एंटीबायोटिक दवाओं का गोरखधंधा और लैंसेट रिपोर्ट
भारत में एंटीबायोटिक दवाएं बेरोकटोक मरीजों को खिलाई जा रही हैं। डॉक्टरों से लेकर दवा कंपनियां तक कोई नियम कानून मानने को तैयार नहीं हैं। कोविड के दौरान और बाद में तो इनका इस्तेमाल और भी बढ़ गया। लैंसेट ने एक स्टडी के बाद इस संबंध में अपनी रिपोर्ट जारी की है। लैंसेट की रिपोर्ट को भारतीय मीडिया ने हालांकि अलग-अलग नजरिए से पेश किया है लेकिन कुल मिलाकर लैंसेट ने स्पष्ट तौर पर संकेत दिया है कि भारतीय मेडिकल क्षेत्र में नैतिकता का पालन डॉक्टर से लेकर दवा कंपनियां नहीं कर रही हैं। लैंसेट की स्टडी के मुताबिक भारत में 44 फीसदी लोग अस्वीकृत एंटीबायोटिक दवाइयां खा रहे हैं। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में भी दवा के गंदे धंधे का उजागर करने वाला मुकदमा शुरू हुआ है।
लैंसेट की रिपोर्ट में एज़िथ्रोमाइसिन एंटीबायोटिक दवा का उल्लेख किया गया है। उसमें कहा गया है कि यह दवा कोविड महामारी से पहले और बाद में बहुत ज्यादा इस्तेमाल की जा रही है। जबकि यह दवा और इस जैसी बहुत सारी एंटीबायोटिक दवाओं को सेंट्रल ड्रग रेगुलेटर ने मंजूर (अप्रूव) नहीं किया है। लैंसेट की यह स्टडी लैंसेट रीजनल हेल्थ-साउथईस्ट एशिया में 1 सितंबर को प्रकाशित हुई थी।
रिपोर्ट में कहा गया है कि एंटीबायोटिक दवाओं का भारत में अनुचित उपयोग हो रहा है। राष्ट्रीय और राज्यों की एजेंसियों के बीच रेगुलेटरी नियमों में ओवरलैप है। यानी नियम स्पष्ट नहीं हैं। इसका फायदा डॉक्टर और दवा कंपनियां उठाती हैं। देश में जिस तरह से एंटीबायोटिक की उपलब्धता है, उसने बिक्री और खपत को जटिल बना दिया है।
रिपोर्ट के मुताबिक हालांकि भारत में एंटीबायोटिक दवाओं की प्रति व्यक्ति खपत दर कई देशों की तुलना में अपेक्षाकृत कम है। लेकिन भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल कर रहा है, जिन्हें कम इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
लैंसेट ने पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया नई दिल्ली की आशना मेहता की स्टडी का जिक्र किया है। उन्होंने PharmaTrac के डेटा का विश्लेषण किया। यह प्राइवेट सेक्टर की दवा बिक्री का डेटासेट है। यह डेटा 9,000 लोगों के एक पैनल से जुटाया गया है जिनके पास पूरे भारत में दवा बिक्री के आंकड़े आते हैं। एंटीबायोटिक की प्रति व्यक्ति खपत की गणना के लिए निर्धारित दैनिक खुराक (डीडीडी) का इस्तेमाल किया गया। नतीजों से पता चलता है कि 2019 में कुल डीडीडी की खपत 5,071 मिलियन थी, जो प्रति दिन प्रति 1,000 जनसंख्या पर 10.4 डीडीडी थी। 12 एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल कुल खपत का 75% लोगों ने किया था। इसमें सबसे ज्यादा एज़िथ्रोमाइसिन एंटीबायोटिक(640 मिलियन डीडीडी, कुल खपत का 12.6%) बिकी। इसके बाद सेफिक्साइम (516 मिलियन डीडीडी, कुल खपत का 10.2%) है। एज़िथ्रोमाइसिन 500 मिलीग्राम टैबलेट सबसे अधिक खपत वाला फॉर्मूलेशन है (384 मिलियन) डीडीडी, कुल खपत का 7.6%)। सेफिक्साइम 200 मिलीग्राम टैबलेट (331 मिलियन डीडीडी, कुल खपत का 6.5%) शामिल है।
