कुछ समय से चल रही आशंकाओं और अनिश्चितताओं का संसद ने विधिवत निर्मूलन कर दिया है। संविधान के अनुच्छेद 370 में समूल परिवर्तन कर उसका प्रयोजन ही समाप्त कर दिया गया। वैसे राष्ट्रपति महोदय के आदेश 2019 के बाद अनुच्छेद 370 में कुछ बच नहीं गया था। पर सांकेतिक कारणों से उसका समापन भी आवश्यक था। जब वचन दिया था कि अनुच्छेद 370 ख़त्म करेंगे तो वचन का पालन भी होना चाहिए था और हो भी गया। पर इन दो दिनों में टीवी चैनलों और वेबसाइट पर एक अजीब सा वैचारिक द्वन्द्व दिखा। समझ नहीं आ रहा था कि इस कार्य की प्रशंसा करें या विरोध
इस देश का मीडिया अपने सर्वविदित स्थान पर बना रहता है और आप किसी चैनल या वेबसाइट खोलने के पहले ही अनुमान लगा सकते हैं कि वे क्या कहने वाले हैं। जो चैनल जिन्हें कुछ लोग प्यार से 'गोदी मीडिया' कहते हैं, उन्होंने अपना फ़र्ज़ बख़ूबी निभाया। वे लगे रहे। यहाँ तक कि अनुच्छेद 370 हटाने या यूँ कहें बदलने का प्रस्ताव संसद के पटल पर आने के पहले ही उसके ख़त्म होने की घोषणा कर दी। क़ानून के विषय पर उनकी निरक्षरता अपने चरम पर रही। जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन के प्रस्ताव को ही अनुच्छेद 370 का अन्त मान लिया गया।
सेक्युलर मीडिया की समस्या
मुख्य समस्या थी तथाकथित सेक्युलर मीडिया में, जिन्हें प्यार से भक्त 'खानपुर मार्केट गैंग' बुलाते हैं । उन्हें समझ नहीं आया कि हमला किधर से किया जाय पहले तो इन लोगों ने कहा कि अनुच्छेद 370 और 35 'ए' हट नहीं सकता। कुछ पुराने कोर्ट के निर्णय भी हैं जिनसे ऐसा लगता है कि अनुच्छेद 370 हटाना नामुमकिन तो नहीं, पर मुश्किल ज़रूर होगा। लेकिन भारत सरकार ने उन निर्णयों की चिन्ता करने में अपना समय व्यर्थ ना कर सीधे संवैधानिक तख़्ता पलट करते हुए जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जे के राज्य से दो विभाजित केंद्र शासित प्रदेश बना दिए। यह अप्रत्याशित था, जैसे परीक्षा में सवाल सिलेबस से बाहर का पूछा गया हो।
मुश्किल में थिंकटैंक
मीडिया और राजनीति के थिंकटैंक की अनुच्छेद 370 पर बोलने की कुछ तैयारी तो थी, पर यह राज्य का विभाजन यह तो बीजेपी के मैनिफ़ेस्टो में नहीं था। फिर लद्दाख़ के युवा सांसद ने लोकसभा में बताया कि लद्दाख़ को केंद्र शासित प्रदेश बनाना उनके स्थानीय मैनिफ़ेस्टो में था और वे इसलिए जीत कर आये हैं कि लोगों ने केंद्र शासित प्रदेश के मुद्दे पर उन्हें वोट दिया है।
इस मीडिया ने कभी संविधान की प्रक्रिया तो कभी मानवाधिकारों के हनन की बातें कीं। सही है कि कश्मीर में कर्फ़्यू लगा है, टेलिफ़ोन, इंटरनेट बंद हैं। पर इसके लिए सिर्फ़ सरकार अकेले ही ज़िम्मेवार नहीं कही जा सकती। कश्मीर की घाटी में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद दशकों से फल-फूल रहा है और इस तनाव की स्थिति का वह पूरा फ़ायदा उठाने की ताक में है।
सरकार विरोधी मीडिया यह तय नहीं कर पा रहा कि कश्मीर के संवैधानिक समस्या को उठाया जाय या क़ानून व्यवस्था और कर्फ़्यू की बात करे।
कश्मीर में बंद और कर्फ़्यू आम बात है। जो ख़ास हुआ है वह है संवैधानिक व्यवस्था में परिवर्तन। मीडिया को सिर्फ़ इसी पर फ़ोकस करना चाहिए था।
कैसे बुलाएँ हरि सिंह को!
