नेहरू को लड़खड़ाते भारत को खड़ा करना था, मंदिर को नहीं!
28 अप्रैल को कर्नाटक में एक जनसभा को संबोधित करते हुए भारतके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि अयोध्या में राम मंदिर बनना है यह फैसला आजादी मिलने के अगले दिन ही हो जाना चाहिए था। उन्होंने कोई तारीख तो नहीं बताई लेकिन शायद उनका मतलब 16 अगस्त 1947 से रहा हो। नरेंद्र मोदी का जन्म 17 अगस्त 1950 को यानि आजादी के लगभग 3 सालों बाद हुआ था। संभवतया उन्हे न मालूम हो कि देश किन परिस्थितियों से गुजर रहा था। लेकिन आज जब वो भारत के प्रधानमंत्री हैं तो उन्हे भारत के इतिहास और मुख्यरूप से भारतीय ग़ुलामी के इतिहास को अच्छे से देखना चाहिए था।
15 अगस्त 1947 को भारत सैकड़ों सालों की ग़ुलामी के बाद अब पुनः अपने आपको पाने वाला था, देश की लगभग 34 करोड़ आबादी को पहली बार आजादी से सांस लेने का मौका मिल रहा था। मैं निवेदन करूंगा कि पीएम मोदी स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का ‘ट्राइस्ट विद डेस्टनी’ भाषण जरूर पढ़ें जो उन्होंने 15 अगस्त रात 12 बजे दिया था। इस भाषण में आजादी की महक थी, देश की चिंता थी, परेशानियों का जिक्र था और सीमित संसाधनों में भारत को अपने पैरों पर खड़ा करने का अनकहा वादा था।
रही बात मंदिर और मस्जिद की, तो भारत के 34 करोड़ लोगों के पास अपने अपने मंदिर-मस्जिद-चर्च और गुरुद्वारे मौजूद थे। प्रधानमंत्री के तौर पर नेहरू जी की चिंता थी कि "...भारत के आम आदमियों, किसानों और श्रमिकों के लिए स्वतंत्रता और अवसर” लाए जाएं, “गरीबी, अज्ञानता और बीमारी” से लड़कर उसे समाप्त किया जाए, “एक समृद्ध, लोकतांत्रिक और प्रगतिशील राष्ट्र का निर्माण” किया जाए, साथ ही ऐसी “सामाजिक, आर्थिकऔर राजनीतिक संस्थाओं का निर्माण” किया जाए जो प्रत्येक पुरुष और महिला को न्याय और जीवन की परिपूर्णता सुनिश्चित करें। इतने अहम और महत्वपूर्ण लक्ष्य के बीच किसी धार्मिक भवन की जरूरत महसूस करना ही अपराध था।
भारत कबीर और तुलसी का देश है जहां आदर्श और लक्ष्यों को लेने की बात जब भी आएगी इन्ही से आदर्श लिए जाएंगे किसी सत्ता लोलुप व्यक्ति से नहीं जो चुनावी जीत के लिए भारत की अखंडता का सौदा करने को तैयार है। कबीर के लिए मूर्ति होना न होना सब एक समान है, मंदिर और मस्जिद के लिए लड़ पड़ने की प्रवृत्ति के कबीर प्रखर आलोचक थे। वो निराकार में साकार और साकार में निराकार देख लेते हैं और सम्पूर्ण जनमानस के लिए संदेश छोड़ जाते हैं कि- “सन्तो धोखा का सू कहिए। गुण मेंनिर्गुण निर्गुण में गुण है, बांटछांडि क्यू बहिए”। तो रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास एक कदम और आगे बढ़ाकर कह डालते हैं कि- ‘सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा’। तुलसीदास तो यहाँ तक कहते हैं कि- "अगुन अरूप अलग अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई” , अर्थात जो ब्रह्म निर्गुण, अरूप, अदृश्य और अजन्मा है वही भक्तों के प्रेमवश सगुण हो जाता है।
