आंबेडकर ने क्यों कहा था कि चुनाव आयोग सरकार के नियंत्रण से दूर रहे?
स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव किसी भी लोकतंत्र के लिए सबसे अहम ईंट है। यदि निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने में कोई लोकतंत्र चूक जाता है तो चुनाव के बाद वह देश लोकतंत्र की परिभाषा से भी बाहर हो जाता है।
वर्तमान भारत इस समय उसी बिन्दु पर पहुँच चुका है। लोकसभा ने मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त बिल, 2023 पारित कर दिया। इस विधेयक की सबसे विवादास्पद और लोकतंत्र विरोधी बात यह है कि इसमें मुख्य चुनाव आयुक्त को चुनने के लिए जिस समिति के गठन की बात की गई है उसमें भारत के प्रधानमंत्री, प्रधानमंत्री द्वारा मनोनीत कोई केन्द्रीय मंत्री व लोकसभा में विपक्ष के नेता को शामिल किया गया है। तीन लोगों की इस समिति में जिसके पास एक निष्पक्ष मुख्य चुनाव आयुक्त चुनने की जिम्मेदारी होगी, उसमें केंद्र सरकार का ही बहुमत विद्यमान है। यह बात निश्चयपूर्वक कही जा सकती है कि प्रधानमंत्री और उनका सहयोगी मंत्री हमेशा एक ऐसे व्यक्ति को इस पद के लिए चुनेंगे जो उनका और उनके दल का समर्थन करे। और अंततः यह एक भेदभावपूर्ण चुनाव व्यवस्था को जन्म दे देगा। निष्पक्षता और स्वतंत्रता के अभाव में चुनाव प्रणाली पर भरोसा बने रहने का कोई भी कारण नहीं रह जाएगा। एक गैरभरोसेमंद चुनाव प्रणाली से चुनी गई सरकार को लोकतान्त्रिक सरकार भी नहीं कहा जा सकता है। और इस तरह एक ‘लोकतान्त्रिक गणराज्य’ की व्यवस्था अविश्वास और अंधकार में कहीं खो जाएगी।
इन्ही बातों को ध्यान में रखते हुए मार्च 2023 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने मुख्य चुनाव आयुक्त चुनने वाली समिति के गठन में- भारत के प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य न्यायधीश (CJI) और लोकसभा में विपक्ष के नेता को इसकी सदस्यता के लिए चुना था। यह चुनाव समिति का ऐसा समायोजन था जिसमें न ही सत्ता पक्ष का जोर था न ही विपक्ष का। भारत के मुख्य न्यायधीश की मौजूदगी में एक निष्पक्ष और स्वतंत्र व्यक्ति को भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में चुन लिया जाता। ऐसे चुनाव से विपक्ष में भरोसा जागता और लोकतंत्र मज़बूत होता। लेकिन शायद वर्तमान सरकार भारत के लोकतंत्र को मजबूत बनाने को लेकर प्रतिबद्ध नहीं है।
मुख्य चुनाव आयोग को चुनने के लिए केंद्र सरकार जो तरीका अपना रही है उससे भारत के संविधान निर्माता पहले से ही आशंकित थे। उन्हें डर था कि भविष्य में ऐसा हो सकता है कि चुनी हुई सरकारें अपने मन से ऐसे चुनाव आयुक्तों को चुनने लगें जो उन्हें हर चुनाव को जीतने में मदद करता रहे।
