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क्या हिन्दी के अखबार ‘सिर्फ’ विज्ञापन दे रहे हैं?

क्या हिन्दी के अखबार ‘सिर्फ’ विज्ञापन दे रहे हैं?

हिन्दी के अखबार अब खबरों, सूचनाओं के लिए नहीं बल्कि विज्ञापनों के लिए छापे जा रहे हैं और पाठक उसे पढ़ रहे हैं। विज्ञापनों की लालच ने हिन्दी अखबारों के संपादकों को बौना बना दिया है। बहुत अजीबोगरीब हालात हैं। आखिर पाठक कब समझदार होंगे।

हिन्दी पट्टी का एक ‘बड़ा’ अखबार जिसे, स्वतंत्रता संघर्ष के चरम पर संभवतया जन-‘जागरण’ के उद्देश्य से शुरू किया गया था, आज हिन्दी पट्टी के करोड़ों भारतीयों की चेतना को हमेशा के लिए सुलाने में प्रतिबद्ध नजर आ रहा है। देश का यह सबसे बड़ा हिन्दी अखबार सत्ता के पीछे-पीछे चलने में मगन है। ऐसा करने के लिए इसके अपने कारण भी हैं। 

हांडी के एक चावल की तर्ज पर इस ‘बड़े’ अखबार के प्रमुख लक्षणों को जानने के लिए शनिवार, 14 मई का अखबार का ही विश्लेषण कर लें तो तथ्य और साजिश दोनों साफ नजर आने लगते हैं। 14 मई के इस अखबार के लखनऊ अंक (एडिशन) में लखनऊ परिशिष्ट के 4 पेज छोड़ दिए जाएँ तो लगभग 20 पेज का पेपर आपके हाथ में आएगा। 

7 रुपए का यह 20 पेज का अखबार ऐसा लगेगा कि मानों आपने इसे खबरों के लिए नहीं विज्ञापन देखने के लिए खरीदा है। 20 पन्नों के इस अखबार में जहां जहां छपाई की गई है वह एरिया लगभग 30 हजार स्क्वायर सेंटीमीटर का है। इस 30 हजार में खबरें भी हैं और विज्ञापन भी हैं। 

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इस अखबार के 3 पन्ने ऐसे हैं जिनमें 100% विज्ञापन हैं अर्थात कोई खबर नहीं है। 11 पेज ऐसे हैं जिनमें लगभग 70 फीसदी या इससे अधिक एरिया सिर्फ विज्ञापन से ही भरा गया है अर्थात मात्र 30 प्रतिशत ही खबरें हैं। 10 पन्ने ऐसे हैं जिनमें 75% या इससे अधिक का विज्ञापन क्षेत्र कवर किया गया है अर्थात लगभग आधा अखबार ऐसा है जहां हर पन्ने पर तीन चौथाई विज्ञापन हैं और खबरों के लिए मात्र एक चौथाई जगह है। 

पूरे अखबार में संपादकीय पन्ने को छोड़कर सिर्फ एक पन्ना ऐसा है जिसमें कोई विज्ञापन नहीं है। हालत इतनी खराब है कि 20 पन्नों के अखबार में मात्र 4 पन्ने ही ऐसे हैं जिनमें 40% से कम विज्ञापन हैं। बाकि 16 पन्ने ऐसे हैं जिनमें 40% या इससे अधिक का विज्ञापन है। सम्पूर्ण अखबार के औसतन 61% छपाई योग्य हिस्से में विज्ञापन ही विज्ञापन हैं। 

14 मई को इस अखबार को मिले कुल विज्ञापन का 35% हिस्सा सरकारी क्षेत्र से आया और और बचा 65% हिस्सा निजी कंपनियों द्वारा प्रदान किया गया है। इतना ही नहीं अखबार को खोलते समय पाठक को धैर्य का परिचय देना होता है। क्योंकि शुरुआती पन्नों में विज्ञापन के अलावा और कुछ नहीं दिखाई देगा। उदाहरण के लिए पहला पन्ना-100% विज्ञापन, दूसरा- 75% विज्ञापन, तीसरा पन्ना फिर से 100% विज्ञापन से भरा मिलेगा।

