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आख़िरकार कांग्रेस के साथ समझौता नहीं कर सके केजरीवाल

आख़िरकार कांग्रेस के साथ समझौता नहीं कर सके केजरीवाल

आम आदमी पार्टी ने पूरी कोशिश की कि लोकसभा चुनाव 2019 के लिए कांग्रेस के साथ उसका समझौता हो जाए। लेकिन कांग्रेस के ना कह देने से गठबंधन की संभावनाएँ ख़त्म हो गईं हैं।

एक बंदे से किसी ने पूछा कि तुम शादी क्यों नहीं कर लेते। इस पर उसने जवाब दिया कि शादी के लिए फ़िफ़्टी परसेंट हाँ हो गई है। इस पर दूसरे आदमी ने पूछा कि ऐसा कैसे, तो जवाब मिला कि मेरी तरफ़ से हाँ है, बस उधर से हाँ होनी बाक़ी है। जैसे ही उधर से हाँ होगी, मैं शादी कर लूँगा। दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) पिछले छह महीने से कांग्रेस के साथ इसी तरह का फ़िफ़्टी परसेंट का गठबंधन करते हुए राजनीति कर रही थी। अब पार्टी चीफ़ अरविंद केजरीवाल ने मान लिया है कि उधर से ना हो गई है। यानी जो फ़िफ़्टी परसेंट संभावना थी, वो भी ख़त्म हो गई है। उन्होंने माना है कि ‘आप’ ही समझौते के लिए लालायित थी।

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दोनों दलों के अपने-अपने तर्क

‘आप’ दिल्ली में कांग्रेस से समझौते से संबंधित ख़बरें खु़द ही प्लांट करा रही थी और साथ ही यह भी साबित करने की कोशिश कर रही थी कि दिल्ली में कांग्रेस इतनी ताक़तवर नहीं है कि वह एक भी सीट जीत सके। ‘आप’ के मुताबिक़, अगर कांग्रेस चुनाव में अकेले उतरेगी भी तो वोट काटने वाली पार्टी के रूप में ही उतरेगी। जब कांग्रेसियों ने इसका जवाब दिया कि अगर ‘आप’ जीत भी गई तो उसका कोई मतलब नहीं होगा क्योंकि ‘आप’ किसी भी तरह से केंद्र में सरकार बनाने में भागीदार नहीं बन सकती। अगर राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री बनाना है तो फिर कांग्रेस को ही वोट देना होगा। इस तर्क के जवाब में ‘आप’ ने यहाँ तक कह दिया कि वोट हमें ही दो, अगर ऐसी स्थितियाँ बनीं तो हम राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए समर्थन दे देंगे।

‘आप’ समझौते की अफ़वाहें फैलाकर लगातार यही भ्रम फैलाने की कोशिश करती रही कि कांग्रेस से बातचीत चल रही है या फिर कांग्रेस की तरफ़ से इसलिए कोशिशें हो रही हैं क्योंकि कांग्रेस अपने आपको कमजोर मान रही है।

समझौते को लेकर भ्रम फैलाकर ‘आप’ कांग्रेसियों का मनोबल तोड़ने का काम भी कर रही थी। मगर, कोई व्यक्ति कितना भी समझदार बनने की कोशिश करे या फिर दावा करता हो कि वह सबसे चालाक है, वह कभी एक न एक सबूत ऐसा छोड़ ही जाता है कि उसकी असलियत सबके सामने आ जाती है। इस मामले में भी ऐसा ही हुआ है।

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  • ‘आप’ के सर्वेसर्वा अरविंद केजरीवाल ने आख़िर मीडिया के सामने मान ही लिया कि ‘आप’ कांग्रेस के साथ समझौता करना चाहती थी। भले ही वह कोई भी कारण बताएँ और कहें कि वह देश के भले के लिए ऐसा करना चाहते थे लेकिन यह सच्चाई है कि पिछले कई महीनों से वह ख़ुद ही समझौते के लिए जोर लगा रहे थे।

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‘आप’ को भी पता है कि वह कितना भी जोर लगा ले लेकिन अगर दिल्ली में कांग्रेस चुनाव मैदान में है तो फिर उसका जीतना आसान नहीं है। पिछले लोकसभा चुनाव में दिल्ली में ‘आप’ सातों सीटों पर दूसरे नंबर पर रही थी और उसे हराने का काम कांग्रेस ने ही किया था। दिल्ली में ‘आप’ तभी जीत सकती है जब कांग्रेस शून्य हो जाए। 

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एमसीडी चुनावों में बदली तस्वीर

पिछले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को 15 फ़ीसदी वोट मिले थे। बीजेपी को 46 और आप को 33 फ़ीसदी वोट मिले थे। तब से अब तक हालात काफी बदल चुके हैं। 2017 में हुए नगर निगम चुनावों में तस्वीर काफ़ी बदल गई। बीजेपी ने तीनों एमसीडी पर क़ब्जा किया और उसका वोट प्रतिशत था 36 जबकि आप को 26 और कांग्रेस को 21 फ़ीसदी वोट मिले। इस हिसाब से कांग्रेस बहुत ज़्यादा पीछे नहीं थी। यह बात और है कि एमसीडी में सीटों के मामले में ‘आप’ काफ़ी पिछड़ गई थी। इस हिसाब से कांग्रेस ने ‘आप’ से अपना वोट बैंक वापस ले लिया था।

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  • एमसीडी चुनाव के परिणाम से ज़ाहिर है कि ‘आप’ को अगर दिल्ली की लोकसभा सीटें जीतनी हैं तो कांग्रेस के बिना उसकी दाल नहीं गल सकती। यही वजह है कि वह एक तरफ़ कांग्रेस के साथ दोस्ती की पींगें बढ़ाने का सपना देख रही थी तो दूसरी तरफ़ अंदर ही अंदर कांग्रेस को कमजोर करने की कोशिश कर रही थी।

