विपक्ष वाली राज्य सरकारों से ही क्यों ठनती है राज्यपालों की?

07:51 pm Oct 25, 2022 | सत्य ब्यूरो

केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद ख़ान को हाई कोर्ट ने सोमवार को झटका दिया। झटका इसलिए कि राज्यपाल ने 9 विश्वविद्यालयों के वीसी को इस्तीफा देने का आदेश दिया था, लेकिन केरल हाई कोर्ट ने यह कहते हुए उन वीसी को तब तक काम करते रहने के लिए कह दिया जब तक कि राज्यपाल उन्हें कारण बताओ नोटिस के बाद अंतिम आदेश जारी नहीं कर देते। वैसे तो यह सामान्य विवाद राज्यपाल और विश्वविद्यालय के वीसी का लगता है, लेकिन समझा जाता है कि यह मामला राजनीतिक है और यह केरल की वामपंथी सरकार और केंद्र द्वारा नियुक्त राज्यपाल के बीच तनातनी का एक हिस्सा है।

केरल ही एकमात्र राज्य नहीं है जहाँ पर राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच तनातनी चल रही है, बल्कि हर उस विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों में तनातनी है जिसके साथ बीजेपी के अच्छे रिश्ते नहीं हैं। चाहे वह पश्चिम बंगाल का मामला हो या फिर पंजाब, झारखंड का या फिर उद्धव ठाकरे के कार्यकाल में महाराष्ट्र का।

ताजा मामला केरल का है। केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने सोमवार को ही कहा है कि राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान आरएसएस के एक टूल के रूप में काम कर रहे हैं और अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर रहे हैं। उन्होंने कहा था कि राज्यपाल का पद सरकार के खिलाफ जाने के लिए नहीं बल्कि संविधान की गरिमा को बनाए रखने के लिए होता है। उन्होंने कहा कि राज्यपाल का निर्देश अलोकतांत्रिक और कुलपतियों की शक्तियों का अतिक्रमण है। 

विजयन ने कहा, 'राज्यपाल को कुलपतियों से इस्तीफा देने के लिए कहने का कोई अधिकार नहीं है। नियुक्तियों में विसंगतियों की जवाबदेही अगर किसी की है तो वो राज्यपाल की ही है। सारी नियुक्तियां राज्यपाल ने की हैं।'

पहले भी वहाँ टकराव हो चुका है। केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए संशोधित नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ जब केरल विधानसभा में प्रस्ताव पारित हुआ था तो राज्यपाल आरिफ मोहम्मद ख़ान ने उसे असंवैधानिक बता दिया था। बाद में जब राज्य सरकार ने इस क़ानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी तो राज्यपाल ने इस पर भी एतराज जताया और कहा कि सरकार ने ऐसा करने से पहले उनसे अनुमति नहीं ली। 

जैसा आरोप केरल के मुख्यमंत्री लगा रहे हैं, कुछ वैसा ही आरोप पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी राज्य के राज्यपाल पर लगाती रही हैं। नये राज्यपाल एन गणेशन को ज़्यादा समय नहीं हो रहा है, लेकिन इससे पहले के राज्यपाल रहे जगदीप धनखड़ के साथ बंगाल सरकार के रिश्ते बेहद ख़राब रहे।

विपक्षी दलों की राज्य सरकार के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल देने वाले राज्यपालों में पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल और वर्तमान उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। राज्यपाल बनने के बाद से ही धनखड़ का राज्य सरकार के साथ टकराव होता रहा था। राज्य में अन्य मुद्दों के अलावा विश्वविद्यालय में वीसी की नियुक्ति के अधिकार को लेकर काफ़ी घमासान चला था। बंगाल में जब कभी भी हिंसा की ख़बरें आईं तो धनखड़ का नाम सबसे तीखा हमला करने वालों में होता था। धनखड़ से पहले उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ बीजेपी नेता केसरीनाथ त्रिपाठी पश्चिम बंगाल के राज्यपाल थे। उनका भी पूरा कार्यकाल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से टकराव में ही बीता था।

बनवारी लाल पुरोहित

पंजाब के राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित और राज्य की भगवंत मान सरकार के बीच भी टकराव चला था। भगवंत मान सरकार ने जब 22 सितंबर को विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया तो राज्यपाल ने पहले इसे मंजूरी दे दी थी और फिर रद्द कर दिया था। 

इसके बाद मान सरकार ने 27 सितंबर को विधानसभा का सत्र बुलाया तो राज्यपाल ने इसका एजेंडा मांगा जिस पर मुख्यमंत्री भगवंत मान ने नाराजगी जताई। काफ़ी दबाव के बाद उन्होंने विशेष सत्र के लिए मंजूरी दी थी। यह विवाद तब चल रहा था जब कयास लगाए जा रहे थे कि क्या आम आदमी पार्टी के विधायक टूटने वाले हैं। ये कयास इसलिए लगाए जा रहे थे क्योंकि अरविंद केजरीवाल ने आरोप लगाया था कि उनके विधायकों को खरीदने की कोशिश की गई।

