अगस्त का महीना: करवट बदलने को बेचैन है भारतीय राजनीति!  

07:58 am Aug 30, 2022 | प्रेम कुमार

अगस्त क्रांति के लिए मशहूर रहा यह महीना राजनीतिक लोगों के लिए संकल्प का महीना भी होता है। आजादी के अमृत वर्ष में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रेवड़ी कल्चर मिटाने की बात कही, तो वे इसी मुद्दे पर खुद विपक्ष के निशाने पर भी आ गये। वहीं, आम चुनाव की आहट भी इस महीने सुनाई देने लगी जब बिखरे विपक्ष ने भी मोदी सरकार को अपने-अपने तरीके से आंखें दिखलायी। 

5 अगस्त को काले कपड़ों में कांग्रेस का विरोध प्रदर्शन और उस पर प्रधानमंत्री की ‘काला जादू’ वाली प्रतिक्रिया से आगे जब देश के विभिन्न मुख्यमंत्रियों के बयानों पर गौर करते हैं तो पता चलता है कि देश में आम चुनाव की सियासत की आंच कितनी गर्म हो चुकी है। 

तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव, बिहार के पाला बदल मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, झारखण्ड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के ताजा बयानों पर गौर करें-

  • “जनकल्याणकारी योजनाओं को रेवड़ी बताकर प्रधानमंत्री देश की प्रांतीय सरकारों का अपमान कर रहे हैं।“- के. चंद्रशेखर राव, 15 अगस्त।
  • “हम रहें या न रहें, 2024 में वो नहीं रहेंगे”- नीतीश कुमार, 16 अगस्त।
  • “ये जितनी महंगाई हो रही है, जीएसटी बढ़ रही है, ये सारा पैसा जाता कहां है?... ये अपने अरबपति दोस्तों के कर्जे माफ करते हैं और विधायक खरीदते हैं” - अरविंद केजरीवाल, 26 अगस्त।
  • “हम अपने ख़ून की आखिरी बूंद तक लड़ेंगे”- हेमंत सोरेन, 27 अगस्त। “केंद्र सरकार में हिम्मत है तो मुझे गिरफ्तार कर दिखाएं”- ममता बनर्जी, 29 अगस्त।

तेलंगाना (17 लोकसभा सीट), बिहार (40 लोकसभा सीट), दिल्ली (7 लोकसभा सीट), झारखण्ड (14 लोकसभा सीट) और पश्चिम बंगाल (42 लोकसभा सीट) में कुल 120 लोकसभा सीटें हैं। इनमें बीजेपी या एनडीए के पास 2019 के लोकसभा चुनाव में 77 सीटें थीं। तकरीबन 66 फीसदी सीटें एनडीए ने जीती थीं। बीजेपी और बीजेपी विरोध की सियासत के लिहाज से इन प्रदेशों का महत्व बड़ा है।

महाराष्ट्र की चर्चा थोड़ी अलग से करने की जरूरत है क्योंकि यहां शिवसेना दो हिस्सों में टूट गयी है। एकजुट शिवसेना के साथ बीजेपी ने 2019 में 48 में से 41 सीटें जीती थीं। अगर इस आंकड़े को जोड़ लें तो 168 लोकसभा सीटों में एनडीए के पास 118 सीटें हो जाती हैं। 

बीजेपी को सबक सिखाने की बेचैनी

नीतीश कुमार ने फिर से मुख्यमंत्री बनने के बाद अपने बयानों से ऐसे संकेत दिए हैं मानो वे बीजेपी को सत्ता से बाहर करने के लिए खुद भी बर्बाद होने को तैयार हैं। यही जज्बा बाकी मुख्यमंत्री भी दिखा रहे हैं। 

ममता बनर्जी ने खुद को गिरफ्तार करने की चुनौती पेश कर मोदी सरकार को वास्तव में अपने तेवर ही दिखलाए हैं। वहीं, केसीआर मोदी सरकार पर सबसे ज्यादा मुखर हैं। 

