अभी बारिश की पहली फुहार भी नहीं पड़ी थी कि करोड़ों की लागत से बना अयोध्या के नवनिर्मित रामपथ के धँसने की तस्वीरें आने लगीं और किनारे-किनारे जलभराव होने लगा है। पहले तो सरकार, मंदिर प्रबंधन और तमाम संगठन डिनायल मोड में रहे लेकिन जब आसपास के लोगों, खासकर दुकानदारों में, जिनके यहाँ सड़क का पानी जाने लगा, रोष देखा तो सरकार ने छह इंजीनियर्स को निलंबित कर दिया। इस तत्काल कार्रवाई का कारण था हाल के चुनाव परिणामों में यूपी में भाजपा का खराब परफॉरमेंस और उसमें भी राममंदिर के बावजूद इस क्षेत्र से हार। पुनर्विकसित अयोध्याधाम रेलवे स्टेशन की चहारदीवारी भी ढह गयी है। करोड़ों की लागत से बने मंदिर में पीएम ने रामलला विग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा करते हुए कहा था “यह भारतीय समाज की परिपक्वता दिखाता है… यह राम के रूप में राष्ट्र चेतना का मंदिर है”।
अगर राष्ट्र चेतना का असली स्वरूप जनता के करोड़ों रुपये की लागत से बनी सड़कों और रेलवे की दीवारों के छह माह में दरकने से या पिछले दो वर्षों में बिहार में करोड़ों रुपये की लागत से बने दर्जनों पुल के ठीक उद्घाटन के एक दिन पूर्व ढहने से पता चलने लगे तो चिंता की बात है। ऐसी विकृत राष्ट्र चेतना के साथ कोई राष्ट्र एक दशक भी नहीं चल सकता जबकि यह देश सदियों से ऐसी ही राष्ट्र-चेतना के भ्रष्ट चरित्र के साथ कराह रहा है।
राष्ट्र-चेतना केवल मंदिर बनने से नहीं या जनता का पैसा किसी मंदिर-निर्माण या शहर में चौड़ी सड़क बनवाने से नहीं, समाज के सामूहिक विवेक, तर्क-शक्ति और वैज्ञानिक सोच के विकसित होने से आता है। क्या चाँद पर उतरने वाला देश, मन्दिर तक जाने वाली सड़क –रामपथ – को भी ठीक से नहीं बनवा सकता? सड़क और रेलवे स्टेशन की चहारदीवारी गिरने का कारण भ्रष्टाचार के अलावा कुछ और हो सकता है?
संभव है पीएम को खुश करने के अति-उत्साह में अधिकारियों पर जल्द निर्माण का दबाव हो लेकिन क्या सिविल इंजीनियरिंग विज्ञान के इतने विकास के बावजूद एक टिकाऊ सड़क और दीवार बनाना इतना कठिन है? और अगर यह कमजोरी थी भी तो अंतरराष्ट्रीय ख्याति पर आँच के डर से बीते छह माह में इन्हें मजबूती नहीं दी जा सकती थी? कानून और उन्हें लागू कराने वाली संस्थाएं अगर कमजोर हों तो सिस्टम भ्रष्ट ही नहीं रहता बल्कि निडर भी हो जाता है। वरना पीएम जिस सड़क का उद्घाटन करें क्या वह छह माह में धंस सकती है?
आपातकाल की याद आज कितनी सही?
अनेक सामाजिक, आर्थिक और सामरिक उथल-पुथल किसी भी राष्ट्र के लिए भविष्य की दिशा तय करते हैं। लेकिन जो मुद्दे राजनीतिक धरातल पर एक-दूसरे को नीचा दिखाने में कारगार होते हैं वे दशकों बाद भी उठाये जाते हैं। इमरजेंसी कांग्रेस को नीचा दिखने के लिए आज भी भाजपा के लिए इतना बड़ा मुद्दा है कि पीएम ने 18वीं लोकसभा के पहले सत्र के पहले दिन भी इसे याद किया। कांग्रेस भी अकसर भाजपा के मातृ संगठन आरएसएस की 85-90 साल पहले आज़ादी और खासकर गाँधी के “भारत छोड़ो” आन्दोलन में भूमिका की याद दिलाता है। बहरहाल क्या आज इन दोनों बातों का कोई महत्व जनमानस में है भी? तीन से पांच पीढ़ियां ख़त्म हो चुकी हैं, इन दलों का आधारभूत सिद्धांत और चरित्र पूरी तरह बदल चुका है।
इंदिरा गाँधी पर किताब लिखने वाले मशहूर पत्रकार इन्दर मल्होत्रा ने कहा था कि आपातकाल की सबसे बड़ी सीख यह है कि अब कोई दल दुबारा इसे लगाने की हिम्मत नहीं करेगा। लेकिन शायद उन्होंने पूरी बात नहीं कही। 25 जून, 1975 को आपातकाल जब लागू किया गया तब भी उसे कानूनी जामा पहनाया गया था। संविधान के प्रावधान के तहत ही राष्ट्रपति के पास कैबिनेट की अनुशंसा गयी। संसद की प्रक्रिया भी तदनुरूप रही। पूरी की पूरी व्यवस्था कार्यपालिका के हाथों चली गयी थी और मौलिक अधिकार अस्तित्वहीन हो गया था। संवैधानिक प्रक्रिया के तहत ही तमाम गलत संशोधन हुए। इसका सीधा मतलब है कि आपातकाल जैसे अप्रजातांत्रिक कदम को भी संवैधानिक आवरण पहनाया गया। प्रजातंत्र की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि बहुमत के नाम पर संस्थाओं के ज़रिये क़ानूनी दिखने वाली प्रक्रियाएँ अपना कर बगैर आपातकाल घोषित किये भी बहुत कुछ ऐसा हो सकता है जो आपातकाल से भी ज्यादा खतरनाक हो और प्रजातंत्र की मूल भावनाओं के खिलाफ हो। दरअसल चुनावी बहुमत का मतलब ऐसी स्वायत्तता नहीं होती जो संविधान या प्रजातन्त्र की मर्यादाओं को ही ख़त्म कर दे। इसीलिए संविधान के आधारभूत ढांचे को संसद के बहुमत के ऊपर रखा गया है।
(लेखक पत्रकार हैं और ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के पूर्व महासचिव हैं। ये लेखक के निजी विचार हैं।)