इसलिए अपना दिमाग ठिकाने पर रखिए ज्यादा मंदिर मस्जिद के चक्कर में न पड़िए, भारत के बारे में सोचिए, उसके लोगों के बारे में सोचिए। नेहरू जी को ऐसे आदर्शों से संदेश लेना था और एक नव-उदित राष्ट्र के लिए संसाधन जुटाना था उसे आगे बढ़ाना था। इसलिए उन्होंने वही किया। नेहरू भारत की एकता और अखंडता का आह्वान करते हुए ‘ट्राइस्ट विद डेस्टनी’ में आगे बोलते हैं कि- "हम सभी, चाहे हम किसी भी धर्म के हों, समान अधिकारों, विशेषाधिकारों और दायित्वों के साथ समान रूप से भारत की संतान हैं। हम सांप्रदायिकता या संकीर्णता को प्रोत्साहित नहीं कर सकते, क्योंकि कोई भी राष्ट्र महान नहीं हो सकता जिसके लोग विचार या कार्य में संकीर्ण हों।"
वास्तविकता तो यह है कि इनमूल्यों से भारत महान बना है किसी धार्मिक ढांचे के रहने या न रहने की शर्त पर नहीं। भारत के पहले प्रधानमंत्री एक स्वतंत्र होते राष्ट्र के गवाह थे, वो इसकी स्वतंत्रता के महान नायक थे। उन्होंने भारत की आजादी के लिए 30 सालों तक बिना थके लड़ाई की, जेल गए लाठी खाई, जो हो सकता था सब किया। नेहरू, पीएम मोदी की तरह भाग्यशाली नहीं थे जिसे डॉ मनमोहन जैसे जबरदस्त प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाला भारत मिला हो, नेहरू को तो 200 सालों तक अंग्रेजों द्वारा लगातार चूसा गया भारत मिला था जहां गरीबी, लाचारी, बीमारी चारों तरफ पसरी पड़ी थी। भुखमरी चरम पर थी तो शिक्षा अपने निम्नतम स्तर पर। युद्ध और सांप्रदायिकता भारत को लगातार और पीछे धकेल देना चाहते थे। दुनियाभर के बुद्धिजीवी लगातार भारत के लोकतंत्र के असफल होने की घोषणाएं करने में लगे हुए थे।
नेहरू के पास पीएम मोदी की तरह आत्ममुग्ध होने का समय नहीं था, उन्हे 200 सालों तक रौंदे गए भारत को फिर से खड़ा करना था। ऐसे में राम मंदिर या किसी भी धार्मिक अनुष्ठान के बारे में सोचना करोड़ों भारतीयों के साथ धोखा होता। लेकिन फिर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आज यह शिकायत है कि नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार ने मंदिर बनाने पर ध्यान क्यों नहीं दिया। पर नेहरू को फ़र्क नहीं पड़ता कि कौन क्या सोचता है। उन्हे सिर्फ अपने नागरिकों की चिंता थी।
1947 में, एक भारतीय नागरिक की औसत आयु (जीवन प्रत्याशा) लगभग 32 वर्ष थी, मतलब यह हुआ कि भारत में अंग्रेजों ने जीवन जीने की ऐसी कोई परिस्थिति नहीं छोड़ी थी जिसमें 32 सालों से ज्यादा आम आदमी जिंदा रह सकता, ऐसे में कौन अपने नागरिकों को छोड़कर मंदिर बनाने के बारे में सोचता? अगर नेहरू ने तब मंदिर बनाने के बारे में सोचा होता तो आज औसत आयु 70 वर्ष (2022) कैसे होती?
