एएमयू को पूर्ण अल्पसंख्यक दर्जा नहीं दे पाया था 1981 का संशोधन: SC
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय यानी एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा है या नहीं, इस पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फ़ैसला सुरक्षित रख लिया है। अदालत की 7 न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने गुरुवार को आख़िरी दिन सुनवाई की। यह विचार किया जा रहा था कि क्या 1981 के संशोधित अधिनियम ने एएमयू की स्थिति को 1951 से पहले की तरह बहाल कर दिया है या नहीं। क्या संशोधन 'आधे-अधूरे मन से' किया गया था? सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान टिप्पणी की कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अधिनियम में 1981 के संशोधन ने विश्वविद्यालय को संपूर्ण अल्पसंख्यक चरित्र नहीं दे पाया। इसने कहा है कि अधिनियम में 1951 के संशोधन से आगे नहीं बढ़ा गया, जिसने एएमयू में मुस्लिम समुदाय की भूमिका को कम कर दिया था।
लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने सुनवाई के दौरान कहा कि 1981 का संशोधित अधिनियम कुछ कॉस्मेटिक बदलावों के अलावा एएमयू में मुस्लिम आवाज को वापस लाने का प्रयास करता है, लेकिन संशोधन एएमयू की स्थिति को 1920 में मूल अधिनियम के अनुरूप बहाल नहीं करता है। उन्होंने कहा कि इसमें लाए गए बदलाव आधे-अधूरे मन से किया गया काम लगा।
रिपोर्ट के अनुसार सीजेआई ने कहा, 'एक बात जो हमें चिंतित कर रही है वह यह है कि 1981 का संशोधन 1951 से पहले की स्थिति को बहाल नहीं करता है। दूसरे शब्दों में, 81वां संशोधन आधे-अधूरे मन से काम करता है। वे उस भावना को शांत कर रहे थे। ...वे 1951 से पहले की स्थिति में वापस नहीं गए। और उन्होंने जो किया वह मुस्लिम आवाज को एएमयू प्रशासन में लाया जैसा कि हम देखते हैं। लेकिन यह अभी भी कम है, यहां तक कि संसद, जिसके पास ऐसा करने की शक्ति थी, वह अभी भी 1920 के अधिनियम तक वापस ले जाने में विफल रही है। उन्होंने कुछ रियायतें दीं लेकिन वे इसे कभी भी 1920 तक वापस नहीं ले गए, इसका असर इस पर देखा जा सकता है।'
7 न्यायाधीशों की संविधान पीठ की अध्यक्षता कर रहे भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2006 के फ़ैसले से उपजे एक संदर्भ पर यह टिप्पणी की, जिसमें कहा गया था कि 1920 में स्थापित एएमयू एक अल्पसंख्यक संस्थान नहीं था।
पीठ में सीजेआई के अलावा न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता, न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा भी शामिल हैं। इसने गुरुवार को आठवें दिन मामले की सुनवाई की।
यह टिप्पणी तब आई जब एएमयू की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने अपने मामले को मजबूत करने के लिए अधिनियम और संशोधनों के माध्यम से अदालत का रुख किया कि विश्वविद्यालय की स्थापना और प्रशासन मुस्लिम समुदाय द्वारा किया गया था, जिससे यह संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत एक अल्पसंख्यक संस्थान बन गया। यह धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन के अधिकार से जुड़ा है।
द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार 1967 में पांच न्यायाधीशों वाली सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने 'एस अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ' मामले में सुनवाई की थी। इसमें उसने कहा था कि एएमयू अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान का दर्जा पाने का हकदार नहीं है क्योंकि यह न तो मुस्लिम अल्पसंख्यक द्वारा स्थापित किया गया था और न ही प्रशासित किया गया था। यह माना गया कि इसकी स्थापना ब्रिटिश संसद के एक अधिनियम द्वारा की गई थी, न कि अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा। एएमयू का तर्क है कि बाशा मामले में फ़ैसला ग़लत है और उसने सुप्रीम कोर्ट से इस पर दोबारा विचार करने का आग्रह किया है।
1981 के संशोधन का उद्देश्य 1967 के फैसले के प्रभाव को ख़त्म करना था। लेकिन 2006 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 1981 के संशोधन को 'असंवैधानिक' करार देते हुए रद्द कर दिया।
लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार 1981 के अधिनियम ने एएमयू अधिनियम की धारा 2 (एल) में संशोधन करते हुए कहा था कि 'विश्वविद्यालय' का अर्थ भारत के मुसलमानों द्वारा स्थापित उनकी पसंद का शैक्षणिक संस्थान है, जिसकी उत्पत्ति मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज, अलीगढ़ के रूप में हुई थी, और जिसे बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में स्थापित किया गया। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ ने इस पर फ़ैसला सुरक्षित रख लिया है।