देश में अस्थिरता का माहौल पैदा किया जा रहा है!
अब स्पष्ट है कि देश को हर तरफ और हर मुमकिन तरीके से अराजकता में धकेला जा रहा है। इसका सबसे ताजा उदाहरण है पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव को दिल्ली रिपोर्ट करने का निर्देश। 31 मई को वे दिल्ली रिपोर्ट करें, यह हुक्म देने के पीछे उनके अपमान के अलावा और क्या मकसद है? यह उनके सेवाकाल का अंतिम दिन है।
अभी बंगाल में जो झंझावात आया है, उससे त्राण के लिए वे मुख्यमंत्री के साथ व्यस्त हैं और इस वक्त उन्हें राज्य से हटाने का मतलब मुख्यमंत्री को परेशानी में डालना है। उन्हें इस झंझावात के कारण ही 3 महीने का सेवा-विस्तार दिया गया था।
मुख्य सचिव का क्या दोष?
सबने नोट किया है कि यह आदेश मात्र प्रधानमंत्री के अपने अहम की तुष्टि के लिए दिया गया है। वे क्यों प्रधानमंत्री के हुजूर में मौजूद न थे जब वे बंगाल आए, आरोप यह है। लेकिन वे बंगाल के मुख्य सचिव हैं और उनकी अधिकारी मुख्यमंत्री हैं, प्रधानमंत्री नहीं। झंझावात प्रभावित क्षेत्रों में राहत और पुनर्वास के लिए जायजा लेने को पहले से तय मुख्यमंत्री के दौरों में वे उनके साथ थे। उनकी क्या गलती है?
आरोप लगाया जा रहा है कि बंगाल की मुख्यमंत्री जान-बूझ कर प्रधानमंत्री की बैठक में शामिल नहीं हुईं और इस तरह उन्होंने झंझावात के इस कठिन समय में सहकारी संघीय भावना का अपमान किया। मुख्य सचिव को भी कायदे से प्रधानमंत्री के सामने होना था। वे मुख्यमंत्री के साथ थे। इस बेअदबी की उन्हें सजा दी जा रही है।
ममता बनर्जी बैठक में नहीं आईं इसे लेकर हर तरफ से ममता की निंदा हो रही है। लेकिन उन्होंने स्पष्ट किया कि उनकी अनुपस्थिति के बारे में प्रधानमंत्री की तरफ से मिथ्या प्रचार किया जा रहा है। उनको प्रधानमंत्री के दौरे की सूचना तब मिली जब वे अपने कार्यक्रम तय कर चुकी थीं। फिर भी वे कुछ देर से ही सही बैठक में पहुँचीं और पाया कि उनके लिए कुर्सी भी नहीं थी। वे खड़ी रहीं और प्रधानमंत्री को राज्य की आवश्यकता को लेकर ज्ञापन दिया और फिर उनकी इजाजत लेकर ही निकलीं।
इस बैठक के बारे में मुख्यमंत्री के इस वक्तव्य को क्यों न सुनें? क्यों भारतीय जनता पार्टी के बयान को ही सच मानें?
अपमानित करने की कोशिश?
ममता बनर्जी को इससे भी ऐतराज है कि उस बैठक में राज्यपाल और विपक्षी दल बीजेपी के नेता क्यों मौजूद थे। यह किसी दूसरे राज्य में नहीं किया गया। मसलन तूफ़ान से पीड़ित गुजरात के दौरे में प्रधानमंत्री ने राज्य में विपक्षी दल के नेता को बैठक में नहीं बुलाया और न राज्यपाल को। जब प्रधानमंत्री आधिकारिक दौरे पर होते हैं तो वे राज्य की मुखिया से ही राज्य की ज़रूरतों की जानकारी ले सकते हैं। फिर बंगाल में उन्होंने क्यों यह अपवाद किया? जाहिर है यह बंगाल की मुख्यमंत्री को अपमानित करने के लिए ही किया गया था।
देखिए, बंगाल के हालिया विवाद पर चर्चा-
इस मामले में जो संघीय सहकारिता की भावना की हत्या पर हाहाकार कर रहे हैं, वे एक मामूली सा सवाल नहीं कर रहे। क्यों प्रधानमंत्री ने अपने हवाई दौरे में मुख्यमंत्री को साथ नहीं लिया? आखिर वे उनके राज्य में थे? मुख्यमंत्री का कार्यक्रम जब प्रधानमंत्री को पहले ही बता दिया गया था तो क्यों नहीं यह अनुरोध किया गया कि वे अगर देर से पहुंचेंगी तो पहले मुख्य सचिव को ही भेज दें? क्या प्रधानमंत्री इस मुल्क का बादशाह है और मुख्यमंत्री उसके मनसबदार या सूबेदार हैं?
