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असम में मदरसों को सरकारी स्कूल में बदलने को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती

असम में मदरसों को सरकारी स्कूल में बदलने को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती

असम में मदरसों को सरकारी स्कूलों में बदलने के अधिनियम को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। दरअसल, असम में जो मदरसे सरकारी ग्रांट से चलते हैं, उन्हें सरकारी स्कूलों में बदलने का कानून असम सरकार ने बनाया है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि मात्र सरकारी मदद देने भर से सरकार उन्हें सरकारी स्कूल में नहीं बदल सकती है।

असम में सरकारी मदद से चलने वाले मदरसों को स्कूलों में बदले जाने को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। दरअसल, असम सरकार के इस फैसले को हाईकोर्ट ने बरकरार रखा था। सुप्रीम कोर्ट में हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दरवाजा खटखटाया गया है। मामला कोर्ट में होने के कारण सरकार इसे लागू नहीं कर पाई है।

गुवाहाटी हाईकोर्ट ने अपने आदेश में 2020 के असम रीपिलिंग अधिनियम को बरकरार रखा। इसके तहत मौजूदा मदरसों को नियमित सरकारी स्कूलों में बदल दिया जाएगा।

सुप्रीम कोर्ट में यह अपील 13 याचिकाकर्ताओं ने दायर की है, जो असम के निवासी हैं। याचिका में कहा गया है कि हाईकोर्ट ने गलत तरीके से देखा है कि मदरसे सरकारी स्कूल हैं, और इन्हें सरकारी मदद से बनाया जाता है। असम सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 28 (1) को गलत तरीके से देखा है, जिसके तहत धार्मिक शिक्षा प्रदान करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।

असम निरस्तीकरण अधिनियम, 2020 के जरिए राज्य सरकार ने असम मदरसा शिक्षा (प्रांतीयकरण) अधिनियम, 1995 और असम मदरसा शिक्षा (शिक्षकों की सेवाओं का प्रांतीयकरण और शैक्षिक संस्थानों का पुनर्गठन) अधिनियम, 2018 को निरस्त कर दिया। इस अधिनियम को असम के राज्यपाल ने 27 जनवरी, 2021 को अपनी सहमति प्रदान की।

याचिका में कहा गया है कि हाईकोर्ट का फैसला जो 4 फरवरी, 2022 को दिया गया था, उसकी वजह से मदरसों को बंद कर दिया जाएगा और उन्हें इस शैक्षणिक वर्ष के लिए पुराने पाठ्यक्रमों के लिए छात्रों को प्रवेश देने से रोक दिया जाएगा। वहां सरकारी स्कूल खुल जाएंगे।

याचिका में कहा गया है कि अधिनियम मदरसा शिक्षा की वैधानिक मान्यता के साथ इससे जुड़ी संपत्ति को छीन लेता है और राज्यपाल द्वारा 2 फरवरी, 2021 को जारी आदेश 1954 में बनाए गए 'असम राज्य मदरसा बोर्ड' को भंग कर देगा। यह एक मनमाना आदेश है। यह शिक्षा के साथ-साथ धार्मिक शिक्षा प्रदान करने की क्षमता से वंचित करने के बराबर है।

याचिका में तर्क दिया गया है कि मदरसे अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान हैं जो धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ असम के भीतर भारत के लोगों को शिक्षा की अन्य श्रेणियों को प्रदान करने के उद्देश्य से धार्मिक अल्पसंख्यक द्वारा बनाए गए हैं। वे अनुच्छेद 30(1) के लाभ का दावा करने के लिए दोनों आवश्यकताओं को पूरा करते हैं, अर्थात, पहला, वे एक शैक्षणिक संस्थान हैं, और दूसरा, वे एक धार्मिक अल्पसंख्यक द्वारा बनाए गए हैं। इसलिए, यह अनुच्छेद 30(1) के तहत उनका अधिकार है। यह अनुच्छेद अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों को 'स्थापित' और 'प्रशासन' करने के लिए, जो याचिकाकर्ता मदरसों को अपने स्वयं के पाठ्यक्रम को तय करने के अधिकार की गारंटी देता है, जो कि उनके धर्म या संस्कृति को संरक्षित करने के तरीकों की उनकी धारणा पर आधारित हो सकता है। 

याचिका में कहा गया है कि असम मदरसा शिक्षा (प्रांतीयकरण) अधिनियम, 1995 (2020 के अधिनियम द्वारा निरस्त) केवल वेतन का भुगतान करने और मदरसों में कार्यरत शिक्षण और गैर-शिक्षण कर्मचारियों को लाभ प्रदान करने के लिए राज्य के उपक्रम तक सीमित है। इन मदरसों का प्रशासन, प्रबंधन और नियंत्रण मदरसों के प्रबंधनों के पास है। इसमें कहा गया है, मदरसों की जमीन और इमारतें याचिकाकर्ताओं द्वारा संभाली जाती हैं और बिजली और फर्नीचर पर होने वाला खर्च याचिकाकर्ता मदरसों द्वारा खुद वहन किया जाता है।

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