बीजेपी से क्यों नाराज़ हैं रामविलास पासवान?

01:02 pm Dec 20, 2018 | शैलेश - सत्य हिन्दी

लोक जनशक्ति पार्टी के युवराज चिराग पासवान के ताज़ा बयान ने बिहार में एनडीए गठबंधन की बेचैनी को फिर सतह पर ला दिया है। केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के बेटे और लोक जनशक्ति पार्टी के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष चिराग पासवान ने 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए अब बिहार में सीटों का बँटवारा तुरंत करने की माँग उठाई है। राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि चिराग ने सात दिनों के अंदर सीटों का बँटवारा नहीं होने पर एनडीए छोड़ने की भी धमकी दी है। बीजेपी ने उसे पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के बिहार दौरे के बाद सीटों के बँटवारे पर सभी घटकों में सहमति की घोषणा की थी। लेकिन चिराग पासवान साफ़ कह रहे हैं कि बीजेपी नेताओं से कई मुलाक़ातों के बाद भी ठोस फ़ैसला नहीं हो पाया है। 

बेचैनी का सबब?

बिहार में एनडीए के घटक राष्ट्रीय लोक समता पार्टी यानी आरएलएसपी के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने भी हाल में केंद्रीय मंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया और एनडीए से अलग होने की घोषणा कर दी। कुशवाहा ने लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के गठबंधन 'युनाइटेड डेमॉक्रैटिक अलायंस' के साथ जाने का फ़ैसला किया है।

बीजेपी की मुश्किलें

कुशवाहा के बाद चिराग पासवान के तेवर से बिहार में बीजेपी के गठबंधन की मुश्किलें बढ़ती जा रही है। 2014 के चुनावों में बीजेपी, आरएलएसरपी और एलजेपी गठबंधन ने ज़बरदस्त कामयाबी हासिल की थी। कुशवाहा के ज़रिए अति पिछड़ों और पासवान के साथ दलितों के साथ बीजेपी ने 21 सीटों पर जीत हासिल की थी। पासवान की पार्टी को 6 और कुशवाहा को 3 सीटें मिली थीं। इस गठबंधन ने नीतीश कुमार के यूपीए से बाहर जाने और लालू यादव तथा कांग्रेस से हाथ मिलाने के असर को पूरी तरह ख़त्म कर दिया। नीतीश की पार्टी जनता दल युनाइटेड 2, लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल 4 और कांग्रेस 1 सीट पर सिमट गई थी। बिहार की शानदार जीत ने नरेंद्र मोदी की ताज़पोशी में काफ़ी मदद की थी। लेकिन विधानसभा चुनावों में नीतीश लालू और कांग्रेस के गठबंधन ने ज़बरदस्त कामयाबी हासिल की थी। इस गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिला था। 2017 की गर्मियों में नीतीश कुमार ने अचानक ही लालू और कांग्रेस का हाथ छोड़ कर बीजेपी का दामन थाम लिया। यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उत्थान का दौर था। यह दीगर बात है कि मोदी के आर्थिक सुधार के कई बड़े कार्यक्रम एक के बाद एक कर फ़ेल हो रहे  थे। नोटबंदी काला धन नहीं निकल पाया। जीएसटी लागू हो गया, लेकिन उसका विरोध जारी था। 2013 में नरेंद्र मोदी का विरोध करके एनडीए छोड़ने वाले नीतीश 2017 में मोदीभक्त हो गए और उन्हें अजेय घोषित कर दिया। 

2018 का शोर मोदी के उतार का संकेत दे रहा है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़और राजस्थान में बीजेपी की हार और कांग्रेस की जीत ने पूरी हिन्दी पट्टी पर असर डालना शुरू कर दिया है। नीतीश से अलग होने के बाद आरजेडी ने आक्रामक तेवर अपना लिए हैं।

बीजेपी की मुश्किलें

लालू यादव के जेल जाने के बाद आशंका ज़ाहिर की जा रही थी कि उनके बेटे तेजस्वी यादव पार्टी को एकजुट नहीं रख पाएँगे। अररिया लोकसभा उपचुनाव में जीत हासिल करके तेजस्वी ने नेतृत्व पर अपनी मज़बूत पकड़ का सबूत दिया। बिहार में अब मोदी का तेज़ कमज़ोर पड़ता दिखाई दे रहा है। दूसरी तरफ़ राष्ट्रीय जनता दल मज़बूत होता जा रहा है। तेजस्वी ने पार्टी के यादव-मुस्लिम गठजोड़ को और पुख़्ता बनाया है। उपचुनाव में आरजेडी की जीत इसका सबूत है।

