असमिया कवि नीलिम कुमार को कविता लिखने पर जान से मारने की धमकी!
असमिया के प्रतिष्ठित कवि नीलिम कुमार ने कल्पना भी नहीं की होगी कि विनोद-भाव या कुछ शरारत से लिखी गयी उनकी कविता पर इतना बवाल मचेगा कि उन्हें जान से मारने की धमकियाँ मिलने लगेंगी, कई एफ़आईआर दर्ज हो जायेंगी और उन्हें बार-बार सफ़ाई देनी पड़ेगी। लेकिन हमारे देश में यह असहिष्णुता और आक्रामकता का दौर है, लिहाज़ा नीलिम की कविता पर हंगामा जितना दुर्भाग्यपूर्ण है, उतना आश्चर्यजनक नहीं।
‘एक अस्वस्थ सिटीबस’ शीर्षक से यह कविता हाल में असमिया की जानी-मानी पत्रिका ‘प्रान्तिक’ में छपी थी, जिसमें एक बीमार बस का वर्णन है जो सांस की तकलीफ़ से ग्रस्त है, काला धुँआ छोड़ती है और सवारियों को समय पर नहीं पहुँचाती। नीलिम ने इस बस में ड्राइवर की सीट पर साऊ लुंग सुकाफा और उनके सहायक के रूप में गदापाणि को दिखाया है और यही इस पूरे बवाल की जड़ है।
हंगामा है क्यों बरपा
क़रीब 800 साल पहले हुए सुकाफा और 500 साल पहले के गदाधर सिंह आहोम राजवंश के सबसे सम्मानित राजाओं में गिने जाते हैं। आहोम युबा परिषद के सदस्यों की आपत्ति है कि कविता में इन ऐतिहासिक चरित्रों का अपमान किया गया है। इसमें उल्फा के सुर मिलाने के बाद देखते ही देखते असम का सांस्कृतिक माहौल नीलिम के प्रतिकूल हो गया और उन्हें गला काटने तक की धमकियाँ दी जाने लगीं। असमिया लेखक समुदाय और मीडिया भी विरोध में पीछे नहीं रहा।
नीलिम को माफ़ी माँगते हुए यह कहना पड़ा कि सुकाफा और गदाधर असम की अस्मिता के सबसे गौरवशाली व्यक्तित्व हैं, उनकी कोई अवमानना नहीं की गयी है, बल्कि यह पूरी कविता एक रूपक की तरह पढ़नी चाहिए।
उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि शायद वह कविता में अपने आशय को ठीक से व्यक्त नहीं कर पाए।
असमिया अस्मिता का सवाल
नीलिम की सफ़ाई के बाद भी तूफ़ान शांत नहीं हुआ है। बहुत से लेखक इस कविता को ‘प्रचार पाने का हथकंडा’ और ‘एक कमज़ोर पड़ते कवि की चौंकाने की कोशिश’ कह रहे हैं या नीलिम को ‘सावधान रहने’ और असमिया महापुरुषों पर कलम चलाने से बचने की सलाह दे रहे हैं। नीलिम चाहते हैं कि कविता को स्थूल या अभिधा के रूप में नहीं, बल्कि व्यंजना या रूपक मान कर उसकी बारीकियों के साथ पढ़ा जाए। लेकिन विरोध के शोर में ऐसा पाठ मुमकिन नहीं लगता।दरअसल, असम में पिछले कुछ समय से भारतीय जनता पार्टी की हुक़ूमत है। आलोचकों का आरोप है कि इस दौरान समाज में साम्प्रदायिक वैमनस्य, संस्कृति और भाषा के भेदभाव और मूल नागरिक बनाम घुसपैठिया के विवाद बहुत भड़का है। असम अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान को लेकर अतिरिक्त सजग रहा है।
अंग्रेजी राज में असम कई वर्ष तक बंगाल का हिस्सा रहा और असमिया भाषा को भी बांग्ला का ही एक रूप माना गया। लम्बे संघर्ष और भाषाई पुनर्गठन के कारण उसे बंगाल से छुटकारा मिला, लेकिन बांग्ला भाषा-संस्कृति से वह अब भी अपने को असुरक्षित महसूस करता है।
बीजेपी सरकार की शह
पेशे से डॉक्टर नीलिम कुमार सरकारी नौकरी में हैं और नागरिकता संशोधन क़ानून का विरोध भी करते रहे हैं, जिसके कारण पिछले दिनों उनका तबादला असम के दूर-दराज़ इलाक़े सोनारी सपोरी, धुनकाखाना कर दिया गया था। इसीलिए मौजूदा विवाद में भी कई लोग सर्बानन्द सोनोवाल सरकार की शह देख रहे हैं।असम में पिछले वर्ष भी कविता विवाद और क़ानूनी कार्रवाई का बायस बनी थी और उसके मूल में भी असमिया संस्कृति की ‘विशिष्टता’ और ‘असुरक्षा’ की भावना थी। कछार क्षेत्र में बरसों से रह रहे बांग्लाभाषी मुसलिम समुदाय (जिसे मिया कहा जाता है) के कवियों की नयी पीढी ने ऐसी कविताओं की रचना की, जो व्यवस्था-विरोध से भरी हुई थीं।
मिया कविता का विरोध क्यों
‘मिया कविता’ में ‘बाहरी लोगों से घृणा’ (ज़ेनोफोबिया) की मनोवृत्ति और सांस्कृतिक पवित्रता की रक्षा के मुद्दे को प्रश्नांकित किया गया था।