अखबार की शुरुआत और उसका अंतिम पन्ना दोनों ही 100% विज्ञापन से भरे हुए हैं। खबरों की गुणवत्ता के लिहाज से यह अखबार अत्यंत दयनीय/गरीब हालत में है। गरीबी इतनी अधिक है कि इसे ‘अंत्योदय’ योजना का लाभ मिलना चाहिए सिर्फ बीपीएल से काम नहीं चलेगा। लगभग 100 छोटी बड़ी खबरों के इस अखबार में सरकार की आलोचना की एक भी खबर नहीं है। 

ऐसी कोई खबर नहीं है जो केंद्र की मोदी सरकार व यूपी की योगी सरकार के खिलाफ एक शब्द भी कहती हो। हाँ ऐसी दसियों खबरें हैं जिनमें कॉंग्रेस समेत तमाम विपक्ष की आलोचना आपको जरूर मिल जाएगी। 100 खबरों में विपक्ष और आलोचना के नाम पर समाजवादी पार्टी के मुखिया और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का एक बयान भर है। यह खबर भी 200 शब्दों का आंकड़ा नहीं छू पाई है। 20 पन्नों के अखबार में विपक्ष और आलोचना के लिए 200 से भी कम शब्द! भरोसे के साथ नहीं कह सकती हूँ कि यह कोई अखबार है भी कि नहीं! 

एक समय माना जाता था कि अखबार कितना भी छोटा या कितने भी कम सर्क्युलेशन का क्यों न हो उसके संपादकीय को जरूर पढ़ना चाहिए। संपादकीय बता सकता है कि जिस पन्ने को आप पढ़ रहे हैं वह अखबार है या मुखपत्र? जब देश में भुखमरी (116 देशों में 101वां स्थान) और बेरोजगारी अवसाद के स्तर तक पहुँच चुकी हो तब अखबारों का दायित्व है अपने संपादकीय के माध्यम से सरकार को आईना दिखाएँ। लेकिन जब किसी अखबार को अपने आधे से अधिक पेजों को तीन चौथाई विज्ञापनों से भरना हो तो सरकार की आलोचना करना संभव नहीं है। 

ऐसे में अगर किसी की आलोचना की जा सकती है तो वो है विपक्ष! इस ‘बड़े’ अखबार ने भी यही किया। उदयपुर राजस्थान में राष्ट्रीय कॉंग्रेस पार्टी का चिंतन शिविर चल रहा है, कॉंग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी के अलावा किसी और नेता का कोई भी भाषण अभी तक पब्लिक डोमेन में नहीं उपलब्ध है। ऐसे में संपादक ने ‘अंदाजे’ के आधार पर चिंतन शिविर और वहाँ चल रही गतिविधियों की आलोचना अपने संपादकीय में कर डाली। संपादक को परेशानी यह है कि सोनिया गाँधी क्यों भाजपा पर प्रश्न उठा रही हैं? 

‘विडंबना’ और ‘सीधा अर्थ’ जैसे निर्णयात्मक शब्दों का इस्तेमाल करके संपादक आधे से भी कम संपादकीय लिखते-लिखते इस निर्णय तक पहुँच गए कि ‘गाँधी परिवार अपनी पकड़ ढीली करने को तैयार नहीं’। संपादक सिर्फ यहीं नहीं रुका, वह और नीचे गिरा। एक पार्टी, और एक संगठन के एजेंडे को ठूँसते हुए कह पड़ा कि ‘वंशवादी राजनीति की..नींव जवाहरलाल नेहरू ने डाली’। 

