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सिंधिया की बग़ावत के बाद चेती कांग्रेस, दिल्ली में युवा चेहरे को दी कमान

सिंधिया की बग़ावत के बाद चेती कांग्रेस, दिल्ली में युवा चेहरे को दी कमान

ज्योतिरादित्य सिंधिया की बग़ावत के बाद कांग्रेस को शायद ऐसा महसूस हो रहा है कि अब कम से कम नई शुरुआत की जाए और युवाओं के हाथों में नेतृत्व सौंपा जाए। 

दिल्ली प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष कौन बन सकता है, इस सवाल का जवाब किसी के पास अनिल चौधरी के रूप में तो नहीं रहा होगा। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पूर्व विधायक अनिल चौधरी को दिल्ली प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाकर सभी को हैरान कर दिया है। लगता है कि कांग्रेस दिल्ली से नई शुरुआत करना चाहती है। दिल्ली से नई शुरुआत की ज़रूरत भी थी क्योंकि 2015 और 2020 में जब लगातार दो बार पार्टी जीरो पर आउट हो जाए और भविष्य के लिए कोई संभावना भी नज़र नहीं आए तो फिर यह नई शुरुआत करना बनता भी है। 

अगर पीछे मुड़कर देखें तो कांग्रेस इसके लिए ख़ुद ही जिम्मेदार है। 15 साल तक लगातार राज करने के बाद जब 2013 में कांग्रेस का पतन शुरू हुआ तो उस वक्त पार्टी के धुरंधरों ने यह कभी नहीं सोचा था कि कांग्रेस की ऐसी गत बनेगी। वे सोचते थे कि आम आदमी पार्टी अव्वल तो कुछ कर नहीं पाएगी और अगर वह सेंध भी लगाएगी तो बीजेपी के वोटों में लगाएगी। उन्हें नहीं लगता था कि दलित-पिछड़े-मुसलिम और शीला दीक्षित की शैली से प्रभावित उच्च वर्ग कभी आम आदमी पार्टी के साथ भी जा सकता है। 

केजरीवाल को समर्थन देना ग़लती

उस वक्त कांग्रेस ने एक और बड़ी ग़लती की थी। यह ग़लती आम आदमी पार्टी को समर्थन देकर उसकी सरकार बनवाने की थी। 2013 के विधानसभा चुनाव में हार के बाद शीला दीक्षित को किनारे कर दिया गया था और अजय माकन ने अपने खासमखास अरविंदर सिंह लवली को प्रदेश अध्यक्ष बनवा दिया था। माकन की राजनीतिक सूझबूझ यह बताती थी कि आम आदमी पार्टी को समर्थन देकर उसे एक्सपोज कर दो। जनता को यह दिखा दो कि अरविंद केजरीवाल झूठे वादे करके सत्ता में आए हैं। क्योंकि उन्हें लगता था कि बिजली हाफ़ और पानी माफ़ का वादा तो पूरा हो ही नहीं सकता लेकिन केजरीवाल ने सब्सिडी की पतवार से अपनी नैया को पार लगा लिया। 

केजरीवाल ने 49 दिन की सरकार में ही बिजली-पानी को लेकर किये वादों को पूरा करके जनता में यह विश्वास पैदा कर दिया कि ये वादे पूरे हो सकते हैं। इसके बाद कांग्रेस कभी उठ नहीं सकी।

यह एक निर्विवाद सत्य है कि कांग्रेस की इस बुरी हालत के लिए पार्टी के दिग्गज नेता सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। अजय माकन और लवली में गहरी छनती थी लेकिन जब 2014 में कांग्रेस केंद्र में हार गई तो अजय माकन की नजर दिल्ली पर पड़ी। जैसे उन्होंने लवली को अध्यक्ष बनवाया था, वैसे ही उन्हें हटवाकर खुद अध्यक्ष बन गए।

लवली ने 2015 का विधानसभा चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया। अजय माकन की खुद जमानत जब्त हो गई थी जबकि तब उन्हें सीएम के रूप में प्रोजेक्ट किया जा रहा था। माकन वाली लॉबी ने शीला दीक्षित को विधानसभा चुनाव में बुलाना तो दूर, उनका नाम तक लेना ज़रूरी नहीं समझा। जीर्ण-शीर्ण हालत में भी पार्टी पर काबिज रहने की कोशिशें पार्टी को पाताल की तरफ धकेलती रहीं।

