दोस्त दोस्त न रहा..., क्यों भाग जाते हैं राहुल के दोस्त?

02:59 pm Jan 15, 2024 | संदीप सोनवलकर

सन 2004 से ही राहुल गांधी के करीबी दोस्त रहे और कई बार राहुल को विदेशी विश्वविघालयों में लेक्चर के लिए साथ ले जाने वाले पूर्व सांसद मिलिंद देवड़ा अब उसी दिन पार्टी छोड़कर चले गये जिस दिन से राहुल गांधी असल में 2024 के लोकसभा चुनाव के प्रचार का शंखनाद 'भारत जोड़ो न्याय यात्रा' की शुरुआत मणिपुर से कर रहे थे।

मिलिंद तो शुक्रवार को ही शामिल हो रहे थे लेकिन एन टाइम पर प्रोग्राम टाल दिया गया क्योंकि रणनीतिकारों ने तय किया कि कांग्रेस को ये झटका उसी समय दिया जाए जब राहुल की यात्रा की दूसरी शुरुआत हो रही हो, ताकि मीडिया को भी कांग्रेस की आलोचना करने का मौक़ा मिल जाए। मिलिंद भी मजबूरी में ही सही इसके लिए तैयार हो गये और जाते जाते कह भी गये कि कांग्रेस में अब उनकी कोई नहीं सुनता।

मिलिंद से ये सवाल ज़रूर पूछा जाना चाहिये कि वो कैसे सन 2004 में पहली बार सांसद और उसके बाद 2009 से मंत्री बन गये थे? और राहुल के करीबी होने का खूब फायदा भी उठाया था। किसको इतनी कम उम्र में सांसद होने का फायदा मिलता है और मंत्रालय भी मिलता है? पिता मुरली देवड़ा तो खैर कारपोरेटर से सांसद और मंत्री तक गये। मिलिंद को पिता के नाम के कारण ही सब कुछ मिला। इधर 2014 और 2019 की लगातार दो हार के बाद से ही मिलिंद के सुर बदले हुए थे। वो दिल्ली से दूर हो गये और राहुल के साथ भी उनके विदेश दौरे कम हो गये। हालाँकि मिलिंद को प्रोफेशनल कांग्रेस का सह प्रमुख बनाया गया था शशि थरुर के साथ लेकिन मिलिंद इससे खुश नहीं थे। बाद में मिलिंद ने नागपुर में नेताओं से बात करने की कोशिश की लेकिन बहुत भाव नहीं मिला तभी 28 दिसंबर को मिलिंद ने तय कर लिया था कि अब यहां नहीं रहना। अब वो एकनाथ शिंद के साथ चले गये हैं।

मिलिंद को इसके पहले 2014 में ही अरुण जेटली ने बीजेपी आने का न्यौता दिया था और तब मिलिंद चले जाते तो बेहतर होता लेकिन राहुल की दोस्ती के चलते नहीं गये। अब सवाल यही उठता है कि ऐसा क्या होता है कि राहुल गांधी के ही सारे करीबी और दोस्त एक एक करके उनको छोड़ जाते हैं। क्या राहुल को दोस्तों की सही पहचान नहीं है या फिर राहुल तो सही हैं, उनके दोस्त ही कुछ ज्यादा उम्मीद कर लेते हैं। चाहे ज्योतिरादित्य सिंधिया हो या जितिन प्रसाद या फिर आरपीएन सिंह या अब देवड़ा, सब तो राहुल के खास रहे हैं। एक और मित्र रणनीतिकार प्रशांत किशोर को भी राहुल ने खूब सिर चढ़ाया था वो भी छोड़ गये। 

लोग कहते हैं कि राहुल जब किसी पर भरोसा करते हैं तो पूरा करते हैं लेकिन जब उनको लगता कि उनके इसी भरोसे पर कोई फायदा उठा रहा है या उनके नाम का दुरुपयोग कर रहा है तो वो उसे छोड़ देते हैं। ऐसा कब होता है, ये पता ही नहीं चल पाता।