भगत सिंह कोश्यारी

महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी भी विवादों में रहे। भगत सिंह कोश्यारी की वजह से पिछली महा विकास आघाडी सरकार के दौरान एक साल तक महाराष्ट्र में विधानसभा के स्पीकर का चुनाव नहीं हो सका था।

ठाकरे सरकार के दौरान कोश्यारी पहले न तो विधानसभा स्पीकर के चुनाव के लिए तारीख तय कर रहे थे और न ही वोटिंग सिस्टम या वॉइस वोट के पक्ष में थे। इसी वजह से ठाकरे सरकार और राज्यपाल के बीच में तनातनी रही थी। लेकिन जैसे ही बीजेपी ने शिवसेना के एकनाथ शिंदे गुट के साथ सरकार बनाई। राज्यपाल ने दो-तीन दिन के अंदर ही विधानसभा स्पीकर के चुनाव की अनुमति दे दी। इससे पहले स्पीकर पद की ज़िम्मेदारी तत्कालीन डिप्टी स्पीकर यानी उपाध्यक्ष नरहरि जिरवाल निभा रहे थे। उनको यह ज़िम्मेदारी तब मिली थी जब फ़रवरी 2021 में नाना पटोले ने अध्यक्ष पद से इसलिए इस्तीफ़ा दे दिया था क्योंकि कांग्रेस ने उन्हें राज्य में पार्टी की कमान सौंप दी थी। तब से स्पीकर का पद खाली था। बीजेपी-एकनाथ शिंदे की सरकार बनते ही विधानसभा स्पीकर का चुनाव हो गया और शिंदे गुट के राहुल नार्वेकर स्पीकर भी बन गए।

महाराष्ट्र विधान परिषद के सदस्यों के चुनाव को लेकर ऐसा ही विवाद हुआ। उद्धव ठाकरे कैबिनेट ने 12 लोगों को विधान परिषद का सदस्य मनोनीत करने की सिफ़ारिश साल 2020 में नवंबर के पहले सप्ताह में की थी। लेकिन राज्यपाल कोश्यारी इस पर आनाकानी करते रहे और मंजूरी नहीं दी। बीजेपी-शिंदे सरकार द्वारा पूर्ववर्ती ठाकरे सरकार के भेजे गए 12 नामों की फाइल वापस लेने के लिए राज्यपाल कोश्यारी को पत्र लिखा गया था। राज्यपाल ने तुरंत इसे स्वीकार कर लिया था। 

उद्धव ठाकरे के विधान परिषद का सदस्य बनने को लेकर भी विवाद हुआ था। राज्य कैबिनेट की ठाकरे को विधान परिषद का सदस्य मनोनीत करने की सिफ़ारिश पर राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने लंबे समय तक जवाब नहीं दिया था। ठाकरे को मुख्यमंत्री बने रहने के लिए विधानसभा या विधान परिषद में से किसी एक सदन का सदस्य निर्वाचित होना ज़रूरी था और तब विधान परिषद में मनोनयन कोटे की दो सीटें रिक्त थीं। राज्य मंत्रिमंडल ने राज्यपाल से इन दो में से एक सीट पर ठाकरे को मनोनीत किए जाने की सिफ़ारिश की थी। लेकिन राज्यपाल अड़ गए थे। 

कहा जाता है कि विधान परिषद चुनाव मामले में उद्धव ठाकरे को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फ़ोन करना पड़ा था। उसके बाद राज्यपाल ने चुनाव आयोग को पत्र लिख कर राज्य विधान परिषद की रिक्त सीटों के चुनाव कराने का अनुरोध किया था।

नवंबर, 2019 में कोश्यारी ने तड़के देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री और अजीत पवार को उप मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी। आज़ाद भारत के इतिहास में यह पहला मौक़ा था जब आनन-फानन में इतनी सुबह किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन हटाकर मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई थी। 

झारखंड के राज्यपाल विवादों में

झारखंड के राज्यपाल रमेश बैस भी विवाद में हैं। उनपर आरोप है कि वह केंद्र के इशारे पर सरकार को अस्थिर करने में साथ दे रहे हैं। यह हेमंत सोरेन को अयोग्य ठहराए जाने से जुड़ा मामला है। राज्यपाल पर आरोप है कि चुनाव आयोग से मिली चिट्ठी को वह आख़िर सार्वजनिक क्यों नहीं कर रहे हैं। पत्रकारों ने जब बैस से पूछा कि निर्वाचन आयोग का लिफाफा अब तक क्यों नहीं खोला गया, अगर खोला गया तो इस पर क्यों कुछ नहीं बोल रहे हैं, तो राज्यपाल ने कहा कि निर्वाचन आयोग का लिफाफा कब खोलूंगा यह मेरी मर्जी, यह मेरा अधिकार क्षेत्र है। 

