चुनावी बॉन्ड से ज़्यादा चर्चा केजरीवाल की गिरफ्तारी पर क्यों?
जिस दिन भारतीय स्टेट बैंक ने अदालती डाँट-फटकार के बाद गोपनीय कोड का मिलान करके चुनावी बॉन्ड के लाभार्थियों के नाम जारी किए, जिसमें कई सौ करोड़ रुपए का चन्दा बेनामी ही रहा, उस दिन ही दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल का गिरफ़्तार होना संयोग हो सकता है। उससे पहले अदालत ने उनकी कोई अर्जी ठुकराई थी जिससे गिरफ़्तारी संभव थी और प्रवर्तन निदेशालय नौ समन भेजकर गिरफ़्तारी की भूमिका ही नहीं, तैयारी भी कर चुका था। और जो अरविन्द केजरीवाल और उनके वकील बार बार यही पूछते रहे थे कि उनको समन ‘गवाही’ के लिए दिया जा रहा है या ‘आरोपी’ के तौर पर, उन्हें निदेशालय ने दिल्ली शराब घोटाले का मुख्य साजिशकर्त्ता बताकर अदालत से हिरासत मांगा और मिल गया। यह कहानी का एक हिसाब है और इसमें संयोग और प्रयोग दोनों का घालमेल है। पर जिस तरह से इस गिरफ़्तारी ने चुनावी बॉन्ड के हजारों करोड़ के मामले के श्वेत-श्याम पक्षों की चर्चा को पीछे छोड़ दिया वह संयोग नहीं है। बॉन्ड वाली कथा के विभिन्न पक्षों को कई अख़बार, साइट और विपक्षी दल के रणनीतिकार बार बार उजागर करके भाजपा को घेरना चाहते हैं तो भाजपा और सरकार का तंत्र इसे अब भी परदे के पीछे घसीट लेने का प्रयास जारी रखे हुए है।
और उसकी कोशिशों से भी ज्यादा केजरीवाल कांड हर चर्चा में ज्यादा प्रभावी होकर इस मसले को दूसरे स्थान पर धकेल रहा है। चुनावी बॉन्ड का लाभ पाने वालों की सूची जाहिर होने से यह भी पता चला कि जिस समूह का नाम इस घोटाले में आ रहा है उसने भाजपा को भी चंदा दिया- वह भी इडी और सरकारी धर-पकड़ वाले दबाव के बाद दिया। लेकिन यह जानकारी भी भाजपा को बैकफूट पर लाने में ज्यादा सफल नहीं है। किसी मुख्यमंत्री द्वारा जेल से सरकार चलाने का मामला ऐसा है ही।
ज्यादा चर्चा अरविन्द और उनके साथियों के इस कथित घोटाले और उनके छल वाले चरित्र की हो रही है तो इसके बहुत ठोस कारण हैं। भले ही भ्रष्टाचार खत्म करने और कालाधन समाप्त का वायदा अकेले उनका न हो (नरेंद्र मोदी ने तो विदेश से धन लाकर हर मतदाता के खाते में 14-15 लाख रुपए डालने का वायदा भी किया था) लेकिन उनकी पूरी राजनीति बड़े उच्च नैतिक भाव-भंगिमा वाली रही है, उनके निजी ढोंग भी बहुत सारे रहे हैं और सबको दिख गए हैं। केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं जिससे वे चौबीसों घंटे और तीन सौ पैंसठ दिन मीडिया की नजर में रहते हैं। उनका कुछ भी छुपा नहीं है और जो छुपाने की कोशिश करते हैं उसे उनके विपक्षी भाजपा के कार्यकर्त्ता से लेकर उप राज्यपाल और ईडी तक उजागर करने की कोशिश करते हैं।
लेकिन इन सबके बावजूद अगर वे हथियार डालने को तैयार नहीं हैं और नरेंद्र मोदी से लेकर नरेंद्र टंडन की हर तरह की ताक़त के खिलाफ भी डटे हैं तो इसकी वजह उनका अपना व्यक्तित्व, काम और उनकी सरकार के अपेक्षाकृत बेहतर रिकॉर्ड के साथ मोदी सरकार और भाजपा की विपक्ष को मटियामेट करने की नंगी नीति भी है। चुनाव पास आने पर इसमें और तेजी आ गई है।