संपादकीय को पढ़कर लगेगा मानों संपादक महोदय खिसियाए हुए हैं और किसी न किसी के खिलाफ कुछ न कुछ लिखने का एजेंडा लेकर ही कलम हाथ में उठाई थी। परंतु सरकार की आलोचना से विज्ञापन जाने और मुर्गा बन जाने का खतरा लगातार बना हुआ है इसलिए संपादक को कॉंग्रेस और गाँधी परिवार ही आलोचना के लिए बेहतर समझ में आए। वास्तव में यह संपादकीय नहीं एक मजाक है। यह लालच से उत्पन्न हुआ वह बौनापन है जिसे इस अखबार के नेतृत्व की नई पीढ़ी ने स्वयं अर्जित किया है।

वास्तविकता तो यह है कि चिंतन शिविर के मंच से कॉंग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी का भाषण वर्तमान सरकार की उन समस्याओं पर केंद्रित था जिससे आज पूरा भारत किसी न किसी रूप में या तो आहत है या फिर पीड़ित। प्रधानमंत्री और भाजपा की आलोचना में उनकी शालीनता ने कभी भी कुंडी नहीं तोड़ी सिर्फ सो रही सरकार का दरवाजा तेजी से खटखटाया है। कॉंग्रेस के अंदर की समस्याओं को स्वीकारते हुए उन्होंने ‘मिलकर’ काम करने पर जोर दिया। 

मुस्लिमों समेत सभी अल्पसंख्यकों की बात उन्होंने पुरजोर तरीके से रखी बिना इस बात की परवाह किए कि बीजेपी और उसकी आईटी सेल इस बयान पर ‘तुष्टीकरण’ का एजेंडा चला सकती है। वो बिल्कुल नहीं डरीं और निडरता से बिना राजनैतिक नफा-नुकसान की परवाह किए अल्पसंख्यकों के खिलाफ हो रहे अपराधों, साजिशों और शोषण के लिए मोदी सरकार को दोषी ठहराया। 

कॉंग्रेस इस चिंतन शिविर से क्या ले जाएगी; नहीं पता लेकिन संपादक महोदय को चाहिए था कि कम से कम वो एक संपादक की भांति संपादकीय लिखते । संपादकीय पृष्ठ पर ‘पाठकनामा’ और ‘ट्वीट-ट्वीट’ भी काफी ‘संयोग’ से बनाए गए हैं। इस पृष्ठ पर छापे गए तीन ट्वीट्स में से एक भी ऐसा नहीं है जो वर्तमान सत्ता प्रतिष्ठान की आलोचना करता हो। पाठकनामा में अखबार ‘ईसाई मिशनरी’ वाले पाठक के पत्र को शामिल कर लेता है। 

‘महंगाई’ की बात की गई है लेकिन ऐसे पाठक के पत्र को शामिल किया गया है जो इस महंगाई के लिए सरकार को नहीं यूक्रेन और रूस के युद्ध को जिम्मेदार ठहरा रहा है। जिस तरह के पाठकों के पत्रों को शामिल किया गया क्या यह महज ‘संयोग’ है? कोई भी पाठक अखबार पढ़कर यह आसानी से समझ सकता है कि यह अखबार और इसकी दशा, इसके मालिकों के लालच और भय का परिणाम है।

लालच और अधिक पाने का और भय सबकुछ खो जाने का।  करोड़ों की संख्या में पढे जाने वाले यह हिन्दी के अखबार महंगाई, बेरोजगारी और अल्पसंख्यकों के मुद्दों पर एक शब्द भी लिखने को तैयार नहीं है। भारत के भारतीयपन से खेल रहे ये अखबार लव-जिहाद जैसे मुद्दों पर ऊर्जा भरकर लिखते हैं लेकिन जैसे ही बात लिन्चिंग और अर्थव्यवस्था की बदहाल हालत की आती है यह सिमटकर एक कोना पकड़ लेते हैं। 

