क्या सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से निकलेगा अयोध्या का स्थायी समाधान?
अयोध्या से मेरा निजी, सांस्कृतिक, धार्मिक और भावनात्मक रिश्ता रहा है। बाप-दादा वहीं के रहने वाले थे, इसलिए अयोध्या मेरे संस्कारों में है। वह मन से उतरती नहीं। अयोध्या मेरे लिए श्रद्धा का वह स्तर है कि मेरी दादी कभी अयोध्या नहीं कहती थीं। उनके मुँह से हरदम ‘अयोध्या जी’ ही निकलता था।
अयोध्या को लंबे समय तक विवादित ढाँचे के तीनों गुंबदों से ही जाना जाता रहा है। मगर सिर्फ ये तीन गुंबद अयोध्या का पूरा सच नहीं हैं। बाबरी ढाँचे को ढहाए जाने के साथ ही तीनों गुंबद अब स्मृति शेष रह गए हैं। अयोध्या का सच इससे अलग है। यह सच भारत की विरासत, परंपरा, सांस्कृतिक इतिहास और धार्मिक मूल्यों में गहरे तक धँसा हुआ है। अयोध्या वीतरागी है। अयोध्या निस्पृह है। अयोध्या में बह रही सरयू के पानी में भी एक तरह की निसंगता है। भक्ति में डूबी अयोध्या का चरित्र अपने नायक की तरह ही धीर, शांत और निरपेक्ष है।
अयोध्या एक लक्षण है, मजहबी असहिष्णुता के विरुद्ध प्रतिकार का। अयोध्या एक प्रतीक है, भारत राष्ट्र के आहत स्वाभिमान का। अयोध्या एक संकल्प है, अपनी प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर से हर कीमत पर जुड़े रहने का।
अयोध्या शमशीर से निकली उस विचारधारा का प्रतिकार है, जो सर्वपंथ समादर, सर्वग्राही और उदार सहिष्णुता के भारतीय आदर्शों को स्वीकार नहीं करती। उसे कुचलती जाती है।
अयोध्या का मतलब है, जिसे शत्रु जीत न सके। युद्ध का अर्थ हम सभी जानते हैं। योध्य का मतलब जिससे युद्ध किया जा सके। मनुष्य उसी से युद्ध करता है, जिससे जीतने की संभावना रहती है। यानी अयोध्या के मायने हैं, जिसे जीता न जा सके।
पर अयोध्या के इस मायने को बदल ये तीन गुंबद राष्ट्र की स्मृति में विजेता की तरह दर्ज हैं। ये गुंबद हमारे अवचेतन में शासक बनाम शासित का मनोभाव बनाते रहें हैं। पिछले सौ वर्षों से देश की राजनीति इन्हीं गुंबदों के इर्दगिर्द घूम रही है। आज़ाद भारत में अयोध्या को लेकर बेइंतहा बहसें हुईं। सालों-साल ‘नैरेटिव’ चला, पर किसी ने उसे समझने की कोशिश नहीं की। सब कुछ इन्हीं गुंबदों के इर्दगिर्द घटता रहा। अब भी घट रहा है।
हालाँकि गुंबद अब नहीं हैं, पर उसकी धुरी जस की तस है। इस धुरी की तीव्रता, गहराई और उसके सच को पकड़ने का कोई बौद्धिक अनुष्ठान कभी नहीं हुआ, जिसमें इतिहास के साथ-साथ वर्तमान और भविष्य को जोड़ने का माद्दा हो।
यह इसलिए कि इतिहास के तराजू पर आप सच-झूठ का निष्कर्ष निकाल सकें और उन तथ्यों से दो-दो हाथ करने के प्रामाणिक, ऐतिहासिक और वैधानिक आधार के भागी बनें।
अयोध्या में 6 दिसंबर, 1992 को जो कुछ हुआ, वह किसी भी हिंदू परंपरा में मान्य और प्रतिष्ठित नहीं है। पर वह हुआ क्यों? इस पर विचार करने को भी हमारे हुक़्मरान तैयार नहीं हैं। कोई इसे समझना भी नहीं चाहता कि इस आक्रोश की जड़ें कहाँ हैं।
