ऐसी नागरिक समितियां गठित की जायें, जो मनुष्यों व वानरों दोनों के प्रति एक जैसी उदारता से समस्या और समाधान के उपायों पर विचार करे। इन उपायों में वानरों को भगाने पर नहीं, उनके लिए अभयारण्य जैसी जगहों के विकास और संभव हो तो उनकी वंशवृद्धि को नियोजित करने पर जोर हो। दूसरा: नागरिक ऐसी प्रजाति के लंगूर पालें, जो हिंसक नहीं होती और जिनसे डरकर रीसस मकाक प्रजाति के वानर दूर चले जाते हैं। 

उन दिनों सहृदय समिति ने समस्या से जुड़े पचास प्रश्न भी बनाये थे, जिन्हें लेकर वह नागरिकों तक जा रही थी और उनसे उसके समाधान के उपायों पर सहमति-पत्र भरा रही थी। उद्देश्य यह था कि समस्या के समाधान के लिए कोई प्रशासनिक पहलकदमी हाथ में ली जाये तो उसे नागरिकों का कितना सहयोग मिलेगा? समिति ने ऐसी किसी पहलकदमी के लिए धर्माधीशों का समर्थन जुटाने के प्रयत्न और वानरों से होने वाले नुकसानों व उनसे बचाव के उपायों पर नागरिकों द्वारा किये जाने वाले खर्च को लेकर एक सर्वे भी आरम्भ किया था। समिति का कहना था कि वानरों को दुष्ट या अनेक आस्थावानों के इष्ट कहकर समस्या को यों ही छोड़ देने से काम नहीं चलेगा। 

लेकिन आगे के वर्षों में बढ़ते साम्प्रदायिक फितूरों के कारण इस सिलसिले में समन्वय की समिति की एक भी पहल फलीभूत नहीं हो सकी और आवारा कुत्तों व छुट्टा मवेशियों के साथ मिलकर वानरों की समस्या लगातार जटिल होती गई। अब सम्पन्न तबके तो बड़ी धनराशि खर्च करके लोहे की जालियों से अपने घरों की किलेबन्दी कर उन्हें वानरों के लिए अभेद्य बना ले रहे हैं, लेकिन अल्प आय वाले तबकों को वानरों के उत्पात भी झेलने पड रहे हैं, आवारा कुत्तों व मवेशियों के भी। 

फिर भी न प्रदेश सरकार उनकी फिक्र कर रही है और न स्थानीय निकाय। उन्होंने इतने भर से अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान ली है कि गोवंश के संरक्षण व संवर्धन के लिए ‘कान्हा उपवन’  संचालित किया जा रहा है और वानरों का अभयारण्य व एनीमल जोन बनाने की कागजी कार्रवाइयां की जा रही हैं। 

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