योगी आदित्यनाथ को कहीं भारी न पड़ जाए ब्राह्मण समाज की नाराज़गी!
यूपी में पिछले चार-पाँच माह में क़रीब पाँच दर्जन ब्राह्मणों की हत्या हो चुकी है। सरकार की ‘ठोको नीति’ के चलते भी कई ब्राह्मण नौजवानों के एनकाउंटर कर दिए गए। दुर्दांत अपराधी विकास दुबे के निपट ‘फ़र्ज़ी’ एनकाउंटर से भी ब्राह्मणों में नाराज़गी है। हालाँकि कुछेक अपवाद छोड़ दिए जाएँ तो आतंकी विकास दुबे से किसी को कोई सहानुभूति नहीं है। लेकिन क़ानून और न्याय व्यवस्था को दरकिनार कर जिस तरह विकास दुबे और उसके साथियों की फ़र्ज़ी मुठभेड़ में हत्या की गई है, उससे निश्चित तौर पर ब्राह्मणों में तथा क़ानून और न्याय व्यवस्था में भरोसा करने वालों में नाराज़गी है। जाहिर है कि इस नाराज़गी का असर यूपी की राजनीति और राजनीतिक दलों पर पड़ना स्वाभाविक है।
हालाँकि यह भी सच है कि एनकाउंटर में दूसरी जातियों और धर्मों के बदमाश भी निशाना बने हैं। लेकिन ब्राह्मण तबक़े की बात अलग है। बीजेपी की नींव में ब्राह्मण रहे हैं। आज यूपी में बीजेपी सीधे तौर पर दो वर्चस्वशाली जातियों में विभाजित होती दिख रही है। इसके लिये आरोप योगी आदित्यनाथ पर लग रहे हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की राजनीतिक शुरुआत ही ठाकुर बनाम ब्राह्मण वर्चस्ववाद से होती है। पूर्वांचल में अच्छी ख़ासी ताक़त और दखल रखने वाले ब्राह्मण बाहुबली नेताओं की ताक़त और वर्चस्व को तोड़कर योगी आदित्यनाथ ने ठाकुरवाद के वर्चस्व को स्थापित किया। इसके बाद गोरखपुर और आसपास योगी आदित्यनाथ का एकछत्र दबदबा स्थापित हो गया।
2017 में समाजवादी पार्टी को हराकर दो-तिहाई बहुमत के साथ बीजेपी ने यूपी विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की। बीजेपी को यूपी में मुख्यमंत्री चुनने में काफ़ी लंबा वक़्त लगा। इसका कारण सिर्फ़ योगी आदित्यनाथ का दबाव था। कुछ पत्रकारों का दावा है कि योगी ने नरेन्द्र मोदी और तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को कड़ा संदेश दिया था कि अगर उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया तो वे बीजेपी को दो फाड़ कर देंगे। योगी आदित्यनाथ की यह धमकी या चेतावनी निराधार नहीं थी। योगी आदित्यनाथ पहले भी बीजेपी के समानांतर बतौर युवा हिन्दू वाहिनी अध्यक्ष यूपी में भिड़ चुके थे।
योगी आदित्यनाथ बीजेपी से भी अधिक कट्टर हिन्दूवादी राजनीति करने वाले माने जाते हैं। शायद यही कारण था कि मोदी और शाह ने संभवतया संघ के दबाव में योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाना स्वीकार किया। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि मोदी और योगी के बीच भी वर्चस्व को लेकर अंदरूनी तकरार है। लेकिन मोदी की ब्रांडिंग और चतुर रणनीतिक चालों के सामने योगी का सिक्का चलना आसान नहीं है।
अपने दूसरे कार्यकाल में नरेन्द्र मोदी ने सत्ता और पार्टी में नंबर दो पर अमित शाह को स्थापित करके योगी की महत्वाकांक्षा को झटका दिया है। धारा 370 को ख़त्म करने से लेकर सीएए और एनआरसी जैसे क़ानून बनाने और उनका प्रतिनिधित्व करने का पूरा अवसर अमित शाह के हिस्से में जाना इसका पुख्ता सबूत है। बीजेपी के भीतर और बाहर लगभग सभी इस बात को जानते हैं कि नरेन्द्र मोदी, अमित शाह के अलावा संघ के किसी और नेता पर भरोसा नहीं करते।