मोदी जी की जानकारी के लिए मैं बताना चाहता हूँ कि विशेषज्ञों की राय में, जीवन प्रत्याशा मानव विकास के लिए सबसे महत्वपूर्ण और सबसे अधिक उपयोग किए जाने वाले संकेतकों में से एक है। और अध्ययन यह बताते हैं कि बिना दवाओं, उपचार और तकनीक के यह बेहतर नहीं हो सकती। मंदिर न बनने पर नेहरू जी से शिकायत रखने वाले मोदी को पता होना चाहिए था कि नेहरू को जो भारत मिला था उसमें सिर्फ 28 मेडिकल कॉलेज थे और 34 करोड़ जनसंख्या के लिए नाम मात्र की सीटें।
नेहरू जी ने मंदिर की बजाय, ‘भारत बनाना’ जारी रखा और आज यह हालत है कि भारत में 695 मेडिकल कॉलेज हैं और एक लाख से ज्यादा एमबीबीएस की सीटें। अमेरिकन जर्नल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन एंड हाइजीन के अनुसार, अंग्रेजों ने नेहरू जी के सामने जो भारत छोड़ा था वह बुरी तरह बीमारियों की गिरफ्त में था, मलेरिया, टीबी, हैजा से हाहाकार मचा हुआ था। भारत की लगभग 7.5 करोड़ आबादी मलेरिया की शिकार थी, नेहरू ने जी तोड़ मेहनत की और 1964 में भारत में मलेरिया के मामले घटकर मात्र एकलाख रह गए। आजादी के समय मातृत्व मृत्यु दर लगभग 2000 थी। अर्थात प्रत्येक एक लाख शिशुओं को जन्म देते हुए 2000 माताओं की मृत्यु हो जाती थी। 1947 में भारत की 34 करोड़ आबादी की मात्र 18% जनसंख्या साक्षर थी।
अब नेहरू इन माताओं को मौत से बचाते, लोगों को शिक्षित करने का प्रबंध करते कि आजादी के बाद मंदिर निर्माण में लग जाते? मोदी जी को पता होना चाहिए कि जब अंग्रेजों ने भारत छोड़ा, तो वे अपने पीछे एक टूटा हुआ, जरूरतमंद, अविकसित और आर्थिक रूप से अस्थिर देश छोड़कर गए थे। नेहरू जी ने भीषण अशिक्षा से जूझ रहे भारत को शिक्षा की ओर मोड़ना तय किया। 1950 में भारत सरकार ने शिक्षा सहित जीवन के विभिन्नपहलुओं के विकास का खाका तैयार करने के लिए योजना आयोग की नियुक्ति की।
इसके बाद पंचवर्षीय योजनाएं तैयार की गईं और लागू की गईं। इन योजनाओं के मुख्य लक्ष्य थे 1) सार्वभौमिक प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करना, 2) निरक्षरता उन्मूलन, 3) व्यावसायिक और कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रम स्थापित करना, 4) तकनीकी शिक्षा, विज्ञान और पर्यावरण शिक्षा, नैतिकता और स्कूल और काम के बीच संबंध पर, और (5) देश के हर जिले में उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा की सुविधाएं प्रदान करना। नेहरू जी ने आज़ादी के बाद अपनी पहली पंचवर्षीय योजना में वैज्ञानिक अनुसंधान को प्राथमिकता देना तय किया इसने आईआईटी और आईआईएससी जैसे प्रतिष्ठित वैज्ञानिक संस्थान खोले। आज़ादी के मात्र तीन वर्षों के बाद ही 1950 में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान की स्थापना हुई, इसरो बनाया गया।
तकनीकी शिक्षा देने के लिए बन चुके अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद(AICTE) को अंग्रेजों के जाने के बाद समावेशी रूप देना था, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC), और राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) जैसे संस्थानों की नींव रखनी थी ताकि आने वाला भारत हर रूप में सशक्त बन सके। आज़ादी के समय भारत में मात्र एक लाख चालीस हजार विद्यालय थे और उनकी स्थिति भी बहुत खराब थी। कॉलेजों की संख्या मात्र 578 ही थी। नेहरू अगर देश बनाने, के पहले मंदिर निर्माण में लग जाते तो आज विद्यालयों की संख्या 15 लाख और कॉलेजों की संख्या 43 हजार कैसे पहुँच पाती?
