भागवत की 'सच्ची आज़ादी' में आंबेडकर और भगत सिंह को देश-निकाला मिलेगा!
बॉलीवुड अभिनेत्री और लोकसभा सदस्य कंगना रनौत और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के चीफ़ मोहन भागवत में एक समानता है। दोनों ही नहीं मानते कि 15 अगस्त 1947 को भारत आज़ाद हुआ था। और फ़र्क़ ये है कि कंगना मानती हैं कि 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के साथ भारत ने आज़ादी की साँस ली, जबकि मोहन भागवत इस तारीख़ को दस साल और आगे खिसका देते हैं। मोहन भागवत का हालिया चर्चित बयान है कि 'भारत को सच्ची आज़ादी राममंदिर के प्राण प्रतिष्ठा के दिन मिली।’ यानी 15 अगस्त 1947 नहीं 22 जनवरी 2024 को भारत आज़ाद हुआ।
कंगना रनौत के बयान को ‘चर्चा-बटोरू फ़िल्मी लटका-झटका’ समझकर हँसी में उड़ा दिया गया था, लेकिन मोहन भागवत के बयान के बाद यह विषय बेहद गंभीर हो गया है। मोहन भागवत का बयान आज़ादी की लड़ाई में शहीद होने वाले लाखों भारतीयों की क़ुर्बानी को ही कमतर नहीं दिखाता, राम-मंदिर को एक 'संप्रुभ देश’ के रूप में भारत के अस्तित्त्व की अनिवार्य शर्त भी बना देता है। ऐसा कहकर वे सिर्फ़ मुसलमानों और ईसाइयों को आज़ाद भारत के नागरिक बतौर ख़ारिज नहीं करते, बौद्ध, जैन, पारसी, और सिख समुदाय के साथ-साथ आर्य समाज संगठनों को भी ‘ग़ैर’ घोषित कर देते हैं जो ‘अयोध्या के राजा राम’ को ‘ईश्वर' या ‘ईश्वर का अवतार’ नहीं मानते।
इसका अर्थ यह भी हुआ कि भागवत के ‘आज़ाद देश’ में गुरु नानक, कबीर, रैदास और महात्मा गाँधी के लिए भी कोई जगह नहीं हो सकती। इन सबकी ऐसे ‘दशरथ-नंदन’ राम में कोई आस्था नहीं थी जिसके लिए किसी मंदिर की ज़रूरत हो। उनका राम तो कण-कण में बसता है। यह राम निराकार और ब्रहमस्वरूप है। सारे ब्रह्माण्ड में रमा हुआ। जिसके परे कुछ भी नहीं। यह राम हिंदू और मुसलमान में कोई भेद नहीं कर सकता क्योंकि दोनों उसी का स्वरूप हैं।
एक सूची शहीदे आज़म भगत सिंह और डॉ.आंबेडकर जैसी विभूतियों को लेकर भी बन सकती है जो राम को मानने से ही इंकार करते हैं। भगत सिंह तो ईश्वर की सत्ता को नकारने वाले घोषित नास्तिक थे। उन्होंने अपने मशहूर लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ में सृष्टि के पीछे किसी सृष्टिकर्ता यानी ईश्वर का हाथ होने साफ़ इंकार किया है। वे लिखते हैं, “ईश्वर में विश्वास और रोज़-ब-रोज़ की प्रार्थना को मैं मनुष्य के लिये सबसे स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ। मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया। अतः मैं भी एक पुरुष की भाँति फाँसी के फन्दे की अन्तिम घड़ी तक सिर ऊँचा किये खड़ा रहना चाहता हूँ।”