मोदी और शाह के सामने उत्तर भारत और हिन्दी पट्टी से योगी आदित्यनाथ के रूप में एक चुनौती हो सकती है। हिन्दुत्व और ठाकुरवाद के प्रतीक बन रहे योगी आदित्यनाथ को, ऐसा माना जाता है कि राजनाथ सिंह का समर्थन प्राप्त है।
निश्चित तौर पर राजनाथ सिंह के मन में एक कसक अपने उस निर्णय को लेकर होगी जिससे उन्होंने बतौर बीजेपी अध्यक्ष चुनाव प्रचार अभियान की कमान 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी को सौंपी थी। माना जाता है कि उस मीटिंग में दिवंगत हो चुकी सुषमा स्वराज ने राजनाथ सिंह के इस फ़ैसले का विरोध करते हुए कहा था कि वे बहुत बड़ी भूल करने जा रहे हैं। लेकिन शायद राजनाथ सिंह ने ऐसे चुनावी नतीजों की कल्पना नहीं की होगी। उनका अनुमान रहा होगा कि बीजेपी को पूर्ण बहुमत नहीं मिलेगा। ऐसी स्थिति में एनडीए की सरकार बनने पर अपेक्षाकृत उदार छवि के कारण उन्हें प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिलेगा। अपने उस निर्णय पर आज ज़रूर राजनाथ सिंह को सुषमा स्वराज की टिप्पणी याद आती होगी। मोदी के दूसरे कार्यकाल में राजनाथ सिंह की हैसियत किसी से छिपी नहीं है। संभवतया यही कारण है कि वे योगी के मौन समर्थक बने हुए हैं।
दिल्ली की सत्ता यूपी से होकर ही जाती है
यह बात एक मिथ की तरह स्थापित हो चुकी है कि दिल्ली की सत्ता यूपी से होकर ही जाती है। गुजरात को हिन्दुत्व की प्रयोगशाला बनाने वाले नरेन्द्र मोदी को भी 2014 और 2019 के चुनाव में बनारस आना पड़ा। यूपी ने उन्हें अधिकतम सीटें देकर प्रधानमंत्री बनाने में बड़ी भूमिका अदा की। ऐसे राज्य में योगी आदित्यनाथ की सरकार द्वारा ब्राह्मणों पर अत्याचार होने के आरोप आने वाले चुनावों को ज़रूर प्रभावित करेंगे। बीजेपी को प्रारंभ से ही ब्राह्मण और बनिया जाति की पार्टी माना जाता रहा है।
निश्चित तौर पर बीजेपी ने पिछले चुनावों में हिन्दुत्व की विचारधारा का दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों में विस्तार किया है। ये समुदाय बीजेपी के साथ हिन्दुत्व की बैसाखी और लोकलुभावनवाद की राजनीति से जुड़े हुए हैं। सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाली पार्टियों के वैचारिक स्खलन और प्रभावहीन नीतियों के कारण इन समुदायों को बीजेपी आकर्षित करने में कामयाब रही है।
लेकिन बीजेपी इस बात को जानती है कि सामाजिक न्याय की राजनीति अगर आगे बढ़ती है तो उसकी राजनीतिक ज़मीन कमज़ोर हो जाएगी। इसलिए वह न तो सामाजिक न्याय को राजनीतिक विसात बनने देगी और न ही अपने कोर वोटर को खोना चाहेगी। सभी जानते हैं कि बीजेपी का कोर वोटर सवर्ण जातियाँ हैं।
समाज की वर्चस्वशाली और दबंग जातियों पर मज़बूत पकड़ रखने वाली बीजेपी की चुनावी जीत का एक बड़ा कारण इन जातियों का मज़बूत गठबंधन है। इसलिए बीजेपी यूपी में ब्राह्मणों के समर्थन को खोने का जोखिम नहीं ले सकती।