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समझा जा सकता है कि मंदिर और मस्जिद जैसी चीजें नेहरू की प्राथमिकता में क्यों नहीं थीं। वास्तव में नेहरू के पास सांस लेने की फुरसत नहीं थी। भारतीय स्वतंत्रता का जन्म द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका और 1943 के बंगाल अकाल के बाद हुआ था।
विभाजन की वजह से लाखों लोग मौत का शिकार हो चुके थे, हजारों की संख्या में बच्चे अनाथ थे। चारों तरफ समस्याएं ही समस्याएं थीं, अशिक्षा एकमात्र समस्या नहीं थी जिससे नेहरू को लड़ना था। 1947 में स्वतंत्रता के समय तक, पूरे देश में मात्र 7,400 अस्पताल थे जिनमें प्रति 1,000 जनसंख्या पर बिस्तरों की संख्या का अनुपात मात्र 0.24 था। इंजीनियरिंग शिक्षा के लिए 36 संस्थान थे, जिनमें वार्षिक प्रवेश के लिए सिर्फ 2500 छात्रों के लिए स्थान था। मतलब करोड़ों की आबादी वाला देश प्रतिवर्ष 2500 से ज्यादा इंजीनियर नहीं बना सकता था।
आम छात्रों के पढ़ने के लिए सिर्फ 5 विश्वविद्यालय ही थे। भारत जैसे विशाल भूखंड में नाममात्र की ही सड़कें थीं, भारत कुल 1362 मेगावाट से ज्यादा बिजली, बनाने की स्थिति में नहीं था। शहर भी अंधेरे में डूबे रहते थे, गाँव की तो बात ही नहीं।अंग्रेजों ने जो भारत छोड़ा वह भीषण भूख से मर रहा था, जबकि जो भारत मोदी को मिला उसमें खाद्य सुरक्षा कानून (2013) जैसी पहलों ने भारत की भूख को हमेशा के लिए केन्द्रीय सरकार की जिम्मेदारी बना दिया जिससे न मोदी, और न ही आने वाली कोई सरकार भाग सकती है। लेकिन नेहरू के साथ ऐसा नहीं था। वह जवाहरलाल नेहरू ही थे जिन्होंने कहा था कि हर चीज इंतजार कर सकती है, लेकिन कृषि नहीं, भूख नहीं।
नेहरू के नेतृत्व में कृषि अनुसंधान परिषद ने घोषणा करते हुए कहा कि, ''भारत का सबसे महत्वपूर्ण कार्य भूख की लड़ाई पर विजय पाना होगा”। नेहरू हर एक संसाधन को सोच समझकर इस्तेमाल कर रहे थे। उन्हे अंतरिक्ष प्रोग्राम पर भी काम करना था, बांध बनाने थे, बहुउद्देशयीय परियोजनाओं का निर्माण करना था, ताकि कृषि, बिजली और सिंचाई के क्षेत्र में आमूल चूल परिवर्तन किया जा सके। नेहरू को अशिक्षा, भ्रष्टाचार, गरीबी, लैंगिक भेदभाव, अस्पृश्यता, क्षेत्रवाद और सांप्रदायिकता से लड़ना था। 1947 में जब भारत ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की, तो इसकी जीडीपी मात्र 2.7 लाख करोड़ थी, जो विश्व की जीडीपी का 3% थी, यदि भारत के निर्माताओं ने मंदिर निर्माण पर ध्यान लगाया होता तो मोदी जी आज 250 लाख करोड़ रुपये की जीडीपी वाले भारत पर नहीं बैठे होते।
अंग्रेजों को भारतीयों के रोजगार से कोई मतलब नही था, और न ही यहाँ के कारखानों और उद्योगों से। अगर द्वितीय विश्वयुद्ध की समस्या सामने न आई होती तोअंग्रेजों ने न जाने कितने भारतीय उद्योगों को खुद अपने हाथों से ही समाप्त कर दिया होता। आजादी के समय तक जो भी कारखाने बच गए थे वो सिर्फ अंग्रेजों की मजबूरी का परिणाम थे। लेकिन आजादी के बाद नेहरू को पुराने कारखानों को चलाना था, नए कारखाने खोलने थे, गरीब भारतीयों का, निजी उद्योगपति, सिर्फ अपने लाभ के लिए शोषण न करना शुरू कर दें इसलिए अर्थव्यवस्था का एक ऐसा मॉडल अपनाना था जो न ही सोवियत संघ की तरह प्राइवेट सेक्टर के शोषण से जुड़ा हो और न ही अमेरिका जैसा क्रोनी कैपिटल की ओर बढ़ने वाली व्यवस्था से।
नेहरू ने समाजवादी झुकाव वाली मिश्रित अर्थव्यवस्था बनाई जिसने भारत को उस समय गति प्रदान की जब लोग इसे असफल मानकर बैठ गए थे। हालाँकि भारत में ही राजगोपालाचारी के नेतृत्व में स्वतंत्रता पार्टी नेहरू के इस मॉडल का विरोध करने में लगी हुई थी। नेहरू रुके नहीं, थके नहीं, उन्होंने न ‘महाराजाओं’को छोड़ा और न ही ‘नवाबों’ को, जो भी भारत, भारतीयों और संविधान के बीच आया, उसे नेहरू से सामना करना पड़ा।