वरिष्ठ नेताओं ने छोड़ी पार्टी 

2017 के नगर निगम चुनाव में भी अजय माकन ने किसी बड़े नेता को पास नहीं फटकने दिया। टिकटों की ऐसी बंदरबांट मची कि कई बड़े नेता जिनमें अरविंदर सिंह लवली और राजकुमार चौहान भी शामिल थे, पार्टी छोड़कर चले गए। दिल्ली सरकार के पूर्व मंत्री अशोक वालिया और हारून यूसुफ़ ने भी खुलेआम नाराजगी जताई। कांग्रेस नगर निगम में भी अपना आधार खो बैठी। 

इन ठोकरों के बाद भी कांग्रेस या कांग्रेसियों को अकल आ गई हो, ऐसा नहीं है। 2019 के लोकसभा चुनाव सिर पर थे और अजय माकन ने बीमारी का वास्ता देकर अध्यक्ष पद छोड़ दिया। साथ ही यह संदेश भी दिया कि उन पर आम आदमी पार्टी के साथ चुनावी समझौते का दबाव पड़ रहा है और वह यह कबूल नहीं कर सकते। इस सारी कवायद में पार्टी को शीला दीक्षित की याद आई और उन्हें अध्यक्ष बना दिया गया। 

शीला दीक्षित ने आम आदमी पार्टी के साथ चुनावी समझौते का विरोध किया तो इस बार अजय माकन समझौते के पक्ष में खड़े हो गए। तब के कांग्रेस प्रभारी पी.सी. चाको ने कांग्रेस की लुटिया डुबोने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वह पार्टी को चुनावों के लिए तैयार करने के बजाय आपस में लड़ते और लड़ाते रहे।

शीला दीक्षित ख़राब सेहत के कारण चुनाव नहीं लड़ना चाहती थीं लेकिन इस लॉबी ने उन्हें जबरदस्ती चुनाव में उतरवाया। शीला के बेटे संदीप दीक्षित साफ आरोप लगा चुके हैं कि इसी कारण शीला दीक्षित को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। ऐसे गंभीर आरोपों के बाद भी चाको को नहीं हटाया गया और अजय माकन ने फिर से प्रदेश अध्यक्ष बनने की कोशिश की। 

राहुल गांधी के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़े के कारण सारे फ़ैसले खटाई में पड़े रहे। दिल्ली चुनाव सिर पर होने के बावजूद दिल्ली कांग्रेस के पास कोई ऐसा चेहरा नहीं था जिसे अध्यक्ष पद सौंपा जा सके। इस पर बूढ़े घोड़े सुभाष चोपड़ा पर दांव लगाया गया। तभी यह तय हो गया था कि कांग्रेस हारी हुई लड़ाई लड़ रही है और यह नतीजों में भी दिखा। 

मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया की बग़ावत के बाद कांग्रेस को शायद ऐसा महसूस हो रहा है कि अब कम से कम वहां तो युवाओं को नेतृत्व दे ही दिया जाए जहां पार्टी शून्य पर पहुंच चुकी है। अनिल चौधरी दिल्ली यूनिवर्सिटी स्टूडेंट यूनियन के नेता रहे हैं लेकिन वह अध्यक्ष पद का चुनाव हार गए थे। अनिल ने 2008 में पटपड़गंज सीट से डूसू के ही पुराने नेता नकुल भारद्वाज को हराया था। अनिल दिल्ली एनएसयूआई और युवक कांग्रेस के भी अध्यक्ष रहे हैं। बाद में उन्हें एआईसीसी में सचिव भी बनाया गया।

बहरहाल, कांग्रेस की दिल्ली में अब जो स्थिति है, उसमें चुनाव हारना कोई अयोग्यता नहीं रह गया है क्योंकि बड़े-बड़े धुरंधर चुनावों में लगातार तीन-तीन बार हार चुके हैं। ऐसे वक्त में एक शेर याद आता है - ‘गिरावट की मैं इंतहा चाहता हूं, कि शायद वही हो तरक्की का जीना’।

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