जबकि ऐसा लगता है कि ब्राह्मणों की हत्या के बाद दूसरे दल उनका साथ और समर्थन पाने को बेचैन हैं। सोशल मीडिया पर जिस तरह से ब्राह्मणों द्वारा योगी की बीजेपी सरकार का विरोध हो रहा है, उससे ऐसा लगने लगा है कि ब्राह्मण बीजेपी के बजाय किसी अन्य दल को समर्थन देना पसंद करेगा। यही कारण है कि अखिलेश यादव से लेकर मायावती और कांग्रेस पार्टी तक ब्राह्मणों को अपने पाले में खींचने के लिए प्रयत्नशील हैं।
ब्राह्मण किसके साथ जाएँगे
मायावती ने ट्वीट करके सरकार को चेताया कि वह ब्राह्मण समाज को परेशान न करे। अखिलेश यादव ने मिथकों के सहारे ब्राह्मणों का साथ देने का वादा किया। उन्होंने लिखा कि सुदामा का साथ सिर्फ़ कृष्ण दे सकते हैं। बाक़ी उनका सिर्फ़ उपयोग कर सकते हैं। आश्चर्यजनक रूप से इस मुद्दे पर सबसे ज़्यादा आक्रामक कांग्रेस पार्टी दिखी। हालाँकि आजकल यूपी कांग्रेस बीजेपी सरकार की असफलता से जुड़े हर मुद्दे को जोरशोर से उठा रही है। लेकिन ब्राह्मणों के उत्पीड़न से जुड़े मुद्दे पर कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ताओं और नेताओं ने बेहद आक्रामक रुख अपनाया है। कांग्रेस का आईटी सेल भी इस मुद्दे पर लगातार सक्रिय है। कांग्रेस के राजनीतिक इतिहास में संभवतया यह पहला मौक़ा है जब कट्टर ब्राह्मण समर्थक के रूप में पार्टी अपनी छवि बना रही है। कांग्रेस के नीति नियंताओं को ऐसा लगता होगा कि इससे ब्राह्मणों में उनका खोया जनाधार वापस आ सकता है। लेकिन ऐसा समझना और कहना अभी बहुत जल्दबाज़ी होगी। अलबत्ता, इसका असर उल्टा भी हो सकता है।
आज़ादी के बाद चुनावी राजनीति में कांग्रेस का क़रीब पचास साल तक बोलबाला रहा। ब्राह्मण, मुसलिम और दलित कांग्रेस के मुख्य समर्थक जाति समुदाय माने जाते थे। लेकिन ख़ासकर नब्बे के दशक में ब्राह्मण बीजेपी के साथ जुड़ने लगा। बीएसपी के उभार के चलते दलित मायावती के साथ चले गए। मुलायम सिंह द्वारा बीजेपी के मंदिर की सांप्रदायिक राजनीति के विरोध के चलते मुसलमानों का ध्रुवीकरण उनके साथ हो गया। लिहाज़ा कांग्रेस यूपी में लगभग जनाधारविहीन पार्टी में तब्दील हो गई।
गाँधी परिवार ने ज़रूर अपना विश्वास बरकरार रखा। लेकिन बाक़ी जगह पार्टी सिमटती चली गई। आज प्रियंका गाँधी और उनके प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी अपनी खोई ज़मीन हासिल करने के लिए जद्दोजहद कर रही है। ब्राह्मण समाज द्वारा योगी सरकार के विरोध का लाभ कांग्रेस उठाना चाहती है। इसलिए पूरी ताक़त और मिथकीय आडंबरों के साथ कांग्रेस ब्राह्मणों को अपने खित्ते में लाने की कोशिश कर रही है।
पार्टी के कई ब्राह्मण नेता बाक़ायदा जातिवादी मुहिम चलाकर कांग्रेस को ब्राह्मणों के साथ खड़ा करने की कोशिश करते दिख रहे हैं। लेकिन सबसे मौजूं सवाल यह है कि इससे कांग्रेस को नफ़ा होगा या नुक़सान
