बुधवार को 40 किसान संगठनों के प्रतिनिधियों और सरकार के बीच छठे दौर की बातचीत में इस पर सहमति बनी कि पराली जलाने के मामले में किसानों को छूट मिलेगी और बिजली पर मिल रही सब्सिडी मिलती रहेगी।
कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने कहा, "पहला मुद्दा पर्यावरण से जुड़े अध्यादेश का था, किसानों को पराली के मुद्दे पर कई तरह की आशंकाएं थीं। दोनों ही पक्ष किसानों को उस अध्यादेश से बाहर रखने पर राजी हैं।"
तोमर का आश्वासन
तोमर ने बिजली सब्सिडी के मुद्दे पर कहा, "किसानों को इसका डर है कि बिजली अधिनियम में सुधार किया गया तो उन्हें नुक़सान होगा। किसान संगठनों का कहना था कि सिंचाई के लिए मिल रही सब्सिडी चालू रहनी चाहिए। इस पर आम सहमति बन गई है।"
किसानों ने बिजली सब्सिडी का मुद्दा इसलिए उठा रखा था कि सरकार ने बिजली क्षेत्र में बड़े पैमाने पर सुधार की योजना बनाई है। इन सुधारों का मक़सद निजी क्षेत्र की कंपनियों को अधिक सुविधाएं देना है ताकि वे इस क्षेत्र में आएं और निवेश करें।
फिलहाल निजी कंपनियो ने बिजली वितरण में दिल्ली, कोलकाता जैसे बड़े शहरों में ही दिलचस्पी दिखाई है। सरकार चाहती है कि छोटे शहरों, कस्बों और गाँवों समेत पूरी बिजली वितरण प्रणाली ही निजी कंपनियों के हवाले कर दिया जाए और सरकारी कंपनियां यह काम न करे क्योंकि उन्हें इसमें नुक़सान होता है।
बिजली संशोधन विधेयक 2020
इस सुधार को ध्यान में रख कर बिजली मंत्रालय ने बिजली संशोधन विधेयक 2020 पेश किया और इससे जुड़ा अधिनियम इस साल 17 अप्रैल को जारी कर दिया।
फ़िलहाल राज्य सरकारें बिजली वितरण करने वाली बिजली बोर्ड या दूसरी सरकारी एजेंसी को सब्सिडी की रकम देती हैं। किसानों को जो बिल चुकाना होता है, वह उस सब्सिडी के बाहर का हिस्सा होता है।
सरकार की नई व्यवस्था यह है कि किसान पूरे बिजली बिल का भुगतान करे। सरकार सब्सिडी की रकम सीधे उसके बैंक खाते में डाल दे। इससे यह होगा कि बिजली कंपनी को पूरा पैसा मिलेगा, उसे नुक़सान नहीं होगा।
किसानों की आशंका
लेकिन इसमें पेच यह है कि बिजली की दरें जब और जितनी बढ़ेंगी, उस हिसाब से राज्य सरकार ने किसानों के खाते में पैसे नहीं डाले तो क्या होगा। इसकी क्या गारंटी है कि सरकार बढ़ी हुई सब्सिडी के हिसाब से पैसे उसी समय से उसके खाते में डालने लगेगी?
यह डर बेबुनियाद इसलिये नहीं है कि निजी क्षेत्र की बिजली वितरण कंपनी तो सब्सिडी बढ़ा देगी, लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि राज्य सरकार उसी समय उसी अनुपात में सब्सिडी बढ़ा दे और वह रकम किसानों के खाते में डाल भी दे।
कितनी सब्सिडी?
इस पूरे मामले को पंजाब सरकार की सब्सिडी से समझा जा सकता है। पंजाब सरकार ने इस साल के बजट में 16,400 करोड़ रुपए का प्रावधान इस मद में किया है। यह पूरे बजट का 10 प्रतिशत है, जो काफी कम है।
यह रकम पंजाब राज्य बिजली निगम लिमिटेड के सब्सिडी से 5,759 करोड़ रुपए कम है। पंजाब सरकार पिछले साल पाँच साल से बिजली निगम को पूरा सब्सिडी नहीं दे रही है, पैसा बकाया है।
बिजली कर्मचारियों का समर्थन
ऑल इंडिया पावर इंजीनियर्स फ़ेडरेशन ने इस महीने की शुरुआत में बयान जारी कर कहा था विद्युत संशोधन क़ानून 2020 बिजली सेक्टर के पूर्ण निजीकरण की दिशा में उठाया गया सरकार का चालाकी भरा कदम है। उन्होंने किसान आन्दोलन का समर्थन करते हुए कहा था कि इस बिजली क़ानून से किसानों को नुक़सान होगा और उनकी दिक्क़तें बढ़ेंगी ही।
फ़ेडरेशन के अध्यक्ष शैलेंद्र दुबे ने कहा था,
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"किसानों के खाते में सीधे सब्सिडी डालने का फ़ैसला दरअसल किसानों को मिल रही सब्सिडी को ख़त्म करने के समान है। इसकी कोई गारंटी नहीं है कि राज्य सरकारें उतना पैसा किसानों के बैंक खातों में डालें जितनी बढ़ोतरी बिजली बिल में हुई हो।"
शैलेंद्र दुबे, अध्यक्ष, ऑल इंडिया पावर इंजीनियर्स फ़ेडरेशन
क्या है पराली का मामला?
पराली के मामले में भी सरकार ने कहा है कि वह वायु प्रदूषण कम करने के लिए बने अध्यादेश से किसानों को छूट देगी।
सरकार ने 'कमीशन फ़ॉर द एअर क्वालिटी मैनेंजमेंट इन नैशनल कैपिटल रीज़न एडज्वाइनिंग एरियाज़ ऑर्डिनेंस, 2020' अगस्त में पेश किया। यह अक्टूबर में क़ानून बन गया। इसमें यह प्रावधान है कि वायु की गुणवत्ता का क्या स्तर तय किया जाए, प्रदूषण की अधिकतम सीमा क्या हो, उसे कैसे परिभाषित किया जाए, इसका अधिकार आयोग को होगा।
वायु प्रदूषण रोकने के लिए जो उपाय किए गए हैं, उनमें पराली जलाने पर प्रतिबंध भी शामिल है। इस क़ानून के मुताबिक़, वायु प्रदूषण के लिए ज़िम्मेदार लोगों को अधिकतम एक करोड़ रुपए तक का ज़ुर्माना और ज़्यादा से ज़्यादा पाँच साल तक की जेल की सज़ा हो सकती है।
पराली जलाने के मुद्दे पर सरकार यदि किसानों की मांग मान भी लेती है तो सवाल यह उठता है कि वह पराली की समस्या से निजात पाने की कोई कार्य योजना उसके पास है या नहीं।। साफ है इन दोनों मसलों पर सरकार के पीछे हटने से किसानों को सहूलियत तो होगी।
क्या किसान आन्दोलन जन-आन्दोलन बनता जा रहा है, देखें वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष को।