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विधानसभा चुनाव : राज्यों में सीएम के चेहर पर असमंजस क्यों?

विधानसभा चुनाव : राज्यों में सीएम के चेहर पर असमंजस क्यों?

पाँच राज्यों में विधानसभा चुनावों में राजनीतिक दलों की स्थिति कैसी है? आख़िर ये दल मुख्यमंत्री के चेहरे की घोषणा क्यों नहीं कर पा रहे हैं?

देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के लिए परिदृश्य अब कुछ-कुछ उभरने लगा है। इन पांच में से चार राज्यों में सभी प्रमुख दलों ने अपने-अपने प्रत्याशियों के नाम घोषित कर दिए हैं, जो बाकी हैं वे भी आज-कल में सामने आ जायेंगे। इससे अब मतदाताओं को अपना मन बनाने में सुविधा होगी। अब बचे-खुचे दिन मतदाताओं को रिझाने और रूठों को मनाने में ख़र्च किये जायेंगे। इस बीच मौसम ने भी करवट बदली है और हवा में गुलाबी सर्दी का अहसास होने लगा है। मौसम का रंग और चुनावी रंग त्योहारों के रंग से मुक़ाबला करता नज़र आ रहा है।

इन विधानसभा चुनावों में सभी राजनीतिक दलों में मुख्यमंत्री के चेहरों को लेकर असमंजस है। सबसे ज्यादा असमंजस तो भाजपा में है। कांग्रेस में भी असमजंस की स्थिति है लेकिन भाजपा से कम।  कांग्रेस के पास मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में हालाँकि मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवारों को सब पहचान रहे हैं लेकिन राजस्थान में चुनाव परिणाम आने के बाद फ़ैसला किया जायेगा। राजस्थान में अभी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का जादू पार्टी के भीतर और बाहर साफ़ नज़र आता है। कांग्रेस के समाने ऐसी पशोपेश तेलंगाना में भी नहीं है। वहां भी प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में अघोषित रूप से घोषित किया गया है। मिज़ोरम में किसी भी दल के पास कोई ऐसा चेहरा नहीं है जो साफ़ तौर पर मुख्यमंत्री का चेहरा हो। यहाँ हर बार गठजोड़ की सरकार बनती है और इसमें भाजपा की भूमिका इस बार भी शायद नगण्य हो।

कांग्रेस और भाजपा के प्रत्याशियों के जितने भी नाम इन राज्यों में सामने आये हैं उन्हें लेकर पार्टी के भीतर असंतोष और संतोष बराबर है। कांग्रेस ने इस असंतोष का सामना करने का शायद पहले से मन बना रखा है। पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने साफ़ कहा है कि पार्टी के पास 4000 आवेदन थे लेकिन उम्मीदवार तो केवल 230 ही बनाये जा सकते हैं। ये हमारे नेता और कार्यकर्ता भी जानते हैं। हम रूठे लोगों को मना लेंगे। कांग्रेस में अभी जहाँ भी असंतोष के सुर सुनाई दिए हैं वहां चिंता की बात ज्यादा नहीं है। असंतोष को लेकर सबसे ज्यादा चिंता भाजपा में है। भाजपा में शिवराज, नाराज और महाराज भाजपा के बीच पहले से जंग चल रही थी। इस जंग को प्रत्याशियों के चयन ने और बढ़ा दिया। इसी वजह से सबसे ज्यादा भगदड़ भाजपा में ही हुई, जो अभी भी थमने का नाम नहीं ले रही है।

मध्यप्रदेश में भाजपा सत्ता प्रतिष्ठान विरोधी लहर के साथ ही पार्टी के आंतरिक असंतोष का भी सामना कर रही है, लेकिन राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा को केवल आंतरिक असंतोष ही इतना भारी पड़ रहा है कि वो सत्ता प्रतिष्ठान विरोधी जन भावना को भुनाने की स्थिति में आ ही नहीं पा रही है। इन राज्यों में भाजपा के अनेक येदियुरप्पा हैं जो पार्टी हाईकमान को आँखें दिखा रहे हैं। 

