जजों की नियुक्ति में जल्दबाज़ी क्यों, रिकॉर्ड तो ऐसा नहीं था!
मोदी सरकार ने तमाम विवादों को दरकिनार कर जस्टिस दिनेश माहेश्वरी और जस्टिस संजीव खन्ना की नियुक्ति कर दी है। कॉलिजियम ने अपने पुराने फ़ैसले को पलटते हुए इन दोनों जजों की सिफ़ारिश की थी। कॉलिजियम के इस फ़ैसले की तीखी आलोचना हो रही है। यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा जज जस्टिस संजय कृष्ण क़ौल ने भी अपनी आपत्ति दर्ज़ करायी है। हाई कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस कैलाश गंभीर ने राष्ट्रपति कोविंद को चिट्ठी लिखकर दोनों जजों की नियुक्ति नहीं करने की गुहार लगायी थी। इस मामले पर तीन पूर्व मुख्य न्यायाधीशों - जस्टिस लोढा, जस्टिस केहर और जस्टिस बालकृष्णन ने भी आलोचना की। सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने भी कहा है कि जजों को बदलने के कॉलिजियम के फ़ैसले पर वह मुख्य न्यायाधीश से बात करेंगे। ऐसे में यह उम्मीद की जा रही थी कि सरकार कॉलिजियम को जस्टिस माहेश्वरी और जस्टिस खन्ना के मामले पर फिर विचार करने को कहेगी। पर ऐसा नहीं हुआ। सरकार के इस फ़ैसले ने कई सवाल खड़े कर दिये हैं।
ऐसा पहले कई बार हो चुका है जब मोदी सरकार ने कॉलिजियम को जजों की नियुक्ति के मसले पर दुबारा विचार करने के लिये कहा। ताज़ा मसला उत्तराखंड के पूर्व जज जस्टिस के. एम. जोसेफ़ का है। जस्टिस जोसेफ़ वह जज हैं जिन्होंने उत्तराखंड की हरीश रावत की सरकार को बर्खास्त करने के मोदी सरकार के फ़ैसले को ग़लत क़रार दिया था और हरीश रावत की सरकार बहाल कर दी थी। कॉलिजियम ने उनको सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त करने का प्रस्ताव सरकार के पास भेजा था। तब सरकार ने इनके नाम पर आपत्ति की थी। उनके नाम के साथ वरिष्ठ वकील इंदू मल्होत्रा का नाम भी कॉलिजियम ने भेजा था।
जस्टिस जोसेफ़ मामले में क्या था आधार?
केंद्र सरकार ने मल्होत्रा की नियुक्ति तो कर दी पर जस्टिस जोसेफ़ का नाम वापस कर दिया। सरकार ने दो कारण बताये।
- एक, जस्टिस जोसेफ़ हाई कोर्ट जजों के बीच वरिष्ठता में बयालीसवें नंबर पर हैं, और सरकार बाक़ी जजों की वरिष्ठता को नज़रअंदाज़ कर उन्हें नियुक्त नहीं कर सकती।
- दो, यह तर्क भी दिया गया कि जस्टिस जोसेफ़ केरल से आते हैं और उनको जज बनाते ही केरल के दो जज सुप्रीम कोर्ट में हो जाएँगे। इससे सुप्रीम कोर्ट में जो क्षेत्रीय संतुलन है, वह गड़बड़ हो जाएगा। ऐसे समय में जबकि दस राज्यों से कोई भी जज सुप्रीम कोर्ट में नहीं है, तो एक राज्य से दो-दो जज कैसे हो सकते हैं।
इसी सिद्धांत पर क्यों नहीं चली सरकार?
लेकिन सरकार मौजूदा मामले में इस सिद्धांत पर नहीं चली। न तो उसने वरिष्ठता का सिद्धांत माना और न ही क्षेत्रीय संतुलन के सिद्धांत को तवज्जो दी। जस्टिस संजीव खन्ना मौजूदा हाई कोर्ट के जजों की लिस्ट में 33वें नंबर पर हैं। जस्टिस खन्ना तो दिल्ली हाई कोर्ट में सिर्फ़ जज थे जबकि जस्टिस जोसेफ़ उत्तराखंड हाई कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश थे और मुख्य न्यायाधीश की कैटेगरी में वरिष्ठता में वह सबसे आगे थे। इसी तरह दिल्ली से मौजूदा सुप्रीम कोर्ट में कुल तीन जज पहले से थे और जस्टिस खन्ना को लेकर यह संख्या चार हो जाती है। ऐसे में क्षेत्रीयता का तर्क भी नहीं बैठता है।
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ज़ाहिर है जस्टिस खन्ना के मामले में सरकार ने जस्टिस जोसेफ़ की नियुक्ति न करने के कारणों को ख़ुद ही ध्वस्त कर दिया। हालाँकि बाद में जब कॉलिजियम ने जस्टिस जोसेफ़ का नाम दुबारा भेजा तो लंबे अंतराल के बाद उनकी नियुक्ति सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कर दी।
इस सारे बवाल के बीच जस्टिस जोसेफ़ की सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठता का नुक़सान हो गया।
कोर्ट और सरकार में कब से है तनातनी?