अरविंद केजरीवाल का दावा तो देश में बीजेपी का विकल्प बनने का दिख रहा है। हेमंत सोरेन में कुर्बान होने का जज्बा नज़र आता है। वे टूटने को तैयार हैं पर झुकने को नहीं।

ये सारे तेवर अपनी-अपनी जगह गंभीर होते हुए भी क्या बीजेपी का बाल भी बांका कर पाएंगे?- यह बड़ा सवाल है। लेकिन, क्या ये तेवर बेमतलब रह जाएंगे? बीजेपी के विरुद्ध इन मुख्यमंत्रियों के लीक से हटकर दिखते तेवर आम चुनाव की फिजां बना रहे हैं इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। यह बीजेपी की सियासत के लिए चिंता का सबब होना चाहिए। 

कांग्रेस पर टिकी हैं निगाहें

कांग्रेस के नजरिए से यह माना जा सकता है कि मोदी सरकार से टकराते क्षेत्रीय क्षत्रपों के इस तेवर को नेतृत्व देने में पार्टी विफल साबित हो रही है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि वक्त का इंतज़ार किया जा रहा है कि इस तेवर को एक जुबान मिले। राहुल गांधी की प्रस्तावित ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में इन अलग-अलग तेवरों को जोड़ने की चिंता है या नहीं, यह अभी भविष्य के गर्त में है। फिलहाल कांग्रेस अपना अध्यक्ष चुनने की कवायद में जुटी है। यह भी जरूरी है। 

बीजेपी के भीतर बेचैनी को नितिन गडकरी के रूप में देखा जा रहा है जिन्हें बीजेपी ने नेतृत्वकारी जमात से बाहर का रास्ता दिखा दिया है। संदेश दिए जा रहे हैं कि ऐसा आरएसएस से मंजूरी मिलने के बाद किया गया। मगर, नितिन गडकरी की बेचैनी और बढ़ गयी लगती है। वे अपने ताज़ा बयान में कह रहे हैं-

“किसी को इस्तेमाल कर फेंकना ठीक नहीं है”- नितिन गडकरी, 29 अगस्त। 

गडकरी अपनी ही बीजेपी की सरकार पर हमला भी कर रहे हैं- “समय सबसे बड़ी पूंजी है. सबसे बड़ी समस्‍या यह है कि सरकार समय पर फैसले नहीं ले रही है।”– 22 अगस्त, मुंबई।

गडकरी क्या बीजेपी के भीतर बेचैन दूसरी जुबानों को भी आवाज दे पाएंगे?- यह महत्वपूर्ण प्रश्न है। फिलहाल बीजेपी इस मामले में खुशकिस्मत दिख रही है। बीजेपी में नितिन गडकरी को इतनी आजादी नहीं कि वे गुलाम नबी आज़ाद बन पाएं। उससे पहले ही उन्हें दंतविहीन बना दिया गया। इसके बावजूद आम चुनाव से पहले अगस्त की सियासी गर्मी बीजेपी में भी है, इस बात की पुष्टि करने के लिए नितिन गडकरी काफी हैं।

मौके गंवा रही है बीजेपी 

बीजेपी ने अगर समय रहते क्षेत्रीय क्षत्रपों को साधने की कोशिश नहीं की या फिर अपने एनडीए के कुनबे के विस्तार के प्रति कोई गंभीरता नहीं दिखलायी तो बीतते वक्त के साथ मौके भी हाथ से निकलते चले जाएंगे। अपनी सरकार के समांतर विकल्पहीनता से आत्ममुग्ध होकर वास्तव में बीजेपी विपक्ष को विकल्प ही दे रही होगी।

अगर यह बात सच है कि बीजेपी के विरुद्ध उठ रही आवाज़ को कांग्रेस ज़ुबान नहीं दे पा रही है तो सच यह भी है कि बीजेपी भी अपने विरुद्ध उठती आवाज़ को कमजोर नहीं कर पा रही है। अगस्त महीने में तमाम दलों की सियासत का कुल जमा यही दिखता है कि भारतीय राजनीति करवट बदलने को बेचैन है।