क्या है गोरखधंधाः दवा कंपनियां अपने प्रतिनिधियों (एमआर) के जरिए डॉक्टरों, बड़े अस्पतालों, नर्सिंग होम से संपर्क करती हैं और उनसे उसी कंपनी की दवा प्रिस्क्रिप्शन में लिखने को कहती हैं। डॉक्टर, निजी अस्पताल और नर्सिंग होम ऐसा करते भी हैं। इसके एवज में दवा कंपनियां इन्हें गिफ्ट से, विदेश यात्राओं से, पैसे से नवाजती भी हैं। दवा कंपनियों के इशारे पर अब बड़े अस्पतालों और नर्सिंग होम में दवा की दुकानें भी खुल गई हैं। मरीज या उसके तीमारदार को डॉक्टर की दवाइयां ऐसी ही किसी दुकान से खरीदनी पड़ती है। वो किसी अन्य दुकान से दवा नहीं खरीद सकता।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में ऐसा ही मामला सामने आया, जिससे इस नेक्सस का पता चलता है। पैरासिटामोल दवा 'डोलो' कोविड -19 महामारी के दौरान मरीजों में काफी लोकप्रिय हुई थी। इस दवा को बनाने वाली कंपनी पर आरोप है कि इसने डॉक्टरों पर मुफ्त में 1,000 करोड़ रुपये से अधिक खर्च किए। सुप्रीम कोर्ट में पिछले महीने दाखिल एक जनहित याचिका में फेडरेशन ऑफ मेडिकल एंड सेल्स रिप्रेजेंटेटिव एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने यह आरोप लगाया है। यह संस्था एमआर प्रोफेशनल्स की है। एमआर लोगों से बेहतर इस गोरखधंधे को कोई नहीं जानता। अदालत ने इस जनहित याचिका को स्वीकार किया और सरकार को नोटिस जारी कर दिया।
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डोलो कंपनी द्वारा 650mg फॉर्मूलेशन के लिए 1,000 करोड़ रुपये से अधिक मुफ्त में डॉक्टरों को दिए गए हैं। डॉक्टर उन दिनों (कोविड महामारी) बेवजह ही डोलो दवा की इस खुराक को मरीजों को लिख रहे थे।
- सुप्रीम कोर्ट को जनहित याचिका के जरिए दी गई जानकारी
जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़, जो बेंच का नेतृत्व कर रहे हैं, जिसमें जस्टिस एएस बोपन्ना भी शामिल हैं, ने कहा, आप जो कह रहे हैं, मुझे यकीन है कि मेरे कानों में संगीत नहीं बज रहा है। यह (दवा) ठीक वैसी ही है जैसी मेरे पास थी, जब मुझे कोविड था।
फेडरेशन ऑफ मेडिकल एंड सेल्स रिप्रेजेंटेटिव एसोसिएशन ऑफ इंडिया की जनहित याचिका ने भारत में बेची जा रही दवाओं के फार्मूलेशन और कीमतों पर नियंत्रण को लेकर चिंता जताई है। जस्टिस चंद्रचूड़ की बेंच ने भी कहा कि यह एक गंभीर मुद्दा है।
क्या होना चाहिएः इस संबंध में मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के नोटिफिकेशन में गड़बड़ है। जिसमें कहा गया है कि डॉक्टर प्रिस्क्रिप्शन में जेनेरिक दवाएं लिखें। लेकिन उस नोटिफिकेशन में यह नहीं लिखा है कि डॉक्टर ब्रैंडेड दवाएं न लिखें। इसी बात का फायदा डॉक्टर और दवा कंपनियां उठा रही हैं।
फेडरेशन ऑफ मेडिकल एंड सेल्स रिप्रेजेंटेटिव एसोसिएशन ऑफ इंडिया का कहना है कि दवा कंपनियों को और उनकी दवा लिखने वाले डॉक्टरों को जब तक उत्तरदाई या जवाबदेह नहीं बनाया जाएगा, तब तक यह गोरखधंधा चलता रहेगा। केंद्र सरकार ने अभी तक यूनिफॉर्म कोड ऑफ फार्मास्युटिकल मार्केटिंग प्रेक्टिसेज (यूसीपीएमपी) को कानूनी दर्जा नहीं दिया है। इसको कानूनी दर्जा मिलते ही दवा कंपनियों पर शिकंजा कस उठेगा।
इस केस की पैरवी कर रहे वकील संजय पारिख का कहना है कि वर्तमान में ऐसा कोई कानून या रेगुलेशन नहीं है जो इस तरह की प्रेक्टिस को प्रतिबंधित करता है। यह आम सी बात हो गई है। दवा कंपनियां डॉक्टरों को मुफ्त में तमाम चीजों से नवाजती हैं। संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन का हस्ताक्षरकर्ता होने के बावजूद भारत में फार्मास्युटिकल मार्केटिंग प्रेक्टिस में भ्रष्टाचार अनियंत्रित है।