जून 1949, संविधान सभा में बोलते हुए भारत के संविधान के मुख्य शिल्पी बी.आर. आंबेडकर ने चुनाव आयोग और सरकार के बीच की खाई को बढ़ाने और आयोग को किसी भी तरह सरकार से मुक्त रखने का ज़िक्र किया था। उन्होंने कहा कि “…विधायी निकायों के चुनावों की शुद्धता और स्वतंत्रता के हित में, यह अत्यंत महत्वपूर्ण बात है कि चुनाव आयोग को उस समय की कार्यपालिका के किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप से मुक्त किया जाना चाहिए।" आंबेडकर का मतलब बिल्कुल साफ़ था कि न ही नियुक्ति, न ही निष्कासन और न ही सेवा शर्तों के लिए भारत के निर्वाचन आयोग को किसी भी तरह किसी भी समय की सरकार के अंतर्गत काम करना चाहिए।
वर्तमान सरकार द्वारा लाए गए इस विधेयक के विरोध में बोलने वाले एकमात्र सदस्य AIMIM के असदुद्दीन ओवैसी थे। उन्होंने कहा कि "यह विधेयक एक चुनाव आयोग बनाने के लिए लाया जा रहा है जो प्रधानमंत्री श्री मोदी की छाया में काम करेगा।"
ओवैसी की आपत्ति नाजायज नहीं है। जब सरकार किसी व्यक्ति को देश के चुनावों के संचालन के लिए चुनेगी तो वो ऐसे व्यक्ति को क्यों चुनेगी जो सरकार पर, प्रधानमंत्री पर और उनकी पार्टी के नेताओं के कार्यों, वक्तव्यों और सत्ता के दुरूपयोगों के लिए टोके और हस्तक्षेप करे? सरकार तो हर संभव ऐसा ही प्रयास करेगी, जिससे ऐसा व्यक्ति चुना जा सके जो विपक्ष को तो कारण बताओ नोटिस भेजे लेकिन सत्ता पक्ष की तरफ़ से किए जा रहे उल्लंघनों को नोटिस तक न करे। पर जो सबसे बड़ा सवाल है वह यह है कि ऐसे चुनाव आयोग पर तो देश की जनता भरोसा ही नहीं कर पाएगी। ओवैसी ने बहस के दौरान कहा कि "अगर मतदाताओं को यह लगने लगे कि [चुनाव आयोग] एक निष्पक्ष और गैर-पक्षपातपूर्ण निकाय नहीं है, तो हमारे लोकतंत्र की वैधता सवालों के घेरे में आ जाती है।"
जरा सोचिए कि एक लोकतंत्र जिसकी वैधता ही ख़तरे में पड़ गई हो वह देश कितना स्थिर रहेगा? इसी स्थिरता को सुनिश्चित करने के लिए आंबेडकर ने संविधान सभा में सुझाव दिया था कि चुनावों में किसी भी तरह के सरकारी और सत्ता पक्ष के दुरुपयोग से बचने के लिए ‘चुनावों की स्वतंत्रता’ को एक मूल अधिकार की तरह समझा जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि "...चुनावों की स्वतंत्रता और विधानमंडलों के चुनावों में कार्यपालिका के किसी भी हस्तक्षेप से बचने को एक मौलिक अधिकार माना जाना चाहिए और मौलिक अधिकारों से संबंधित अध्याय में इसका प्रावधान किया जाना चाहिए"।
सोचने की बात है कि संविधान का मुख्य शिल्पी यह मानता था कि जिन मूल अधिकारों के बिना संविधान, राष्ट्र और लोकतंत्र शून्य है वो ‘चुनावों की स्वतंत्रता’ को उन्हीं मूल अधिकारों के समकक्ष खड़ा करना चाहता था। मतलब यह हुआ कि आंबेडकर का साफ़ मत था कि यदि चुनावों की स्वतंत्रता और निष्पक्षता सुनिश्चित नहीं की जा सकी तो लोकतंत्र के मायने शून्य हो जाएंगे।