जजों की नियुक्ति पर मोदी सरकार के पहले भी सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार के बीच काफ़ी झगड़े हो चुके हैं। इंदिरा गाँधी के जमाने में कुमारमंगलम की थियरी दी जाती थी जिसका अर्थ था कि मार्क्सवादी व्यवस्था की तरह भारत में भी न्यायपालिका को समाज निर्माण में सरकार की मदद करनी चाहिये। यानी न्यायपालिका सरकार की विचारधारा को आगे बढ़ाने में सहायता करे। 'कुमारमंगलम थियरी' स्वतंत्र न्यायपालिका के पक्ष में नहीं थी। उनकी दलील थी कि न्यायपालिका को एक तरह से सरकार से दोस्ती कर फ़ैसले करने चाहिये और अपने फ़ैसलों से सरकार को परेशान न करे। इंदिरा गाँधी ने सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की वरिष्ठता को नकार कर ए. एन. रे को मुख्य न्यायाधीश बनाया था। तीनों वरिष्ठ जजों - जस्टिस शीलत, जस्टिस हेगड़े और जस्टिस ग्रोवर ने विरोध में इस्तीफ़ा दे दिया था।
- इंदिरा गाँधी के बाद फिर कभी वरीयता लाँघ कर किसी दूसरे को मुख्य न्यायाधीश नहीं बनाया गया। लेकिन न्यायपालिका से सरकार के झगड़े नियुक्तियों पर होते रहे। जस्टिस वाई. वी. चंद्रचूड़ और जस्टिस भगवती जैसे अति सम्मानित मुख्य न्यायधीशों को भी ख़ूब परेशानी हुई। लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद न्यायपालिका से सरकार की भिड़ंत कुछ ज़्यादा ही हुई है।
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सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जजों की नियुक्तियों के मसले पर मुख्य न्यायाधीश टी. एस. ठाकुर को आँसू तक बहाने पड़े। उन्होंने 25 अप्रैल 2016 को कहा, 'सरकार कॉलिजियम की तक़रीबन 170 सिफ़ारिशों पर बैठी हुई है। कई हाई कोर्ट में जजों की संख्या आधी रह गयी है।'
सरकार टस से मस नहीं हुई, वह हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। तक़रीबन चार महीने बाद ठाकुर ने फिर सरकार को लपेटा। वह बोले, 'हाई कोर्ट में जजों की नियुक्तियों को सरकार हाईजैक नहीं कर सकती। हाई कोर्ट में कुल 478 पद ख़ाली पड़े हैं। चालीस लाख मुक़दमे पेंडिंग हैं। पूरा सिस्टम ध्वस्त हो गया है।' फिर भी सरकार पर कोई असर नहीं हुआ। दो महीने बाद 28 अक्टूबर, 2016 को जस्टिस ठाकुर ने कहा, 'सरकार न्यायपालिका में ताला जड़ना चाहती है।' जस्टिस ठाकुर ने धमकी तक दी कि अगर नियुक्तियाँ नहीं की गईं तो वह प्रधानमंत्री कार्यालय के अफ़सरों के ख़िलाफ़ अदालत की अवमानना का मामला भी दर्ज़ कर सकते हैं। पर ढाक के तीन पात! सरकार पर कोई असर नहीं हुआ।
सबक़ क्या सीखा?
जस्टिस जे. एस. केहर और जस्टिस दीपक मिश्रा के मुख्य न्यायाधीश बनने के बाद भी हालात नहीं सुधरे। परंपरा के मुताबिक़, सुप्रीम कोर्ट कॉलिजियम की सिफ़ारिश अमूमन सरकार मान लेती है। अगर उसे एतराज़ होता है तो वह पुनर्विचार के लिये एक बार वापस भेज सकती है। और अगर कॉलिजियम दुबारा उन्हीं नामों की सिफ़ारिश करती है तो सरकार इसे मान लेती है। पर मोदी सरकार में कई बार ऐसा हुआ है कि सरकार ने दो-दो बार कॉलिजियम की सिफ़ारिश रिजेक्ट कर दी। ऐसे में मौजूदा मामले में यह प्रश्न खड़ा होता है कि सरकार ने इतनी जल्दबाज़ी क्यों दिखाई? जब इतना विरोध हो रहा था तो वह कुछ समय लेकर विचार कर सकती थी। जब जस्टिस जोसेफ़ पर वह तक़रीबन एक साल लगा सकती थी तो क्या वह एकाध हफ़्ते इंतज़ार नहीं कर सकती थी? क्या विवाद के मद्देनज़र वह कॉलिजियम को भेजे गये नामों पर चर्चा करने के लिये नहीं भेज सकती थी? अगर यह मान लिया जाये कि सरकार को अब होश आ गया है और वह अब जजों की नियुक्तियों को रोकेगी नहीं तो यह अच्छी बात है। अगर सरकार ने कुछ सबक़ सीखा है तो फिर आगे से कॉलिजियम की सिफ़ारिश आते ही वह नियुक्ति करेगी। यह एक अच्छी पहल होगी। पर क्या ऐसा होगा?