भारत की आजादी के 75 साल हो चुके हैं और वर्तमान प्रधानमंत्री ने अमृत महोत्सव का अभियान शुरू कर रखा है लेकिन यह अखबार कभी यह नहीं बताएगा कि भारत में इतना महंगा पेट्रोल, गैस सिलिन्डर कभी नहीं रहा। देश में और देश के बाहर युद्ध पहले भी हुए हैं लेकिन कभी भी सरकारों ने नागरिकों के कंधों पर इतना बोझ नहीं डाला। गर्मियों में 300 रुपये किलो नींबू और बेतहाशा बढ़ रहे हरी सब्जियों के दाम से भारतीय नागरिक इस अमृत महोत्सव के दौरान विष के घूंट पी रहा है। 

अखबारों की जिम्मेदारी थी कि सरकार को बताते कि जनता कष्ट में है, कुपोषण में है और कुपित है। अखबारों की जिम्मेदारी थी कि वो पन्नों के तीन चौथाई भागों पर रिपोर्टिंग करते, उनकी जिम्मेदारी थी कि वो इन हालातों में सरकार पर दबाव बनाते; लेकिन लालच और भय के उत्पाद के रूप में ये  अखबार वास्तव में वर्तमान भारत के साथ धोखा कर रहे हैं जिसकी कीमत इन्हे शायद नहीं मालूम।    

जब रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ने भारत को प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक-2022 में 150वीं रैंक दी तो बहुतों को तकलीफ हुई। एकपक्षीय विद्वता के माहिरों ने अमेरिका और यूरोप के अखबारों को कठघरे में खड़ा करना शुरू कर दिया। क्या भारतीय हिन्दी अखबार वाशिंगटन पोस्ट, द न्यूयॉर्क टाइम्स, NBC न्यूज़ और न्यू रिपब्लिक जैसे अखबारों से अपनी तुलना कर पाएंगे; जिन्होंने एथिकल दिशानिर्देशों की अवहेलना के चलते अपने तमाम बड़े पत्रकारों को संस्थानों से बाहर निकाल दिया। क्या यह अखबार ऐसी कोई रिपोर्टिंग  कर पाएंगे जैसी वाशिंगटन पोस्ट ने 70 के दशक में राष्ट्रपति निक्सन के खिलाफ वाटरगेट मामले में की थी जिसके बाद उन्हे पद छोड़ना पड़ा था। 

भारत में हफ्तों कोयले का संकट चलता रहा, यात्री ट्रेनों को रोक दिया गया, सरकार जिम्मेदारी लेने से भागती रही; किस बड़े अखबार ने इस मामले की रिपोर्टिंग की? अखबारों के पत्रकार तो सरकार से यह तक नहीं पूछ पाए कि किस आधार पर सरकार ने खुली संसद में यह कह दिया कि कोरोना में ऑक्सीजन की कमी से कोई नहीं मरा। ऑक्सीजन की कमी से कौन मरा यह तो मेडिकल जर्नल लैंसेंट से लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन की तमाम रिपोर्ट में दुनिया ने देख लिया। 

लाखों भारतीयों की कोविड के दौरान हुई मौतों को सरकार सिर्फ इसलिए पचा गई क्योंकि भारत में हिन्दी पट्टी के अखबारों ने पत्रकारिता का अंतिम संस्कार कई साल पहले कर दिया था; अब तो सिर्फ उनके जीवित रहने का मंचन चल रहा है। 

उसी मंचन की एक बानगी है यह हिन्दी अखबार। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि केदारनाथ अग्रवाल की कविता ‘साथी’ इस संदर्भ में उल्लेखनीय है- 

झूठ नहीं सच होगा साथी! 

गढ़ने को जो चाहे गढ़ ले 

मढ़ने को जो चाहे मढ़ ले 

शासन के सौ रूप बदल ले 

राम बना रावण सा चल ले   

झूठ नहीं सच होगा साथी! 

करने को जो चाहे कर ले 

चलनी पर चढ़ सागर तर ले 

चिउँटी पर चढ़ चाँद पकड़ ले 

लड़ ले एटम बम से लड़ ले   

झूठ नहीं सच होगा साथी!

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