वहीं डॉ.आंबेडकर ने जाति प्रथा को भारत के ‘राष्ट्र’ बनने की राह में सबसे बड़ी बाधा मानते हुए कहा कि शूद्रों को ग़ुलामी के अंतहीन चक्र में धकेलने वाली जाति व्यवस्था को धर्मशास्त्रों की मान्यता है। समतामूलक समाज बनाने के लिए उनका नाश करना ज़रूरी है। डॉ.आंबेडकर ने जीवन के अंतिम चरण में हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध ग्रहण करते समय अपने अनुयायियों को जो 22 प्रतिज्ञाएँ दिलायी थीं जिसमें दूसरी प्रतिज्ञा थी-“मैं राम और कृष्ण में, जिन्हें ईश्वर का अवतार माना जाता है, कोई आस्था नहीं रखूँगा और न ही उनकी पूजा करूँगा।”
“
यानी भागवत जिसे ‘सच्ची आज़ादी’ कहते हैं, उसमें आंबेडकर और भगत सिंह जैसे लोगों की कोई जगह नहीं होगी। उन्हें देश-निकाला मिलेगा।
भारत का संविधान, भारत में जन्मे हर व्यक्ति को भारतीय और ‘आज़ाद’ मानता है और उसे अपनी आस्था के अनुरूप जीवन जीने का अधिकार देता है। उसकी नज़र में ईश्वर या उसके किसी विशिष्ट स्वरूप को मानने वाले और ईश्वर की अवधारणा को कोरी कल्पना बताने वाले, एक समान हैं। लेकिन मोहन भागवत को इसमें आपत्ति है। वे राममंदिर को सच्ची आज़ादी की कसौटी बताकर नास्तिकों से ही नहीं, ‘अयोध्यापति दशरथनंदन राम’ को छोड़कर ईश्वर के किसी अन्य स्वरूप पर आस्था रखने वालों से भी आज़ाद भारत का नागरिक होने की हैसियत छीन लेना चाहते हैं। यह उस संविधान पर स्पष्ट हमला है जिस पर पूरी श्रद्धा रखने का भरपूर दिखावा करने में पूरा संघ परिवार आजकर जुटा रहता है।
“
रामकथा को घर-घर पहुँचाने वाले तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना अकबर के काल में की थी। लेकिन मानस ही नहीं उनकी किसी भी रचना में इस बात का उल्लेख नहीं है कि अकबर के दादा बाबर ने राममंदिर तोड़कर मस्जिद बनायी थी। सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने फ़ैसले में इस दलील को ख़ारिज किया है कि अयोध्या में राममंदिर को तोड़कर बाबरी मस्जिद बनायी गयी थी।
सर्वोच्च अदालत ने 1949 में बाबरी मस्जिद में घुसकर ज़बरदस्ती मूर्तियाँ रखने और 1992 में उसे तोड़ने को ‘आपराधिक’ कृत्य बताया था। थोड़ी देर के लिए आरएसएस और उससे प्रेरित संगठनों के इस प्रचार को सच मान लिया जाये कि अयोध्या में राम मंदिर तोड़कर ही 1526 में मस्जिद बनायी गयी थी। यानी राममंदिर मौजूद था। ऐसे में मोहन भागवत के ‘राममंदिर की प्राणप्रतिष्ठा से मिली सच्ची आज़ादी’ वाले तर्क से तो यही माना जाएगा कि बाबर से पराजित हुए इब्राहीम लोदी और उससे पहले तमाम दिल्ली सुल्तानों के काल में भारत सच्चे अर्थों में आज़ाद था। लेकिन भागवत तो ‘1200 साल की ग़ुलामी’ का जुमला रटते हैं!
