+
फैज़ल की संसद सदस्यता रद्द करने में जल्दबाजी क्यों?

फैज़ल की संसद सदस्यता रद्द करने में जल्दबाजी क्यों?

राहुल गांधी को लोकसभा की सदस्यता से अयोग्य ठहराने में जिस तरह लोकसभा सचिवालय की जल्दबाजी और राजनीति का पर्दाफाश हुआ है, लक्षद्वीप के सांसद मोहम्मद फैजल पीपी की सदस्यता के मामले ने उसकी पुष्टि कर दी है। फैजल के मामले में नाटकीय घटनाक्रम हुए हैं, क्या यह राहुल गांधी के मामले से पहले की रिहर्सल थी।

लक्षद्वीप के सांसद मोहम्मद फ़ैज़ल की लोकसभा सदस्यता बहाल कर दी गई है। फ़ैज़ल को हत्या के प्रयास के एक मामले में 10 साल की सजा सुनाए जाने के ठीक दो दिन बाद उनकी लोकसभा सदस्यता रद्द कर दी गई थी। लेकिन हाई कोर्ट से सजा पर रोक लगने के बाद उनकी सदस्यता बहाली में 2 महीने से ज्यादा का वक्त लग गया। इसके लिए उन्हें लंबा संघर्ष करना पड़ा। बार-बार स्पीकर से मिलकर मिन्नतें करनी पड़ीं। बात नहीं बनी तो सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई से ठीक पहले लोकसभा सचिवालय ने उनकी सदस्यता बहाल कर दी। 

क्या कहा लोकसभा सचिवालय ने?

बुधवार को लोकसभा सचिवालय ने लक्षद्वीप के सांसद मोहम्मद फ़ैज़ल की लोकसभा सदस्यता बहाली की अधिसूचना जारी की। इसमें बताया गया है कि 11 जनवरी को कवराती की जिला अदालत के फ़ैज़ल को 10 साल की सजा सुनाए जाने के बाद 13 जनवरी को उनकी सदस्यता रद्द करने की अधिसूचना जारी की गई थी। लेकिन 25 जनवरी को हाईकोर्ट के केरल हाईकोर्ट ने उनकी सजा पर रोक लगा दी है। इसलिए उनकी सदस्यता रद्द करने वाली अधिसूचना पर इस मामले में अदालत से अगले आदेश तक अमल करने से रोक लगाई जाती है। अधिसूचना में सजा पाए सांसदों की संसद सदस्यता रद्द करने संबंधी संविधान के  अनुच्छेद 102(1)(ई) और जनप्रतिनिधि कानून 1955 के सेक्शन 8 का हवाला दिया गया है।

सदस्यता बहाली की टाइमिंग पर सवाल

लोकसभा सचिवालय की इस अधिसूचना की टाइमिंग को लेकर सवाल उठ रहे हैं। सवाल गंभीर हैं। मोहम्मद फ़ैज़ल ने अपनी लोकसभा सदस्यता रद्द किए जाने के फैसले को मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। फैजल के वकील ने सुप्रीम कोर्ट में तत्काल उनके मामले पर सुनवाई की मांग करते हुए कहा था कि संसद सत्र के दौरान अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने के उनके मुवक्किल सांसद के मौलिक अधिकार का हनन हो रहा है। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने उनसे पूछा था कि क्या यह मौलिक अधिकारों के क्षेत्र में आता है? सुप्रीम कोर्ट ने इस पर बुधवार को सुनवाई करने को कहा था। 

पहले क्यों नहीं किया फैसला? मोहम्मद फ़ैज़ल अपनी सदस्यता बहाली के लिए कई बार लोकसभा स्पीकर से मिल चुके थे। एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने भी लोकसभा स्पीकर को इस सिलसिले में चिट्ठी लिखी थी। पिछले शुक्रवार को फ़ैज़ल ने एनसीपी की नेता सुप्रिया सुले के साथ स्पीकर से मुलाकात करके अपनी  सदस्यता बहाली की अपील की थी। स्पीकर ने उन्हें सोमवार तक फैसला करने का भरोसा दिया था। फ़ैज़ल ने ऐलान किया था कि अगर सोमवार तक उनकी सदस्यता बहाल नहीं हुई तो वो सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाएंगे। स्पीकर ने सोमवार तक फैसला नहीं किया। लिहाजा मंगलवार को फ़ैज़ल ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर दी। सुप्रीम कोर्ट में उनकी याचिका पर सुनवाई की तारीख मुकर्रर होते ही लोकसभा सचिवालय ने उनकी सदस्यता बहाल कर दी। यह आश्चर्यजनक है।  

