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मोदी सरकार के ख़िलाफ़ असम में एकजुट हो रहे हैं लोग

मोदी सरकार के ख़िलाफ़ असम में एकजुट हो रहे हैं लोग

नागरिकता विधेयक के ख़िलाफ़ असम के मूल निवासियों में ज़बरदस्त असंतोष है और वे सड़कों पर उतर आए हैं। 

नागरिकता विधेयक को लोकसभा से पास हुए एक हफ़्ते हो जाने के बाद भी असम में इसके ख़िलाफ विरोध जारी है। लोगों में डर बैठ गया है कि असम समझौते के तहत असम और स्थानीय लोगों को जो सुरक्षा मिली हुई थी, वह ख़त्म हो जाएगी और वे लोग अपनी ही जमीन पर अल्पसंख्यक हो जाएँगे। एक दूसरा मुद्दा भी है। एक बार नागरिकता विधेयक क़ानून बन गया तो लोगों को संविधान के विपरीत पहली बार धर्म के आधार पर विदेशियों, ग़ैरक़ानूनी प्रवासियों और नागरिकों में बाँट दिया जाएगा। 

लोकसभा में आम सहमति से 8 जनवरी को यह विधेयक पास हो गया है। यह विधेयक बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान से 31 दिसंबर 2014 के पहले ग़ैर क़ानूनी तरीके से आए हिंदू, सिख, पारसी, ईसाई, जैन और बौद्ध समुदाय के लोगों के सिर से ग़ैरक़ानूनी प्रवासी का दाग हटा देगा और वे भारतीय नागरिकता हासिल करने लायक हो जएँगे।  

डरे हुए हैं लोग

मौजूदा सरकार ने बार-बार कहा है कि यह विधेयक सिर्फ़ असम और उत्तर पूर्व के लिए नहीं है, पूरे भारत के लिए है। सरकार ने यह भी साफ़ किया है कि इस विधेयक का मक़सद उन लोगों की मदद करना है जो बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान में धार्मिक आधार पर होने वाली भेदभाव से पीड़ित हैं और भारत में शरण लेने के लिये मजबूर हैं। हालाँकि गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने यह साफ़ किया है कि इस विधेयक का मक़सद भारत की पूर्वी और पश्चिमी सीमा से आने वाले प्रवासियों के लिए है और जो भारत के अलग अलग हिस्सों में रह रहे हैं, और इनको बसाना सिर्फ़ असम की ज़िम्मेदारी नहीं है। इस बयान के बावजूद असम और उत्तर पूर्व के लोगों के मन से डर नहीं निकला है। 

असम समझौते के ख़िलाफ़ 

अखिल असम छात्र संगठन यानी आसू, जो इस आंदोलन की अगुवाई कर रही है, ने तीन बातें कहीं हैं।

  • 1. इसकी वजह से बांग्लादेश से असम आने वाले हिंदू प्रवासियों की संख्या बढ़ेगी ओर जल्दी ही अपनी जमीन पर असम और उत्तर पूर्व में स्थानीय निवासी अल्पसंख्यक हो जायेंगे।
  • 2. यह विधेयक भारतीय संविधान और असम समझौते की मूल भावना के ख़िलाफ़ है। ये दोनों ही धर्म के आधार पर आने वाले प्रवासियों  में फ़र्क़ नहीं करते।
  • 3. यह विधेयक हमेशा के लिए असम में सामाजिक सौहार्द बिगाड़ देगा।
असम समझौते की धारा 5 के मुताबिक़,  24 मार्च 1971 के बाद बांग्लादेश से आए लोगों की पहचान कर उनको न केवल चुनाव सूची से अलग किया जाना चाहिए, बल्कि राज्य से बाहर भी कर देना चाहिए। यह धारा धर्म के आधार पर लोगों में कोई भेद नहीं करती। असम समझौते की धारा 6 असम और राज्य के स्थानीय लोगों को संवैधानिक, विधायी और प्रशासनिक सुरक्षा सुनिश्चित करती है। 

यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि बांग्लादेश से आए लोगों की वजह से असम का जनसंख्या संतुलन गड़बड़ हो गया है।

पिछले साठ सत्तर सालों में असम के दस ज़िलों में मुसलिम बहुसंख्यक हो गए हैं यानी वहाँ उनकी संख्या हिंदुओं से अधिक है। दूसरी ओर, पिछले चालीस सालों में असम और स्थानीय भाषा बोलने वालों की संख्या भी काफ़ी कम हुई है।