एक वाकया मेरे सामने हुआ। 2019 के चुनाव के पहले महाराष्ट्र के बड़े नेता राधाकृष्ण विखे पाटिल जो उस समय विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष भी थे, वो सीट बँटवारे से पहले दिल्ली गये थे। उनको अशोक चव्हाण खुद लेकर राहुल गांधी के पास गये। उस समय विखे पाटिल अपने बेटे सुजय विखे पाटिल के लिए अहमदनगर की लोकसभा सीट चाह रहे थे जबकि एनसीपी नेता शरद पवार अपनी व्यक्तिगत खुन्नस के चलते ये सीट नहीं छोड़ रहे थे। विखे पाटिल परिवार ने शरद पवार को एक क़ानूनी मामले में फँसाया था और उसके चलते शरद पवार का राजनीतिक करियर तक दाँव पर लग गया था। विखे पाटिल राहुल के सामने पहुँचे तो राहुल ने उनकी बात को बीच में ही काटते हुए कह दिया कि शरद पवार की बात तो माननी ही होगी, अगर आप अपने बेटे को लोकसभा टिकट दिलाना चाहते हैं तो एनसीपी से मैं बात कर सकता हूँ। विखे पाटिल ने कहा कि उनके परिवार की राजनीति शरद पवार विरोधी है, कैसे वो चले जायें। इस पर राहुल ने कहा कि फिर आप तय कर लें। विखे पाटिल भरे मन से बाहर आये। अगले ही दिन बीजेपी चले गये। 

राहुल गांधी से उनके गोरखपुर दौरे में भी मैंने उनसे 2012 में यही सवाल पूछा था तो उन्होंने कहा था कि मुझे सिर्फ ब्लैक एंड व्हाइट ही नजर आता है, ग्रे नहीं। जबकि भारत की राजनीति में तो सब ग्रे है। यही राहुल की मुश्किल भी है। विदेशों में पढ़ाई और फाइनेंस सेक्टर में नौकरी का उन पर खूब असर हुआ। वो सब कुछ साफ साफ देखना चाहते हैं और वो भरोसा जल्दी करते हैं और छोड़ते भी हैं। ये भारतीय राजनीति में बहुत कठिन है। यही सब उनके पिता राजीव गांधी के साथ भी होता था। उनके कई मित्र साथ रहे और कठिन समय में छोड़ते चले गये। लेकिन सोनिया गांधी ने ये सीख लिया था, इसलिए उन्होंने ये गलती नहीं की। कांग्रेस अपने कट्टर विरोधी और साफगोई वाले लोगों को भी साधती रही, मनाती रही, पद देती रही और यहां तक कि बिना मन के भी गुलाम नबी आजाद जैसों को बहुत ऊंचे पद तक ले गयी लेकिन राहुल नाराज हुए तो सीधे बाहर का रास्ता दिखा दिया।

एक वाकया है। कांग्रेस का दिल्ली के बुराड़ी में अधिवेशन चल रहा था तो अहमद पटेल, जो तब सोनिया गांधी के सलाहकार थे, मंच पर नहीं, सामने आकर सोफे पर बैठ गये। तब राहुल की उनसे खटपट चल रही थी। सोनिया गांधी ने ये देखा तो राहुल को इशारा किया और राहुल से खुद जाने को कहा। राहुल खुद जाकर हाथ पकड़कर अहमद पटेल को मंच पर लाये और पहली पंक्ति में बिठा दिया। ये तहजीब सोनिया गांधी को हमेशा सबसे ऊपर रखती रही। राहुल को अभी ये सब सीखने और खुद में बदलाव लाने की ज़रूरत है लेकिन कहते हैं कि स्वभाव नहीं बदलता, आदत बदल सकती है।

अब भी कांग्रेस में राहुल के क़रीबी ही कई बार दखलंदाजी करते हैं। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को न चाहते हुए भी कई बार केसी वेणुगोपाल और राहुल के बाकी क़रीबियों की सुननी पड़ती है। खड़गे अब भी कई जगह मन से फ़ैसले नहीं ले पाते और राहुल के करीबी गलत फैसले तक करा ले जाते हैं। इसका असर महाराष्ट्र में तो खास तौर पर देखने को मिलता है। जाहिर है लंबे समय तक पार्टी में ये सब अच्छा नहीं है। महाराष्ट्र में तो आने वाले समय में कम से कम 14 विधायक और कुछ बड़े नेता भी इसी लिए पलायन कर सकते हैं क्योंकि राहुल उनकी सुनते नहीं और जिसकी सुनते हैं वो किसी और की नहीं सुनता।

जाहिर है राहुल को तो पहले दोस्त सही चुनने होंगे और उन दोस्तों को पहले से ही सिर पर चढ़ाना बंद करना होगा और फिर अगर कुछ ग़लत भी हो तो बिना पता लगे साइडलाइन करना होगा ताकि पार्टी का नुक़सान ना हो वरना ये दोस्तों के दोस्त ना रहने का सिलसिला यूँ ही चलता रहेगा।