समझा जाता है कि चुनाव आयोग ने खनन मामले में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को दोषी ठहराते हुए विधानसभा से उनकी अयोग्यता की सिफारिश की है। 

राज्यपाल रमेश बैस इस बात को जाहिर नहीं कर रहे हैं कि चुनाव आयोग की सिफारिश में क्या कहा गया है। चूंकि यह सिफारिश बंद लिफाफे में राजभवन को भेजी गयी है इसलिए तरह-तरह की अटकलें लगायी जा रही हैं।

मध्य प्रदेश की पूर्व और उत्तर प्रदेश की वर्तमान राज्यपाल आनंदीबेन पटेल पर मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव 2018 से पहले अपने दौरों के दौरान कई जगह लोगों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथ मज़बूत करने की अपील किए जाने के आरोप लगे थे। 

त्रिपुरा का राज्यपाल रहने के दौरान तथागत रॉय अपने पूरे कार्यकाल के दौरान भड़काऊ और नफ़रत फैलाने वाले सांप्रदायिक बयान देते रहे थे।

दिल्ली के एलजी

और दिल्ली का मामला तो आजीबोगरीब है ही। यहाँ के उप राज्यपाल और अरविंद केजरीवाल सरकार के बीच खींचतान एक अलग ही स्तर पर चलती रही है। दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने तो हाल में कहा था, 'एलजी साहब रोज मुझे जितना डांटते हैं, उतना तो मेरी पत्नी भी मुझे नहीं डांटतीं। उन्होंने जितने लव लेटर पिछले 6 महीनों में लिखे हैं उतने तो मेरी पत्नी ने भी नहीं लिखा।'

राजधानी दिल्ली में इस समय एलजी वीके सक्सेना हैं। एलजी यानी उप राज्यपाल और आप सरकार में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। एक्साइज घोटला, कथित डीटीसी बस घोटाला और मुफ्त बिजली योजना पर जाँच के आदेश के बाद यह तनातनी और बढ़ी हुई है। 

वीके सक्सेना से पहले दिल्ली एलजी अनिल बैजल थे और उनकी भी केजरीवाल सरकार से ज़बरदस्त तनातनी रहती थी। केजरीवाल ने राजनिवास पर धरना भी दिया था। 

दिल्ली सरकार की ओर से आरोप लगाया गया था कि राशन होम डिलीवरी में उनकी योजना की फाइल को उप राज्यपाल की ओर से पारित नहीं किया जा रहा है।

सीसीटीवी योजना पर भी विवाद सामने आया था। सरकार और उप राज्यपाल के बीच दिल्ली दंगा मामले में वकील नियुक्त करने पर भी विवाद हुआ था।

उप राज्यपाल और केजरीवाल सरकार के बीच अधिकारों को लेकर कोरोना काल में भी विवाद हुआ। बैजल द्वारा अधिकारियों की बैठक बुलाने पर आप ने कड़ी प्रतिक्रिया जाहिर की थी। मनीष सिसोदिया ने इसे संविधान और सुप्रीम कोर्ट के फैसले को दरकिनार करके बुलाई बैठक करार दिया था।

कृषि कानूनों पर हंगामे के दौरान साल 2020 में राजस्थान, पंजाब और छत्तीसगढ़ की सरकारों ने अपने राज्यों में विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया था तो इसके लिए पहले तो वहां के तत्कालीन राज्यपालों ने मंजूरी नहीं दी थी और कई तरह के सवाल उठाए थे। बाद में विधानसभा सत्र बुलाने की मंजूरी दी भी तो विधानसभा में राज्य सरकार द्वारा केंद्रीय कृषि क़ानूनों के विरुद्ध पारित विधेयकों और प्रस्तावों को मंजूरी देने से इंकार कर दिया था। 

विपक्षी दलों द्वारा शासित ओडिशा और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच इस तरह का टकराव देखने को नहीं मिला है। समझा जाता है कि ओडिशा की नवीन पटनायक सरकार और आंध्र प्रदेश की जगन मोहन रेड्डी सरकार कई मुद्दों पर या तो बीजेपी का साथ देती रही हैं या फिर तटस्थ रही हैं।

तो यह समझना क्या ज़्यादा मुश्किल है कि देश में जहां-जहां पर विपक्षी दलों की सरकारें हैं वहां के राज्यपालों की भूमिका को लेकर सवाल क्यों खड़े होते हैं?