  1971 की जनगणना के हिसाब से असम में असमवासी कुल जनसंख्या के 60.89 प्रतिशत थे। लेकिन 2011 की जनगणना के मुताबिक़ यह आँकड़ा घट कर 48.38 फ़ीसद हो गया। यानी कुल 12.51% प्रतिशत की कमी आई। इसके विपरीत बांगला बोलने वालों की संख्या 19.70 फ़ीसद से बढ़कर 2011 में 29.91 प्रतिशत हो गई। इसी तरह से मुसलिम आबादी भी 2011 में 24.46% फ़ीसद से बढ़कर 34.22 फ़ीसद हो गई। हालाँकि असम में बांग्लाभाषियों की संख्या इससे कहीं ज़्यादा होगी। एक सचाई यह भी है कि ज़्यादातर बांग्लाभाषी चाहे वो 1971 के पहले आए हो या इसके बाद, सार्वजनिक मौक़ों पर असमिया ही बोलते हैं। ये अपने घरों में बांग्ला में बात करते हैं।

 - Satya Hindi

असम का बांग्लाभाषी समुदाय (फ़ाइल फ़ोटो)

इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में नेशनल रजिस्टर आफ सिटिजन्स बनाने का काम भी चल रहा है, जिसके तहत असम में ग़ैर क़ानूनी प्रवासियों की पहचान की जा रही है। अदालत के अनुसार, केवल उन्हीं लोगों को नेशनल रजिस्टर में जगह दी जाएगी जो 24 मार्च 1971 की आधी रात तक असम आए और जो इस बात के सबूत भी दे पाएँगे। जिन लोगों की गणना नेशनल रजिस्टर में नहीं होगी, उनकी अलग लिस्ट बनेगी। 

दृष्टिकोण बदला

अतीत की कुछ घटनाओं ने भी असम के लोगों का दृष्टिकोण बदल कर रख दिया है।

  • 1.अंग्रेज़ों के अधीन आते ही असम में बांग्ला भाषा को आधिकारिक तौर पर राजभाषा का दर्जा दे दिया गया और 37 साल के लंबे संघर्ष के बाद असम को अपनी भाषा वापस मिली।
  • 2.लार्ड कर्ज़न के वायसराय बनने के फ़ौरन बाद असम को पूर्वी बंगाल में मिला दिया गया। 
  • 3.देश के बंटवारे के लिए जब कैबिनेट मिशन भारत आया तो असम बांग्लादेश का हिस्सा बनते-बनते रह गया। गांधी जी की वजह से वो बाल-बाल बच पाया, अन्यथा नेहरू ने तो हाथ छोड ही दिया था।
  • 4. जब चीन ने भारत पर हमला किया तो वो तेज़पुर के काफी क़रीब तक घुस आया था, तब प्रधानमंत्री नेहरू ने रेडियों के अपने भाषण में असम के लोगों को अलविदा कह दिया था।
  • 5. जब पूरा असम 1979 से 1985 तक बांग्लादेश से आए बाहरियों की पहचान और उनको वापस भेजने की लड़ाई लड़ रहा था, तब घुसपैठियों को बचाने के लिए 1983 में अवैध प्रवासी क़ानून बना था। 

अब जब कि नागरिकता विधेयक को क़ानून बनाने की तैयारी चल रही है, असम और स्थानीय लोगों के मन में यह डर गहराता जा रहा है कि एक तबके के लोगों को नागरिकता देने से हालात पहले से बदतर होंगे। 

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 2016 के विधानसभा चुनाव के समय बीजेपी ने विदेशी प्रवासियों से जाति, माटी और भेटी (अस्मिता, जमीन और घरद्वार) की रक्षा का वायदा किया था।

गै़ैरक़ानूनी प्रवासी कानून 2006 को ख़त्म करते समय सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि असम, बांग्लादेश से बडी संख्या में आए ग़ैरक़ानूनी प्रवासियों की वजह से बाहरी आक्रमण और आंतरिक अव्यवस्था, दोनों झेल रहा है। तब धर्म के आधार पर भेद-भाव नहीं किया गया था। तब मौजूदा मुख्य मंत्री सरबानंद सोनोवाल ने सुप्रीम कोर्ट में याचजिका दायर की थी जो उस वक़्त असम गण परिषद के सांसद थे। अब यह सरकार का उत्तरदायित्व है कि वो असम के लोगों को समझाएँ कि नागरिकता क़ानून से स्थानीय निवासियों को कोई ख़तरा नहीं होगा। 

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