बेशक कांग्रेस आज़ादी के पहले से ही ब्राह्मण बाहुल्य पार्टी रही है। लेकिन उसकी परंपरागत छवि कट्टर ब्राह्मण समर्थक होने की पहले कभी नहीं रही है। यहाँ ब्राह्मण एक उदार व्यक्तित्व वाले अभिभावक की भूमिका में रहा है। इसलिए दलित और मुसलिम समाज कांग्रेस के साथ बेखटके जुड़ा रहा। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की छवि एक ऐसे ब्राह्मण की थी जो एक ही साथ सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता में अगाध विश्वास करते हैं। आरक्षण से लेकर हिन्दू कोड बिल जैसे मुद्दों पर वे डॉ.आंबेडकर के साथ खड़े रहे। धर्म के मसलों को उन्होंने राज्य और शासन से क़तई दूर रखा। यही कारण है कि दलितों और मुसलमानों में उनकी लोकप्रियता चरम पर थी। नेहरू से लेकर राजीव गाँधी तक कमोबेश कांग्रेस की यह छवि बरकरार रही। राहुल गाँधी पर हुए निराधार हमलों ने निश्चित तौर पर उनकी छवि को परंपरागत कांग्रेस से अलग बनाया। देखते ही देखते पिछली तमाम पीढ़ियों पर किए जा रहे हमलों की चपेट में अचानक गाँधी परिवार के वारिस राहुल गाँधी आ गए। गाँधी परिवार की छवि ख़राब करके कांग्रेस को कमज़ोर करना संघ और बीजेपी की सुनियोजित रणनीति रही है।
जवाहरलाल नेहरू के बाद नेहरू गाँधी परिवार ने वैवाहिक बंधनों में जाति, धर्म और देश की चौहद्दियों को तोड़ा। इसलिए भी इस परिवार की पारंपरिक ब्राह्मण वाली छवि संरक्षित नहीं रह सकती थी। अव्वल तो एक राष्ट्र और समाज की पारंपरिक चौहद्दियों का टूटना प्रगतिशीलता की निशानी है। लेकिन आगे चलकर इसी प्रगतिशीलता से गाँधी परिवार की छवि को कलंकित किया गया।
लोकसभा चुनावों में लगातार दो पराजय के बाद लगता है कांग्रेस अपनी पुरानी छवि से छुटकारा पाना चाहती है। इसके लिए पहले कांग्रेस ने एक बहुत सोची समझी रणनीति तैयार की। लोकतांत्रिक राजनीति में ज़्यादातर समय कांग्रेस के प्रतिपक्ष में पिछड़ी जातियाँ गोलबंद रही हैं। अब उसने पिछड़ी जातियों पर काम करना शुरू किया है। इसका परिणाम उसे छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश की चुनावी सफलता में हासिल हुआ। इससे प्रोत्साहित होकर कांग्रेस सामाजिक न्याय के मुद्दे को लेकर एक क़दम और आगे बढ़ी है। नीट परीक्षा में ओबीसी आरक्षण को दरकिनार करने के विरोध में सोनिया गाँधी का नरेन्द्र मोदी को चिट्ठी लिखना इसकी हालिया बानगी है।
छत्तीसगढ़ और राजस्थान सरकार द्वारा बहुजन नायकों का महिमामंडन करना और उनके सपनों को साकार करने के लिए नीतियाँ बनाना यह दिखाता है कि भविष्य में भी कांग्रेस का मुख्य मुद्दा सामाजिक न्याय होगा। ख़ासकर यूपी में बीएसपी के सिमटते जनाधार के चलते और कांग्रेस की सक्रियता के कारण कमज़ोर दलित पिछड़े समुदायों में कांग्रेस के प्रति सहानुभूति पैदा होने लगी है। ऐसे में कट्टर ब्राह्मण वाली राजनीति इस सहानुभूति को ख़त्म कर सकती है।
दरअसल, कमज़ोर दलित पिछड़े समुदाय बीजेपी की कट्टरता का कारण ब्राह्मणवाद और धर्मांधता को ही मानते हैं। ऐसे में कट्टर ब्राह्मणों की पार्टी में भागीदारी देखकर अन्य समुदाय कांग्रेस से दूर होंगे। इसका सीधा फ़ायदा यूपी में समाजवादी पार्टी को मिलेगा। इसका सबसे बड़ा कारण है कि ब्राह्मण ऐसे राजनीतिक दल के साथ नहीं जा सकता जिसके जीतने की कोई संभावना न हो। अभी यूपी में कांग्रेस के पास न ज़मीन है और न जनाधार। समाजवादी पार्टी के पास जनाधार भी है और युवा नेतृत्व भी। देखते हैं आगे क्या होता है