ज़रा 1192 में दिल्ली सल्तनत की बुनियाद पड़ने से पहले के भारत की ‘आज़ादी का चित्र’ भी देख लिया जाये जब आरएसएस के मुताबिक़ अयोध्या में भव्य राम-मंदिर मौजूद था। उस समय पूरा भारत छोटी-बड़ी रियासतों में बँटा हुआ था जो मौक़ा पाकर एक दूसरे को लील जाती थीं। तमाम शासक दूसरे राज्य पर हमला करके लूटपाट सहित वह सब कुछ करते थे जिसे बर्बरता की श्रेणी में रखा जाता है।
महमूद गज़नवी के छापों से पहले राष्ट्रकूट, गुर्जर प्रतिहार और पाल वंश के राजाओं के कई दशक तक चले त्रिकोणीय संघर्ष ने बाह्य आक्रमण से लड़ने की ताक़त को बेहद कमज़ोर कर दिया था। सामाजिक तौर पर समाज जातियों की वैसी ही जकड़बंदी में था जिसका विधान मनुस्मृति में किया गया है। शूद्रों और स्त्रियों को कोई अधिकार नहीं थे। स्त्रियों को सती जैसी बर्बर प्रथा का शिकार होना पड़ता था। राजा की इच्छा ही क़ानून होता था। वह निरंकुश था जिसे पुरोहित वर्ग ‘ईश्वर की छाया’ प्रचारित करता था। यानी उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना या विद्रोह करना ‘ईश्वरद्रोह' समझा जाता था। उस समय की सामाजिक स्थिति का एक प्रमाण रामकथा भी है जिसमें तप करने का दुस्साहस कर रहे शूद्र शंबूक को देखकर मर्यादा पुरुषोत्तम राम उसका गला अपनी तलवार से काटने से क्षण भर भी नहीं हिचकते और अग्निपरीक्षा से संतुष्ट होने के बाद भी लोकोपवाद से बचने के लिए गर्भवती पत्नी सीता को जंगल भेज देते हैं।
दरअसल, राम अपने युग की मर्यादा से बँधे हैं, इसलिए मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते हैं। लेकिन क्या उस दौर की ‘मर्यादा’ आधुनिक युग में भी प्रासंगिक मानी जा सकती हैं जिनके मूल में ही सामाजिक और लैंगिक असमानता है? ज़ाहिर है नहीं। लेकिन मोहन भागवत के लिए भारत उसी असमानता के दौर में वास्तविक अर्थों में आज़ाद था। इसे यह भारत का ‘स्व’ कहते हैं। इस लिहाज़ से समता, समानता, बंधुत्व, धर्मनिरपेक्षता आदि मूल्य ‘विदेशी तत्व’ हुए जिन्होंने भारत के ‘स्व’ को दूषित किया है।
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष राहुल गाँधी ने मोहन भागवत के बयान को ठीक ही ‘देशद्रोह’ कहा है। भागवत का बयान उस उस देश (भारत) पर हमला है जिसकी बुनियाद वह संविधान है जो 15 अगस्त 1947 को मिली आज़ादी का हासिल है। अतीत के किसी कालखण्ड में 'समता और समानता’ के परचम से पहचान बनाने वाला भारत देश इस उपमहाद्वीप में अस्तित्व में नहीं था। राहुल गाँधी इसी संविधान के मूल्यों से बने ‘नवभारत’ का झंडा उठाये हुए हैं। वहीं मोहन भागवत मनुस्मृति का परचम लहराते कथित स्वर्णिम अतीत वाले भारत के प्रतिनिधि है। यह दो विचारधाराओं की लड़ाई है जो आने वाली पीढ़ियों का भविष्य तय करेगी।
पुनश्च: एक बार शहर में नाक कटाने के बाद एक आदमी गाँव पहुँचा। उसने गाँववालों को बताया कि शहर में आजकल नाक कटाने का फ़ैशन चल रहा है। उसने नाक होने की वजह से गाँव वालों का मज़ाक़ बनाना शुरू किया। कुछ लोगों ने उसके झाँसे में आकर नाक कटवा ली। नाक कटवाने पर वह ईनाम भी देता था। धीरे-धीरे पूरा गाँव नकटों का गाँव बन गया और शहर से नाक कटाकर पहुँचे उस आदमी ने चैन की साँस ली। 15 अगस्त 1947 को हासिल हुई आज़ादी को ‘सच्ची’ न मानने के पीछे भी ‘नकटा’ होने की हीनभावना ही है। आरएसस ने आज़ादी की लड़ाई के दौरान अंग्रेज़ों के पिट्ठू का रोल अदा किया था और चाहता है कि लोग उन अथक क़ुर्बानियों और शहादतों को महत्व ने दें क्योंकि उस लड़ाई से ‘सच्ची’ आज़ादी हासिल नहीं हुई थी।