सवर्ण मतदाता

बिहार के राजनीतिक क्षितिज पर लालू नीतीश और पासवान जैसे नेताओं के उदय के बाद बिहार में कांग्रेस लगातार कमज़ोर होती गई। लोकसभा चुनावों से पहले कांग्रेस का आख़िरी जातीय आधार सवर्ण मतदाता भी पूरी तरह से बीजेपी की तरफ़ खिसक गया। बिहार के सवर्णों को मोदी से चमत्कार की जो उम्मीद थी, वह अब ख़त्म होती दिखाई दे रही है। केंद्र और राज्य सरकारों पर भ्रष्टाचार के संगीन आरोप ने उन पर आदर्शवादी युवा मतदाता के भरोसे को हिला दिया है। फ़सल की उचित क़ीमत नहीं मिलने से किसान बेचैन है। ऐसे में सवर्णों का झुकाव एक बार फिर कांग्रेस की तरफ़ दिखाई दे रहा है। 

बीजेपी में शत्रुघ्न सिन्हा और कीर्ति आज़ाद के बाग़ी सुरों ने भी बिहार के सवर्णों और अन्य मतदाताओं के भरोसे को हिला दिया है। चर्चा है कि शत्रुघ्न और कीर्ति को कांग्रेस में लाने की कोशिशें तेज़ हो रही हैं। उपेंद्र कुशवाहा की भी कांग्रेस में शामिल होने की या फिर यूपीए गठबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका मिलने की उम्मीद है। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद एससी-एसटी क़ानून में बदलाव से सवर्ण ख़ास तौर पर नाराज़ हैं। पासवान की पार्टी में खलबली मतदाताओं के बदलते रुझान को लेकर भी है। कभी लालू यादव ने पासवान को सबसे बड़ा मौसम विज्ञानी बताया था क्योंकि पासवान पिछले कई चुनावों से जीतने वाले गठबंधन के साथ ही होते हैं।

फ़ॉर्मूले में पेच

अमित शाह के बिहार दौरे के बाद एनडीए में सीटों के बँटवारे का जो फ़ॉर्मूला सामने आया था, उसके मुताबिक़ पासवान की पार्टी को लोकसभा की सिर्फ़ 4 सीटें देने की पेशकश की गई थी। अभी लोकसभा में पासवान की पार्टी से 6 सांसद हैं। 2019 के चुनावों में वे 11/12 सीटों की बात कर रहे हैं, लेकिन  एनडीए में नीतीश की पार्टी के आने के बाद स्थितियाँ बदल गई हैं। नीतीश की पार्टी को कम-से-कम 16 सीटें मिलने की चर्चा है। 2 सीटों वाले नीतीश को 16 सीटें देने के लिए पासवान की पार्टी से 2 और कुशवाहा की पार्टी से 1 सीट कम करने की बात एनडीए में की गई थी। नाराज़ कुशवाहा गठबंधन छोड़ कर अलग हो गए लेकिन इसके चलते पासवान की ताक़त गठबंधन में थोड़ी बढ़ गई है।

राजनीतिक हलकों में चर्चा यह भी है कि पासवान कैंप ने कांग्रेस और यूपीए के साथ जाने का विकल्प भी खोल रखा है। रामविलास के बारे में कहा जा रहा है कि वे अब लोकसभा चुनाव लड़ने की जगह राज्यसभा में जाना चाहते हैं। इसका मुख्य कारण उनका ख़राब स्वास्थ्य बताया जा रहा है।

निगाह राज्यसभा पर

2019 में असम से राज्यसभा की दो सीटों पर चुनाव होना है।ये दोनों सीटें बीजेपी को मिलना तय है। इनमें से एक सीट पासवान को दिए जाने की चर्चा है। 

नए बनते-बिगड़ते समीकरणों में यूपीए के सामने भी कम चुनौतियाँ नहीं है। कुशवाहा यूपीए में अपना शेयर चाहते हैं। चर्चा है कि वे लोकसभा की 8-10 सीटें चाहते हैं। इसके अलावा 2020 के विधानसभा चुनावों में भी बड़े हिस्से की उम्मीद कर रहे हैं। चर्चा है कि वे कांग्रेस की तरफ़ से मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनना चाहते हैं। 

लालू और उनकी पार्टी को तेजस्वी के लिए कोई चुनौती मंज़ूर हो ही नहीं सकती। कुल मिलाकर एनडीए और यूपीए दोनों खेमों में खलबली है। लालू के बड़े बेटे तेज प्रताप कई बार बाग़ी तेवर दिखा चुके हैं, लेकिन फ़िलहाल वे अपनी पत्नी से विवाद में ज़्यादा फँसे हुए दिखाई दे रहे हैं। बीमार पिता से मुलाक़ात के बाद उन्होंने संकेत दिया कि वे पार्टी को मज़बूत करने के लिए काम करेंगे। ज़मीनी स्तर पर नीतीश और बीजेपी गठबंधन की स्थिति चुनौतीपूर्ण है। ख़ासकर युवा वर्ग और किसानों के मुँह बंद होने के कारण यूपीए और बीजेपी के सामने चुनावी चुनौतियां गंभीर हो गई है। आरजेडी और कांग्रेस इसे मध्य प्रदेश की तरह भुनाने की तैयारी कर रही हैं। नीतीश के मुख्यमंत्री का भी यह तीसरा टर्म है। उनका सुशासन बाबू और विकास पुरुष का मिथ भी अब सवालों से घिरा हुआ है।