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नेहरू लगातार लगे रहे। उन्होंने मोदी जी का प्रिय राम मंदिर तो नहीं बनाया लेकिन ‘आधुनिक भारत के मंदिरों’ का निर्माण करने में वो पीछे नहीं रहे।
इसके तहत बड़े पैमाने पर सार्वजनिक कार्यों और औद्योगीकरण अभियान के साथ महत्वपूर्ण बाँधों, सड़कों, सिंचाई नहरों, थर्मल और पनबिजली संयंत्रों और कई अन्य चीजों का निर्माण हुआ। खनन, इस्पात, विमानन और अन्य भारी उद्योगों जैसे अर्थव्यवस्था के बड़े क्षेत्रों में लगातार काम किया जा रहा था। जितना संभव था, रोजगार बढ़ाया गया, कृषि पर ध्यान केंद्रित किया गया। विश्व परिदृश्य पर मजबूती से खड़े रहने के लिए भारत को परमाणु शक्ति भी चाहिए थी इसलिए नेहरू का ध्यान मंदिर से पहले परमाणु ऊर्जा पर गया। नेहरू के नेतृत्व में देश ने 1950 के दशक के अंत में परमाणु ऊर्जा पर काम करना शुरू किया जिसका परिणाम नेहरू की मौत के बाद ही आ सका जब भारत ने 1971 में पोखरण में परमाणु परीक्षण करके दुनिया को अपनी ताकत का एहसास करवाया।
लेकिन भारत ने यह करके दिखाया क्योंकि नेहरू ने संविधान, संस्थाओं और नागरिकों के लिए काम किया, किसी धार्मिक इमारत के निर्माण के लिए नहीं। नेहरू के लिए धर्म वही था जो तुलसी और कबीरके लिए था, लेकिन शायद मोदी जी के मामले में ऐसा नहीं है। इसके बावजूद 21वीं सदी के भारत की 144 करोड़ आबादी का नेतृत्व करने वाले प्रधानमंत्री की दूरदृष्टि का स्तर देखिए कि उन्हे लगता है कि आजादी के बाद सरकार को मंदिर बनाना चाहिए थे। मंदिर सरकार द्वारा नहीं बनाया जाना था यह बात अंबेडकर द्वारा बनाए गए संविधान द्वारा तय की जा चुकी थी, सरकार हस्तक्षेप नहीं कर सकती थी।
अगर पीएम को कोई शिकायत है भी तो अंबेडकर और तमाम संविधान सभा के लोगों से होनी चाहिए न कि नेहरू और काँग्रेस से। मोदी भी अगर सत्ता का लोभ छोड़कर भारत की अखंडता के लिए काम करना चाहते हैं तो वो नेहरू से काफी कुछ सीखस कते हैं। चुनावी रैलियों में मंदिर, मस्जिद, मुस्लिम लीग, पाकिस्तान, कब्रिस्तान जैसी बातें छोड़कर इस बात पर काम करें कि कैसे भारत के लोगों के हित में काम किया जाए। उदाहरण के लिए, वर्तमान में डॉक्टर-रोगीअनुपात प्रति 1000 लोगों पर केवल 0.7 डॉक्टर है, जबकि डब्ल्यूएचओ का औसत प्रति 1000 लोगों पर 2.5 डॉक्टर है। साथ ही एक अध्ययन के अनुसार, भारत में 65% चिकित्सा खर्च मरीजों द्वारा अपनी जेब से किया जाता है और इसका कारण यह है कि सार्वजनिक अस्पतालों में खराब सुविधाओं के कारण उनके पास निजी स्वास्थ्य देखभाल का उपयोग करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है।
मोदी चाहें तो लोगों को राहत पहुँचा सकते हैं। क्योंकि यह तो तय है कि तबीयत खराब होने पर मंदिर नहीं अस्पताल ही जाना होगा। मोदी जी चाहें तो डॉक्टरों की संख्या बढ़ाने में मदद करें और अपने केन्द्रीय मंत्रियों को रोकें कि आयुर्वेद के नाम पर वो आधुनिक चिकित्सा को बदनाम न करें। मोदी जी चाहें तो वर्तमान में 57% एनीमिया सेपीड़ित भारतीय ‘मातृशक्ति’ के बारे में कुछ करें, बढ़ रही भुखमरी और लोगों के घटते जीवन स्तर और बढ़ रही असमानता और संसाधनों के केन्द्रीकरण से उत्पन्न समस्याओं केबारे में सकारात्मक कदम उठायें। और हो सके तो 60 सालों बाद ही सही, नेहरू से थोड़ी आधुनकिता ही सीख लें। लेकिन यह सबअब तब काम आएगा जब मोदी जी के लिए 4 जून के परिणाम सकारात्मक आएंगे।