चुनाव आयुक्तों को चुनने वाली समिति की निष्पक्षता के साथ-साथ वर्तमान सरकार की नीयत पर भी सवाल है। संसद की सुरक्षा करने में नाकाम रही केंद्र सरकार और उसके गृहमंत्री से जब जवाब मांगने के लिए विपक्ष के सदस्यों ने कमर कसी तब एक-एक करके उन्हें सदन से निलम्बित किया जाने लगा। जिस दिन चुनाव आयुक्त की नियुक्ति से संबंधित इस विधेयक पर चर्चा होनी थी उसके पहले लगभग 100 लोकसभा सांसदों को सदन से निलंबित कर दिया गया। ये सभी सांसद विपक्ष के थे। उन्हें निलंबित किया गया, यदि वे सदन में उपस्थित होते तो सभी इस पर चर्चा करते, इसका विरोध करते, पर नतीजा यह हुआ कि इस महत्वपूर्ण विधेयक पर बोलने वालों की कुल संख्या मात्र 12 थी। उसमें भी सिर्फ एक सदस्य असदुद्दीन ओवैसी ही थे जिन्होंने विधेयक का विरोध किया। बाकी सदस्य या तो भाजपा के थे या फिर उनके साथ शामिल और सहानुभूति रखने वाले दलों के सदस्य।
140 करोड़ भारतवासियों का प्रतिनिधित्व करने वाली संसद में जब लोकतंत्र को सीमित करने का काम चल रहा था तब विरोधी आवाजों को दबा दिया गया था, और सत्ता की हाँ में हाँ मिलाने वाले लोगों ने लोकतंत्र के 75 साल पुराने ढांचे को मात्र 100 मिनट (तक चली बहस) में खोखला करके निपटा दिया।
लोकतंत्र की रीढ़ तोड़ने और प्रतिरोध को दबाने के लिए विधेयक लोकसभा से पारित हो चुका है। विपक्ष की गैर-मौजूदगी में पारित यह विधेयक असंवैधानिक विधेयक होना चाहिए। क्योंकि संसद प्रधानमंत्री, उनके मंत्रियों और सत्ता पक्ष के सांसदों का जमावड़ा भर नहीं है। संसद सत्ता और विपक्ष का साझा मंच है जहां से नागरिक केंद्रित नीतियों की रूपरेखा रची जाती है, उन पर बहस होती है और सरकारों से सवाल पूछे जाते हैं। पहली बात तो यह कि किसी मंत्री को जवाब देने के लिए बुलाने और उसके न आने पर अपना विरोध दर्ज करने के लिए किसी सदस्य को सदन से कैसे निलंबित किया जा सकता है? यदि निलंबित करना इतना अधिक ज़रूरी ‘कर्त्तव्य’ हो गया था तो विधेयक को संसद में रखने की क्या ज़रूरत थी? यदि रख दिया गया है तो यह तोहमत तो झेलनी ही पड़ेगी कि सरकार ने सांसदों को इसलिए सदन से निलंबित करवाया क्योंकि उसे एक लोकतंत्रविरोधी विधेयक को बिना किसी विरोध के पारित करवाना था। वरना गृहमंत्री से जवाब पाना आकाश से तारे तोड़कर लाना थोड़े ही है। उनसे तो उन्हीं के मंत्रालय की जिम्मेदारी और दायित्व वाला प्रश्न पूछा जा रहा था। ऐसे में संसद में आकर जवाब देना कोई कठिन कार्य तो नहीं था। खासकर जब वो प्राइवेट चैनलों पर जाकर बोल रहे थे। यह बात बिल्कुल शुरुआती कक्षाओं में पढ़कर भी जानी जा सकती है कि संसद बिना विपक्ष के शून्य है और शून्य से पारित विधेयक कानून कैसे बन सकता है?