सिवाए इसके कि राजनैतिक दल ध्वंस के लिए एक-दूसरे को ज़िम्मेदार ठहराते हैं। इतिहास की गहराई में थोड़ा सा उतरते ही यह तसवीर भी साफ़ होने लगती है। 1934 में हिंदुओं की एक विशाल भीड़ ने बाबरी मसजिद के तीनों गुंबद तोड़ दिए थे। फैज़ाबाद के अंग्रेज़ कलेक्टर ने बाद में इनका पुनर्निर्माण करवाया। उस वक़्त हिंदू भावनाओं को भड़काने के लिए विश्व हिंदू परिषद अस्तित्व में भी नहीं थी।
इससे पहले भी 1855 में अयोध्या में भारी संघर्ष हुआ था। नवाब वाजिद अली शाह की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, 12 हज़ार लोगों ने ढाँचे को घेर लिया। यह संघर्ष खूनी था। 70 मुसलमान मारे गए थे। ढाँचे का एक हिस्सा फिर गिरा।
उस वक्त तो आरएसएस का जन्म भी नहीं हुआ था। कोई चुनाव भी सामने नहीं था। यानी इन गुंबदों को लेकर आक्रोश हर काल में था। पर किसी ने उसे समझने और सुलझाने की कोशिश नहीं की। दरअसल यह चुनाव की राजनीति नहीं, दो विचारधाराओं का टकराव था, जिसमें एक- विचारधारा, उपासना स्वातंत्र्य, सर्वपंथ समभाव, पंथनिरपेक्षता पर टिकी थी। तो दूसरी -मजहबी एकरूपता, धार्मिक विस्तारवाद और असहिष्णुता पर टिकी थी।
राम, कृष्ण और शिव भारत में पूर्णता के तीन महान स्वप्न हैं। तीनों का रास्ता अलग-अलग है। मैं डॉ. राममनोहर लोहिया को अपने जमाने का सबसे बड़ा ‘सेकुलर’ मानता हूँ। उनका जन्म भी फैज़ाबाद में हुआ था। वे कहते थे, ‘राम की पूर्णता मर्यादित व्यक्तित्व में है, कृष्ण उन्मुक्त और शिव असीमित व्यक्तित्व के स्वामी हैं। मैं जानता हूँ, इस देश का मानस गढ़ने में राम, कृष्ण और शिव की भूमिका रही है।... देश के सांस्कृतिक इतिहास में यह निरर्थक बात है, भारतीय पुराण के ये महान लोग धरती पर पैदा हुए भी या नहीं।... राम हिंदुस्तान की उत्तर-दक्षिण एकता के देवता थे।’
लेकिन दुर्भाग्य देखिए, लोहिया के चेले यह नहीं समझ पाए और वे आडवाणी से लड़ते-लड़ते राम से लड़ने लगे। अगर वामपंथी मित्रों ने भी लोहिया और गाँधी की नज़र से राम को देखा होता तो वे अयोध्या आंदोलन के मर्म को आसानी से समझ लेते।
अयोध्या के इन गुंबदों का ध्वंस देश को भीतर तक हिला गया। मैं इस ध्वंस का साक्षी रहा हूँ। ध्वंस की रणनीतियों से लेकर ढाँचा बचाने की खोखली कोशिशों का भी गवाह रहा हूँ। मैंने ‘सेक्युलरिज्म’ की आड़ में राजनीति के बदलते रंग को भी बेहद क़रीब से देखा।
बाबरी ध्वंस के अपने-अपने मायने हैं। कोई इसे भारत के लोकतंत्र, न्यायपालिका, कार्यपालिका और ‘ख़बरपालिका’ पर हमला कहता है, कोई ऐतिहासिक भावनाओं का विस्फोट। इसे ‘रामजी की मर्जी’ का नाम देने वाले लोग भी हैं।
कुछ इसे ‘विधाता की मर्जी’ भी कहते हैं। कोई इसे क़ानून, संविधान, लोकतंत्र से विश्वासघात भी कहता है। यानी जिसकी जैसी दृष्टि, उसका वैसा ध्वंस।
हमारे यहाँ धर्म की पहली किताब ऋग्वेद में लिखा है, ’एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति।’ मगर इस सबके बीच अयोध्या कई सवालों से घिरी रही। सबसे बड़ा प्रश्न यही रहा कि युद्ध की वृत्ति का निषेध करने वाली अयोध्या के गले हमेशा अंतहीन युद्ध क्यों पड़ा रहा? क्यों अयोध्या पर बार-बार युद्ध थोपा गया? राम को मर्यादित जीवन स्वीकार था, विवादित नहीं। बावजूद इसके उन्हें हमेशा विवादों में क्यों रखा गया?