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31 सीटों पर समझौता चाहती थी 'आप' 

सवाल दिल्ली की सात सीटों का ही नहीं है। ‘आप’ समझौते के लिए सिर्फ़ दिल्ली में ही रुकने वाली नहीं थी। ‘आप’ इस मामले में अपने आपको ‘डिक्टेट’ करने वाली स्थिति में खड़ा करना चाहती थी। वह चाहती थी कि कांग्रेस को वह दिल्ली में अपनी शर्तों पर समझौता करने के लिए मज़बूर करे। इसके बदले ‘आप’ चाहती थी कि पंजाब की 13 सीटों पर भी कांग्रेस उसके साथ समझौता करे और हरियाणा की दस सीटों पर भी। चंडीगढ़ की एक सीट पर भी वह सौदेबाजी करना चाहती थी। इस तरह मामला दिल्ली की सात सीटों पर नहीं बल्कि कुल 31 सीटों पर पहुँच गया था।

अगर सच्चाई देखें तो बेशक दिल्ली में ‘आप’ कांग्रेस की तुलना में कहीं बेहतर स्थिति में है। मगर, पंजाब और हरियाणा में उसका वजूद संदेह के घेरे में है। पंजाब में तो उसके तंबू उखड़ चुके हैं और ऐसा लग रहा है कि उसका कोई वली-वारिस ही नहीं है।

जींद उपचुनाव से क्यों पीछे हटी ‘आप’?

केजरीवाल एंड कंपनी पिछले एक साल से हरियाणा में लगातार चक्कर लगा रही है और मुहल्ला क्लीनिक तथा स्कूलों के नाम पर खट्टर सरकार को कटघरे में खड़ा कर रही है लेकिन हरियाणा में उसका अपना वजूद क्या है, यह खु़द उसे भी पता नहीं है। अगर वह अपने आपको मज़बूत मानती तो फिर जींद उपचुनाव में ज़रूर अपना उम्मीदवार उतारती लेकिन वह ऐसा नहीं कर सकी। 

यह सवाल लाजिमी है कि दिल्ली, पंजाब और हरियाणा में ‘आप’ के साथ समझौता करके कांग्रेस अपने पाँवों पर क्यों कुल्हाड़ी मारे और इन राज्यों में ‘आप’ को खड़े होने की ताक़त क्यों दे?

कांग्रेस के लिए ‘आप’ के साथ समझौता करना इसलिए भी आसान नहीं है क्योंकि तीनों ही राज्यों में स्थानीय इकाइयाँ ऐसे किसी भी समझौते का विरोध कर रही हैं। दिल्ली में अजय माकन ने तो मुखर होकर कह दिया था कि ऐसा कोई समझौता हो ही नहीं सकता। 

  • बहुत से लोगों को लगता था कि माकन के जाने के बाद और शीला दीक्षित के आने के बाद कांग्रेस और ‘आप’ में समझौते की संभावनाएँ बन सकती हैं लेकिन प्रदेश कांग्रेस के नेताओं का मूड भाँपने के बाद शीला भी समझौते को नकारती रहीं और सिर्फ़ राहुल गाँधी के निर्देश का ही पालन करने की बात कहती रहीं हैं।

कैप्टन की ना, हरियाणा में बिखरी हुई है कांग्रेस

बात पंजाब की करें तो कैप्टन अमरेंद्र सिंह ने सख़्ती से कह दिया है कि पंजाब में तो ‘आप’ ख़त्म होती जा रही है, ऐसे में समझौते का सवाल ही नहीं है। जहाँ तक हरियाणा की बात है तो वहाँ कांग्रेस ख़ुद ही इतनी बिखरी हुई है कि कोई एक नेता यह दावा नहीं कर सकता कि समझौते का पक्ष लिया जाए या फिर विरोध किया जाए। भूपेंद्र सिंह हुड्डा, अशोक तंवर, रणदीप सुरजेवाला और कुमारी शैलजा में से कौन हरियाणा का लाल बनेगा, कांग्रेस ख़ुद ही यह फैसला नहीं कर पा रही। ऐसे में समझौते जैसा सवाल वरीयता में कहीं टिकता ही नहीं है।

राहुल नहीं आए रैली में 

केजरीवाल दिल्ली में विपक्षी एकता के वाहक के रूप में खड़े होना चाहते हैं। दिल्ली में सारे विपक्षी दलों को एक करने के पीछे उनकी एक मंशा यह भी थी कि राहुल गाँधी के साथ मंच साझा करेंगे लेकिन राहुल ‘आप’ की रैली में आए ही नहीं। राहुल विपक्ष की मीटिंग में ज़रूर पहुँचे लेकिन वहाँ उन्होंने ‘आप’ के साथ किसी समझौते से इनकार कर दिया। यहाँ तक कि ममता बनर्जी और चंद्रबाबू नायडू के जोर देने पर भी वह नहीं माने क्योंकि उन्हें पता है कि तीनों ही राज्यों में प्रदेश इकाइयों को शांत करना मुश्किल हो जाएगा।

वैसे भी, इस तर्क में काफ़ी दम है कि कांग्रेस ने यूपी और बिहार में समझौते की राजनीति की तो वहाँ से उसका सफाया हो गया। उससे सबक न लेना भी एक बेवकूफी होगी। अब केजरीवाल इस उधेड़बुन में होंगे कि ‘आप’ को 2019 के लोकसभा चुनाव में दिल्ली में एंट्री कैसे मिल पाएगी। उनके लिए अब दिल्ली भी दूर होती जा रही है।

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