ताज्जुब की बात तो यह है कि कानून मंत्री जी ने बड़ी मासूमियत से यह कहा कि "मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति कार्यपालिका का कार्य है।" यह जानते हुए भी कि सुप्रीम कोर्ट ने कैसी चयन समिति का सुझाव दिया था, कानून मंत्री कहते हैं कि “हम सुप्रीम कोर्ट के आदेश के आधार पर विधेयक लाए हैं। यह कहना कि सुप्रीम कोर्ट ने कुछ और कहा था और सरकार कुछ और कर रही है, गलत है। हम उच्चतम न्यायालय के निर्देशों का पालन कर रहे हैं और यह विधेयक लेकर आये हैं।''कानून मंत्री के इन जिज्ञासा को उभार देने वाले जवाबों का उत्तर तो भारत का सर्वोच्च न्यायालय ही दे सकता है। जब भी इस विधेयक को सुप्रीम कोर्ट में इसकी संवैधानिकता के लिए चुनौती दी जाएगी तब सुप्रीम कोर्ट इसपर अपना फैसला देगा। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायधीश रोहिन्टन नरीमन ने इस विधेयक पर चिंता जताते हुए कहा कि “अगर यह विधेयक सुप्रीम कोर्ट द्वारा निरस्त नहीं किया जाता है तो यह लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा होगा।”
जस्टिस नरीमन को लगता है कि यह विधेयक लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा ख़तरा होगा, और आंबेडकर को लगता था कि ‘चुनावों की निष्पक्षता के अधिकार’ को सबसे अहम ‘मूल अधिकारों’ के साथ रखा जाए, सुप्रीम कोर्ट की अब तक की सबसे बड़ी संवैधानिक पीठ, केशवानंद भारती मामले (1973) में घोषणा करती है कि ‘स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव’ भारत के संविधान का आधारिक लक्षण है अर्थात इसे किसी भी तरीके से बदला नहीं जा सकता लेकिन वर्तमान केंद्र सरकार को लगता है कि चुनाव आयुक्तों कि नियुक्ति से संबंधित इस विधेयक को विपक्ष की अनुपस्थिति में ही पारित करवा दिया जाए।
यदि यह विधेयक कानून बन जाता है तो यह सम्पूर्ण भारतीय लोकतंत्र की अवधारणा को शवदाह-गृह में पहुँचा देगा। लोकतंत्र को इस ‘अंतिम संस्कार’ से बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट को अपनी ‘अभिरक्षक’ की भूमिका को अख्तियार करना चाहिए।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और अपने लिए भारत रत्न तक को नकार देने वाले पंडित हृदय नाथ कुंजरू ने संविधान सभा में चुनाव आयोग व उसकी निष्पक्षता पर कहा था कि “हम वयस्क मताधिकार पर आधारित लोकतंत्र के लिए जा रहे हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि चुनावी मशीनरी के निष्पक्ष कामकाज को सुनिश्चित करने के लिए हर संभव कदम उठाया जाए।” उन्होंने आयोग की नियुक्ति और उसके कामकाज पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि “यदि चुनावी मशीनरी दोषपूर्ण है या कुशल नहीं है या उसमें ऐसे लोगों द्वारा काम किया जाता है जिनकी ईमानदारी पर भरोसा नहीं किया जा सकता है, तो लोकतंत्र स्रोत पर ही जहरीला हो जाएगा।” सरकार जिस तरह का विधेयक लाई है उससे आयोग हमेशा ही शक के घेरे में रहेगा। उसके द्वारा दिए गए नोटिस, कानून के शासन को लेकर उसकी प्रतिबद्धता सदैव संदिग्ध रहेगी। यह एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है।
आज से 75 साल पहले संविधान सभा में चुनाव आयोग के मुद्दे पर बोलते हुए प्रोफेसर शिब्बन लाल सक्सेना ने कहा कि "यह बहुत संभव है कि सत्ता में कोई पार्टी जो अगला चुनाव जीतना चाहती है, वह पार्टी के किसी कट्टर व्यक्ति को मुख्य आयुक्त के रूप में नियुक्त कर सकती है"।
और आज 2023 की दिसंबर में 100 मिनट तक चली बहस में यह सुनिश्चित हो गया कि भारत का नया मुख्य निर्वाचन आयुक्त भारत के प्रधानमंत्री की मर्जी का होगा। हर आशंका सही साबित होती जा रही है। भले ही प्रधानमंत्री अपनी पार्टी के किसी ‘कट्टर’ व्यक्ति को निर्वाचन आयुक्त न बनाएं लेकिन सत्ता के बहुमत से जो व्यक्ति भी इस पद को धारण करेगा उसकी उपस्थिति, योग्यता, कार्यशैली और संविधान के प्रति उसकी आस्था को कभी भी संदेह से परे जाकर नहीं देखा जा सकेगा। और इस स्थिति में भारत के लोकतंत्र की हार होगी! क्या 7 दशकों तक संभाल कर रखे गए लोकतंत्र और उसकी परंपराओं को किसी ‘सनक’ पर न्योछावर किया जा सकता है? मेरे लिए इसका उत्तर है- ‘ना’ आपके लिए?