सरकार के आलोचक मीडिया ने सर्वप्रथम यह तर्क दिया था कि अनुच्छेद 370 हटने के बाद जम्मू-कश्मीर भारत का रह ही नहीं पाएगा। राजा हरि सिंह ने अनुच्छेद 370 के कारण ही भारत में विलय को राज़ी हुए थे। यह बात सही लगती भी है। पर मुसीबत यह है कि आज राजा हरि सिंह और अन्य कोई व्यक्ति जो अनुच्छेद 370 से सम्बंधित रहा हो, दुनिया में नहीं है और उनको टीवी डिबेट पर बुलाया नहीं जा सकता। मीडिया को अपने अनुसार इतिहास की व्याख्या करने की पूरी छूट मिल गयी।
नया समीकरण
कहावत है कि ज़हर का इलाज ज़हर से ही होता है। कश्मीर को 35 'ए' एक चोरी छिपे तरीक़े से बग़ैर संसद में चर्चा किए मिल गया था। ठीक उसी तरह बग़ैर किसी चर्चा के राष्ट्रपति ने उसे हटा भी लिया। जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा तो कब की ख़त्म हो चुकी है। विधानसभा भंग है तो फिर महामहिम राज्यपाल ने विधान सभा के बदले अपनी ही सहमति दे दी।
एक नये गणित का उदय हुआ जिसमें 'संविधान सभा = विधान सभा = राज्यपाल= जम्मू कश्मीर सरकार' का समीकरण देश को समझा दिया गया। यहीं पर संवैधानिक नैतिकता और शुचिता की बात खड़ी होती है।
संविधान सभा की जगह विधान सभा को माना जा सकता है। भारत की संविधान सभा के सारे अधिकार अब लोकसभा के पास हैं। पर विधानसभा की जगह राज्यपाल ले सकते हैं, ऐसी कोई भी व्यवस्था क़ानूनी रूप से सही नहीं लगेगी। क़ानूनी रूप से अगर सही भी है तो नैतिक रूप से सही नहीं कहा जाएगा। क्रिकेट में गेंदबाज़ के छोर पर अगर बल्लेबाज़ अपनी क्रीज़ से आगे निकल जाय तो गेंदबाज़ उसे रन आउट कर सकता है। क़ानूनी रूप से सही भी है, पर उसे हमेशा खेल भावना के विपरीत ही माना जाता है।
हंगामा क्यों है बरपा
एक और बात जो समझ में आ रही है वह है अनुच्छेद 368, जिसमें संविधान संशोधन की शक्तियाँ हैं, उसका इस्तेमाल तक ही नहीं हुआ। अनुच्छेद 370 के प्रावधानों से ही 370 को निष्प्राण कर दिया गया है। बहुत से विद्वान जो दो तिहाई बहुमत इत्यादि की बात कर रहे थे, वे सदमे में हैं। जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन वाला बिल भी संविधान के अनुच्छेद 3 की मदद से सिर्फ़ साधारण बहुमत से पारित हो गया। इस अनुच्छेद के अनुसार जिस राज्य की सीमाएँ प्रभावित हो रही हैं, उस राज्य की अनुशंसा लेनी पड़ती है। पर उसको मान लेना राष्ट्रपति के लिए आवश्यक नहीं है जैसा कि आँध्र प्रदेश के विभाजन के समय हुआ। यहाँ पर यह देखने वाली बात है कि आंध्र प्रदेश के न चाहने पर भी उस राज्य का विभाजन हुआ। उस समय मीडिया में क्यों हंगामा नहीं था। वही चीज़ अब कश्मीर के साथ हो रहा है तो हंगामा क्यों
जंग और प्यार में सब जायज़
भारत की बहुत बड़ी आबादी में अनुच्छेद 370 के जाने का जश्न है और इसमें सभी प्रदेश, जाति, धर्म के लोग हैं। यह सभी जानते हैं कि सही हुआ, पर इसे बेहतर तरीक़े से किया जा सकता था। आश्चर्य तो इस बात का है कि कुछ वामपंथी और घोर बीजेपी विरोधी पार्टियों को छोड़ कर सभी अनुच्छेद 370 और 35 'ए' को हटाने के पक्ष में रहे। कुछ ने विरोध तो किया पर मतदान के समय वॉक आउट करके सरकार की राह आसान कर दी।
क्या सचमुच भारत की जनता कश्मीर के अलगाववाद और आतंकवाद से ऊब चुकी है और मान बैठी है कि अनुच्छेद 370 और 35 'ए' हटाना एक मात्र विकल्प रह गया था अगर ऐसा नहीं है तो फिर संविधान में इस तरह से प्रयोग करके अपने निहित लक्ष्य को प्राप्त करने के सरकार के तरीक़े पर उतनी आपत्तियाँ दर्ज नहीं हुईं, जितनी होनी चाहिए थीं।
अनुच्छेद 370 हटाने वालों का मानना है कि इस अनुच्छेद का दुरुपयोग हुआ और अलगाववादी शक्तियों को बढ़ावा मिला। दशकों से जंग जैसे हालात हैं। सैनिक और नागरिक सभी मारे जा रहे हैं। यथास्थिति बनाए रखने का औचित्य नहीं है। परिवर्तन आवश्यक है। उन्हें लगता है कि अनुच्छेद 370 हटने से सारी समस्या हल हो सकती है और कश्मीर भारत के और क़रीब होगा। देश उन्हें ऐसा करने की अनुमति दे रहा है। अब इसमें क्या नैतिक और क्या अनैतिक जंग और प्यार में सब जायज़ है।