छोटी या हाशिये की अस्मिताओं के उभार के दौर में यह एक स्वाभाविक कविता थी, लेकिन असम के साहित्यिक प्रतिष्ठानों की ओर से काफी आलोचना हुई और उसे असमिया भाषा की शुद्धता पर आघात माना गया।
इस आन्दोलन के दस प्रमुख कवियों पर मुकदमे भी दर्ज हुए जिसके विरोध में करीब 200 असमिया लेखकों ने बयान भी जारी किया।
मिया कविता के एक कवि हाफ़िज़ अहमद की कुछ कविता-पंकियां इस तरह हैं:
‘लिखो
मैं एक मिया हूँ
एनआरसी में मेरा सीरियल नम्बर है 200543
मेरे दो बच्चे हैं
तीसरा आने वाला है
अगली गर्मियों में
क्या तुम उससे वैसी ही नफ़रत करोगे
जैसी मुझसे करते हो’
मराठी कविता का विरोध
हमारे सत्ताधारी अक्सर कविता नहीं पढ़ते। इसके बावजूद कभी-कभी कविता तूफ़ान उठा देती है। ऐसा ही एक विवाद सन 1984 में हुआ था। वह कविता प्रसिद्ध मराठी कवि वसंत दत्तात्रेय गुर्जर की थी: 'गांधी मला भेटला'. यानी 'गांधी मुझे मिला' प्रकाशित होते ही कविता लोकप्रिय हुई और उसके पोस्टर भी तैयार किये गए।इस व्यंग्य कविता में गांधी को आज़ाद हिंदुस्तान में कई ऐसी जगहों पर चित्रित किया गया था, जहां उनके होने की कोई संभावना नहीं थी या जहां उनका होना किसी कुफ्र से कम नहीं था: मंदिर, मसजिद, चर्च के अलावा क्रेमलिन, ओशो आश्रम और मुंबई के चकलाघरों में भी वह थे।
कविता काफी बेबाक थी, लेकिन कवि का मंतव्य यह बतलाना था कि आज़ादी के बाद हमने गांधी की ऐसी दुर्दशा कर दी है।
दस वर्ष बाद 1994 में महाराष्ट्र स्टेट बैंक कर्मचारी यूनियन की पत्रिका में इस कविता के पुनर्प्रकाशन पर संघ परिवार से जुड़ी एक संस्था ‘पतित पावन संगठन’ ने बखेड़ा कर दिया, उस पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग की और कविता को सुप्रीम कोर्ट में पंहुचा दिया। कोर्ट ने राष्ट्रपिता को ‘अश्लील’ ढंग से चित्रित करने पर आपत्ति की, लेकिन मामले को फिर से लातूर ज़िले की अदालत में भेज दिया, जहाँ दुर्भाग्य से उसका फ़ैसला अभी तक रुका हुआ है।
मराठी के मशहूर लेखक भालचंद्र नेमाडे ने उसे महत्वपूर्ण कविता मानते हुए मराठी कविता के एक संकलन में शामिल करने का एलान किया था, लेकिन कविता के न्यायाधीन होने के कारण यह संभव नहीं हुआ। कवि वसंत दत्तात्रेय गुर्जर बीमार हैं और कविता अदालत में लंबित है।
एक अस्वस्थ सिटीबस
-नीलिम कुमार
एक अस्वस्थ सिटीबस
महानगर के बीच आना-जाना करती है
श्वास लेने में तकलीफ़
सड़क के किनारे रुक कर थोड़ा विश्राम करती
काला धुँआ उड़ाती
कभी करती है घर्र-घर्र
जैसे श्वास नली की आवाज़
एक अस्वस्थ सिटीबस
बहुत धीमी गति से चलती
महानगर की व्यस्तता के बीच
हड़बड़ी का एक महानगर
हॉर्न और ओवरटेक का एक महानगर
चमकती हुई दोनों आँखों के आह्वान का एक महानगर
उसके बीचोबीच रास्ता काटकर
काला धुँआ उड़ाती हुई
आती है एक अस्वस्थ सिटीबस
यात्री चढ़ते और गाड़ी की रफ़्तार देखकर तुरंत उतर जाते
यात्रियों से गाली खाती एक अस्वस्थ सिटीबस
आठ सौ वर्ष का एक ड्राइवर
पाँच सौ वर्ष का एक हैंडीमैन
नाम पूछने पर ड्राइवर कहता-सुकाफा
हैंडीमैन कहता-गदापाणि
लाइसेंस नहीं है
ट्रैफिक पुलिस के सिरदर्द की एक बस
छात्र-छात्राओं को समय से
स्कूल-कॉलेज न पहुँचाने वाली एक बस
मंदिर जाने वाली औरतों के लिए
देर होती हुई एक बस
इतिहास का दिया एक आजीवन लाइसेंस लेकर
चलती रहती एक अस्वस्थ सिटीबस
ग़लती से यात्री चढ़ते और तुरन्त उतर जाते
कोई भी चढ़ना नहीं चाहता उस बस में
जो भविष्य के ट्रैफिक जाम से दूर होती जाती
सिर्फ़ एक युवती है इस महानगर में
उसका नाम कमलाकुँवरी
जो इस अस्वस्थ सिटीबस में चढ़ना पसन्द करती है
और हमेशा आती
खिड़की के पास बैठती
जो किसी भी दिन मंदिर नहीं जाती
घर से निकलते समय
जो हमेशा माँ की गाल पर देकर आती
एक हज़ार साल का एक ठंडा चुम्बन
बुरंजी की टेढ़ी-मेढ़ी भावना से महानगर के बीच
हमेशा आती-जाती है एक अस्वस्थ सिटीबस
ड्राइवर का नाम सुकाफा
हैंडीमैन गदापाणि।
-असमिया से अनुवाद: कल्पना पाठक