भाजपा का मौजूदा हाईकमान पुराने और स्थापित नेताओं से आतंकित है इसलिए उन्हें किनारे कर देना चाहता है। लेकिन हाईकमान की यही कोशिश उसके गले की हड्डी बन गई है। मध्य प्रदेश में भाजपा ने मौजूदा मुख्यमंत्री के सामने एक तरह से हथियार डाल दिए हैं लेकिन राजस्थान में वसुंधरा राजे के सामने हाईकमान की प्रत्यंचा अभी भी तनी हुई है। छत्तीसगढ़ में डॉ. रमन सिंह हाई कमान के सामने कभी तनकर खड़े नहीं हुए, इसलिए उन्हें अभी भी पसंद किया जा रहा है। तेलंगाना और मिजोरम में भाजपा की कलम अभी तक जड़ों में तब्दील ही नहीं हुई है। इन दोनों राज्यों में भाजपा सत्ता संग्राम का हिस्सा नहीं है।

पांच राज्यों के चुनावों को लेकर भाजपा हाई कमान जितना तनाव में है उसे देखकर लगता है कि उसे इन राज्यों का रण आसान नहीं लग रहा। डबल इंजन की सरकार चलने के बाद भी मध्यप्रदेश में भाजपा के सामने चुनौतियाँ ही चुनौतियाँ हैं।

मध्यप्रदेश में सत्ता बनाये रखना और राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ में सत्ता छीनना आसान काम नहीं है जबकि हाल ही में कर्नाटक जीत चुकी कांग्रेस का मनोबल बढ़ा हुआ है। मध्यप्रदेश में भी और राजस्थान में भी। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार है और उसे फिलहाल कोई चुनौती भी नहीं है। तेलंगाना में केसीआर परिवारवाद के फेर में फँसकर उलझ गए हैं। वे मोदी के विरोधी हैं किन्तु ‘इंडिया’ के समर्थक भी नहीं हैं इसलिए उनका जाना भी लगभग तय लग रहा है। मिजोरम में भी मणिपुर की आग का थोड़ा-बहुत असर तो है। मिजोरम ने मणिपुर में हुई हिंसा के बाद शरणार्थियों का बोझ उठाया है।  जाहिर तौर पर इसके लिए भाजपा को ही ज़िम्मेदार माना जा सकता है।

इन सभी राज्यों में लड़ाई के लिए भले ही चेहरे सामने नहीं हैं लेकिन लड़ाई होगी 'फेस टू फेस' ही क्योंकि भाजपा के पास मुद्दे भी नहीं हैं और चेहरे भी, जबकि कांग्रेस के पास मुद्दे भी हैं और चेहरे भी। अर्थात सीधी लड़ाई में जो प्रत्याशी सबल होंगे वे जीतेंगे, भले ही वे किसी भी दल के हों। पार्टी का नाम और चुनाव चिन्ह उनके लिए ज्यादा निर्णायक नहीं होगा, सबसे ज्यादा परेशानी उन प्रत्याशियों को होने वाली है जो आम आदमी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी की नाव पर सवार हो गए हैं अपने मूल दलों को छोड़कर। इन प्रत्याशियों को मतदाता आसानी से स्वीकार कर पायेगा, इसमें कम से कम मुझे तो संदेह है। यानी तीसरी ताकत की कोई बड़ी भूमिका इन चुनावों में नहीं है। आम आदमी पार्टी की पूँछ पर केंद्र सरकार का पैर पहले से रखा हुआ है। बसपा ने भी किसी भी गठबंधन से अपने आपको दूर रखकर एक गलती कर दी है। समाजवादी पार्टी इन राज्यों में पहले से अपनी साख खो चुकी है क्योंकि हर बार उसके विधायक बिक जाते हैं।

(राकेश अचल के फ़ेसबुक पेज से)

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