यह सब तब हुआ, जब अयोध्या में स्वभावजनित युद्ध का कोई चरित्र नहीं दिखता है। हर बार बाहरी लोगों ने अयोध्या को अपने स्वार्थ के लिए युद्ध में धकेला। अयोध्या के साथ निरंतर छल-प्रपंच, षड्यंत्र और धोखा होता रहा। राम हमेशा अयोध्या के रहे, मगर अयोध्या ने उनके साथ ठीक नहीं किया। राज परिवार में जन्मने के बावजूद उन्हें कभी सुख नहीं दिया। शांति नहीं दी। बचपन से ही वे लड़ने-भिड़ने चले गए। उन्हें सुखकर गार्हस्थ्य जीवन नहीं दिया। हमेशा लड़ते-भिड़ते, थकते-हारते रहे। जीवन से जब जलसमाधि ली तो अपने पीछे विवाद ही विवाद छोड़ गए।
अयोध्या अभिशप्त सी दिखती है। चारों तरफ दुख पसरा दिखता है। यह भी एक अभिशाप ही है कि राष्ट्र की सांस्कृतिक चेतना का केंद्र होने के बावजूद अयोध्या उस आर्थिक विकास से अछूती ही रही, जिसने भारत के दूसरे शहरों को बदलकर रख दिया। अयोध्या में ध्वंस के बाद रामलला का जो अस्थायी मंदिर बना है, उसमें सीमेंट की 16 सीढ़ियाँ हैं।
उसकी पहली सीढ़ी पर लिखा है, ‘हिंदू विजय दिवस 6 दिसंबर, 1992’। यह उस आक्रोश की अभिव्यक्ति थी, जिसका जिक्र मैं पहले कर चुका हूँ। यह आक्रोश अनायास ही नहीं था। यह सदियों से हिंदू जनमानस के अवचेतन में दबा हुआ था। जब भी इसे उर्वर जमीन दिखाई दी, यह ज्वार बनकर फूट पड़ा। 6 दिसंबर 1992 को भी यही हुआ था।
इसीलिए मैं कहता हूँ कि अयोध्या का हल सहमति और सद्भावना की नींव पर होना चाहिये। यही इस मामले का स्थायी समाधान है। न्यायिक व्यवस्था क़ानून की नज़र में स्थिति साफ़ कर सकती है मगर ज़मीन की दरार नहीं पाट सकती। बनारस के दोषीपुरा का मामला इसका जीता जागता सबूत है। बनारस के दोषीपुरा में 2 क़ब्रो की ज़मीन को लेकर शिया और सुन्नी के बीच साल 1878 से विवाद जारी है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट अपना फ़ैसला भी सुना चुका है पर आज तक इसे लागू नही किया जा सका है।
दोषीपुरा की इस ज़मीन के मूल मालिक थे महाराजा बनारस। शिया और सुन्नी दोनों इस पर अपना हक़ जताते आए हैं। शिया कहते हैं कि महाराजा बनारस ने उन्हें धार्मिक कामों को संपन्न करने के लिए यह ज़मीन दान में दी थी। सुन्नियों का कहना है कि यह उनका पुराना कब्रिस्तान है, लिहाज़ा शियाओं को इस पर किसी भी तरह के धार्मिक आयोजनों को करने का अधिकार नहीं हैं। सुन्नी इस भूखंड पर अपने समुदाय की दो कच्ची कब्रें होने का दावा भी करते हैं।
यह मुकदमा कई अदालतों में चला। साल 1976 में सुन्नी इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट गए। तीन नवंबर 1981 को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में फैसला सुनाया और सुन्नी हार गए। सुप्रीम कोर्ट ने बनारस के प्रशासनिक अधिकारियों को निर्देश दिए कि वे चहारदीवारी बनवाएँ और मैदान में मौजूद दो क़ब्रों को हटवाएँ।
तत्कालीन यूपी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि क़ब्रों को हटाने की कोशिश करने से क़ानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ सकती है। तब से अब तक 38 साल हो चुके हैं, मगर यूपी सरकार इस फ़ैसले को लागू नही कर पाई है।
आशय यह नही है कि अयोध्या मामले में फ़ैसला लागू नही हो सकेगा। देश इस कदर बँट चुका है कि फ़ैसले के बाद कोई जीतेगा कोई हारेगा। यह भाव तो बना रहेगा। और फिर हारा हुआ वर्ग सैकड़ों साल तक ज़ख़्म लेकर घूमता रहेगा।
फ़ैसला हो भी जाए तो इस बात का डर हमेशा बना रहेगा कि आने वाले सालों में, जब दूसरा पक्ष प्रबल होगा,तो वह एक बार फिर कटुता और ध्वंस के रास्ते पर बढ़ सकता है। यह इसलिए कि चार सौ साल के इतिहास में वह इमारत 6 बार तोड़ी गई, दोनों पक्षों के ज़रिए।
मैं ऊपर इस बात का हवाला दे चुका हूँ कि बाबरी मसजिद 6 दिसंबर, 1992 को पहली बार नही टूटी। आक्रोश की ताक़त को जब भी अवसर मिला, उसने अपने मन की कर ली। इसीलिए अयोध्या के मामले में दोनों ही पक्षों को सद्भाव की डोर नहीं छोड़नी चाहिए। इसलिए मैं मानता हूँ कि इस मसले का स्थायी हल तो संवाद और सहमति से ही निकल सकता है। ताक़त या क़ानून से नही। अयोध्या राम की है। राम अयोध्या के हैं। लेकिन रास्ता सद्भाव का है। रास्ता सद्भाव से है।