उप चुनाव कराने की थी जल्दबाजी

फ़ैज़ल की सदस्यता रद्द करने से लेकर बहाली तक जमकर सियासी ड्रामा हुआ। चुनाव आयोग को इस सीट पर उपचुनाव कराने की भी जल्दी थी। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 11 जनवरी को फ़ैज़ल को सजा हुई। 13 जनवरी को उनकी लोकसभा सदस्यता रद्द हुई। 18 जनवरी को ही चुनाव आयोग ने इस सीट पर उपचुनाव का ऐलान कर दिया था। हालांकि तब तक फ़ैज़ल अपनी सजा के खिलाफ केरल हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटा चुके थे। चुनाव आयोग ने केरल हाईकोर्ट के फैसले तक का इंतजार नहीं किया। फ़ैज़ल ने चुनाव आयोग के इस फैसले को भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। सुप्रीम कोर्ट से फटकार पड़ने के बाद चुनाव आयोग ने इस सीट पर उपचुनाव टाल दिया था। आखिर चुनाव आयोग को उपचुनाव की इतनी जल्दी क्यों थी?

सदस्यता रद्द करने में फुर्ती, बहाली में सुस्ती क्यों? अहम सवाल यह है कि लोकसभा सचिवालय ने सजा होते ही सांसदों की सदस्यता रद्द करने में फुर्ती दिखाई तो सजा पर रोक के बाद सदस्यता बहाली में सुस्ती भरा रवैया क्यों अपनाया? जैसे  फ़ैज़ल को सजा सुनाए जाने के 2 दिन बाद उनकी सदस्यता रद्द कर दी गई वैसे ही राहुल गांधी की सदस्यता अगले दिन ही रद्द कर दी गई। जाहिर है लोकसभा सचिवालय ने मीडिया में छपी खबरों के आधार पर ही फैसला किया। न तो कवराती की जिला अदालत ने लोकसभा सचिवालय को फ़ैज़ल की सज़ा की औपचारिक सूचना दी और ना ही सूरत की अदालत ने राहुल गांधी की सजा के बारे में लोकसभा सचिवालय को सूचना भेजी। अगर लोकसभा सचिवालय मीडिया में खबर आने के बाद लोकसभा की सदस्यता रद्द कर सकता है तो फिर सजा पर रोक की खबर मीडिया में आने के बाद सदस्यता बहाली की अधिसूचना जारी क्यों नहीं कर सकता? इसके लिए फ़ैज़ल को क्यों बार-बार लोकसभा स्पीकर से मिलना पड़ा? को सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगानी पड़ी?

क्या कानून का बेजा इस्तेमाल हो रहा है?

क्या सजा पाने के बाद सांसदों की सदस्यता रद्द करने में संवैधानिक प्रावधानों और जनप्रतिनिधि कानून के प्रावधानों का बेजा इस्तेमाल किया जा रहा है? लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी आचार्य कहते हैं कि अदालत से सजा पाने के बाद किसी सांसद की सदस्यता स्वत: ही समाप्त नहीं हो जाती। इसे समाप्त करना पड़ता है। यह अधिकार सिर्फ राष्ट्रपति को है। लोकसभा स्पीकर या लोकसभा सचिवालय को किसी सांसद की सदस्यता रद्द करने का अधिकार नहीं है। नियम यह है कि अगर किसी सांसद को अदालत से 2 साल या उससे अधिक की सजा होती है तो इस बारे में राष्ट्रपति को सूचना दी जाएगी। राष्ट्रपति चुनाव आयोग से सलाह मशवरा करके सजायाफ्ता सांसद की सदस्यता रद्द करने का फैसला करेंगे। इस मामले में राष्ट्रपति का फैसला ही अंतिम माना जाएगा।

हैरानी की बात है कि यह प्रक्रिया न तो फैजल की सदस्यता रद्द करने में अपनाई गई और न ही राहुल गांधी के मामले में। फैजल के मामले पर ज्यादा चर्चा नहीं हुई। लेकिन राहुल का मामला सामने आते ही इस पर राष्ट्रव्यापी बहस शुरू हो गई। ऐसे में संविधान और कानून के जानकार अब इस बात पर बहस कर रहे हैं कि क्या दोनों ही मामलों में कानूनी प्रावधानों का बेजा इस्तेमाल किया गया है?

अब वक्त आ गया है कि इस मामले पर छाई धुंध को साफ किया जाए कि सांसदों और विधायकों को सज़ा होने के बाद उनकी सदस्यता के लिए क्या प्रक्रिया अपनाई जाए। इस पर भी तस्वीर साफ हो कि अगर सजा होने के तुरंत बाद सदस्यता स्वतः तुरंत रद्द होती है तो फिर सजा पर रोक के बाद सदस्यता बहाली भी स्वतः ही तुरंत होनी चाहिए। कानून के पालन में दोहरे मानदंड नहीं अपनाए जाने चाहिए।   

सत्य हिंदी ऐप डाउनलोड करें