अगर आधा दर्जन विपक्षी राज्य सरकारों को साम-दाम-दंड=भेद के जरिए गिरा दिया जाए, लगभग हर दल में टूट करा दी जाए, विपक्ष के हर प्रमुख नेता और उसके सहयोगियों के खिलाफ ईडी समेत केन्द्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल हो, पार्टी बदल कर भाजपा में शामिल हो जाने वाले भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ जांच और सुनवाई सुस्त पड़ जाए, की लोग बेदाग छूट जाएं, हजारों करोड़ रुपए लेकर भागे लोगों के खिलाफ ईडी की कोई कार्रवाई न दिखे तब अरविन्द केजरीवाल जैसी गिरफ़्तारी ज्यादा बड़ा मुद्दा बनेगी ही।
हेमंत सोरेन के बाद दूसरे मुख्यमंत्री का जेल जाना सामान्य बात नहीं है- और हेमंत तो जमीन की रजिस्ट्री के घोटाले में गए हैं जो आम तौर पर पटवारी के निपटाने का मामला होता है।
अरविन्द केजरीवाल का मामला ज्यादा ऊपर आने और देश विदेश में भी चर्चित होने (जर्मनी की प्रतिक्रिया भारत सरकार को पसंद नहीं आई) के पीछे उनकी सांगठानिक शक्ति भी है। उनके भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के हजारों आदर्शवादी युवा-युवतियाँ उनके बाद के कामकाज और आचरण से निराश होकर अपनी पुरानी दुनिया में लौट चुके हैं लेकिन अभी भी उनके समर्थकों और कार्यकर्त्ताओं की संख्या कम नहीं है। फिर दो राज्य सरकारें बनने और चलाने से ‘लाभार्थियों’ और लाभ के इच्छुकों की भी फौज स्वाभाविक तौर पर जुटी है। सरकारों, खासकर, दिल्ली सरकार के कामकाज का रिकॉर्ड भी केजरीवाल को ताक़त दे रहा है। शिक्षा और स्वास्थ्य ही नहीं, बिजली-पानी के रेट के मामले में भी केजरीवाल बगल के राज्यों की भाजपा सरकारों समेत केंद्र पर भी दबाव बनाए हुए हैं। और यह सब केंद्र सरकार और उसके एजेंट की तरह काम करने वाले उप राज्यपालों के निरंतर बाधा खड़ी करने के बावजूद हुआ है। दिल्ली की सरकार शक्तियों के मामले में वैसे भी पंगु है और अरविन्द भी मिलकर काम करने की शीला दीक्षित की शैली से उलट टकराव लेते हुए ही काम करते हैं। विधानसभा चुनावों में तीन बार और स्थानीय निकाय चुनाव में एक बार भाजपा को पटखनी देने से भी उनको ताक़त मिली है जबकि दो बार लोकसभा का चुनाव जीतकर भाजपा भी आक्रामक रही है।
केजरीवाल सरकार ने शराब नीति के मामले में घालमेल किया है, यह प्रथम दृष्टया लगता है। पर वही कंपनी ‘पकड़े’ जाने पर भाजपा को चार गुना चन्दा क्यों देती है, यह सवाल भी जुड़ा ही हुआ है। और शराब से कौन शासक पार्टी पैसा नहीं बना रही है। शराब कंपनियाँ योगी सरकार की नीतियों को क्यों सबसे ज्यादा पसंद करती हैं। इन सवालों के साथ यह भी जुड़ा है कि अरविन्द केजरीवाल द्वारा पैसा बनाने का कोई मामला सामने नहीं आया है- चुनावी चंदे की वसूली और खर्च के मामले में उन्होंने पारदर्शिता का अपना वचन तोड़ा है लेकिन निजी भ्रष्टाचार का मामला सामने नहीं आया है। और फिर इस मामले में ईडी या भाजपा (क्योंकि ईडी के समन से पहले भाजपा के लोग खुले तौर पर सक्रिय हो जाते थे, बाद में तो सक्रिय रहते ही हैं) की तरफ से जितनी बातें सामने आई हैं उनमें ठोस प्रमाण से ज्यादा झोल दिखाई देते हैं। दो साल से ज्यादा की मुस्तैदी के बावजूद ईडी अभी तक पैसे के लेन-देन का कोई प्रमाण नहीं ला पाई है। मनीष सिसोदिया को साल भर से ज्यादा समय से जेल में रखने के बावजूद मुकदमा भी शुरू नहीं हो पाया है। इन सबसे लगता है कि इस मामले का जितना रिश्ता भ्रष्टाचार से है उससे ज्यादा विपक्ष को घेरने, राजनैतिक प्रतिद्वंद्वियों को उलझाने और बदनाम करने और चुनाव जीतने की बड़ी योजना से है। इसीलिए इसकी चर्चा चुनावी बॉन्ड से भी ज्यादा हो रही है।