पिछले 7 साल में संघीय भावना की हर मौके पर धज्जियां उड़ते हमने देखा है। पिछले साल जब 4 घंटे के नोटिस पर प्रधानमंत्री ने लॉकडाउन घोषित किया तो उसके पहले राज्यों से किसी मशविरे की ज़रूरत महसूस नहीं की। जबकि इस लॉकडाउन से पैदा हुई स्थिति उन्हें ही संभालनी थी। फिर उनसे राय क्यों नहीं ली गई?
राज्यों के साथ भेदभाव
इस साल भी कोरोना वायरस के संक्रमण में तेजी आने पर भी हिचकिचाते हुए मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक तो की गई लेकिन उन्हें बोलने का मौक़ा नहीं दिया गया। यह शिकायत महाराष्ट्र, बंगाल, झारखंड और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बार-बार कर चुके हैं।
राज्यों के साथ भेदभाव इस सरकार का स्वभाव बन गया है। जब गुजरात और महाराष्ट्र तूफ़ान से प्रभावित हुए तो प्रधानमंत्री ने सिर्फ गुजरात का दौरा किया। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने पूछा कि उनके राज्य को क्यों छोड़ दिया गया! इसके पहले केरल में आई प्राकृतिक आपदा के समय भी उसे राहत में कोताही करने का आरोप केंद्र पर लग चुका है।
इस महामारी में विश्व स्तर पर देशों के बीच सहकारिता की बार-बार बात की जा रही है। भारत में लोगों को त्राहि-त्राहि करते देख दुनिया भर के देशों ने राहत सामग्री भेजी। जब लोगों को उसकी फौरन ज़रूरत थी, वह सामग्री हवाई अड्डे पर गोदाम में धूल खाती रही।
ऑक्सीजन के मामले में गड़बड़ी
पिछले कुछ महीनों से जिस तरह ऑक्सीजन, हस्पताल के लिए लोग भटक रहे थे, हस्पताल और राज्य सरकारें अदालत जा रही थीं कि केंद्र उनको ऑक्सीजन दे और केंद्र लगातार यह कह रहा था कि ऑक्सीजन पर नियंत्रण तो उसका होगा लेकिन राज्यों की माँग पूरी करने को वह बाध्य नहीं है, उससे जो भयंकर अराजकता पैदा हुई, उसने देश के सामान्य जन जीवन को तोड़ कर रख दिया है।
सरकार सिर्फ एक जगह दिखलाई देती है। शिकायत कर रहे लोगों को धमकी देते हुए, उनके खिलाफ मुकदमा करते हुए, उन्हें जेल भेजते हुए। उसकी पुलिस ट्विटर के बंद दफ्तर पर छापा मारने पहुँच जाती है।
टीके पर सरकारी लापरवाही
ऑक्सीजन के मामले में जो चीख-पुकार और अराजकता दिखलाई दी, उतनी ही टीके के मामले में। केंद्र ने भारतीयों को टीका दिलाने की अपनी जिम्मेवारी से पल्ला झाड़ लिया है। हमें दो महीना पहले मालूम हुआ कि केंद्र सरकार ने टीके के लिए समय पर टीका कंपनियों को खरीद के आदेश ही नहीं दिए थे।
पहला आदेश उसने जनवरी, 2021 में दिया था जबकि वह लगातार झूठ बोले जा रही थी कि टीके की फिक्र की ज़रूरत नहीं है। सीरम इंस्टीट्यूट के मालिक ने साफ़ बता दिया कि यह आदेश बहुत देर से आया है और उसे दूसरे मुल्कों से पहले आदेश मिल चुके हैं। जब साफ़ हो गया था कि भारत में पर्याप्त टीका नहीं बनाया जा सकता तो बाहर के उत्पादकों को क्यों आदेश नहीं दिए गए? यह सुझाव विपक्ष के नेता पहले से दे रहे थे कि आप विदेशों की कंपनियों को भी आदेश दें।
उस वक्त यह कहा गया कि यह देसी कंपनियों का अपमान है। वे विदेशी कंपनियों की दलाली कर रहे हैं। फिर चारा न रह जाने पर जब बाहर हाथ फैलाए तो वहाँ से जवाब आया कि पहले ही कई देशों के आदेश उनके पास हैं और भारत काफी देर से आया है।
इस समय केंद्र ने कह दिया कि अब राज्य अपनी फिक्र करें। इतना ही नहीं, उसने बाकायदा विज्ञापन जारी करके राज्यों पर आरोप लगाया है कि टीके के मामले में गड़बड़ सिर्फ राज्यों की वजह से हुई है। यह सरासर झूठ है। लेकिन अब केंद्र के झूठ पर कोई हैरान नहीं होता।
पिछले साल जब सब देख रहे थे कि मजदूर गिरते-पड़ते अपने अपने घरों को जा रहे थे, केंद्र ने सर्वोच्च न्यायालय में सफ़ेद झूठ कहा कि कोई भी सड़क पर नहीं है, सब अफवाह है। अदालत ने फाईल बंद कर दी। लोग सड़क पर थे, भूखे प्यासे, गिरते, मरते! सरकार के मुताबिक़ वे अफवाह थे।
बंगाल में चुनाव हारने के बाद बीजेपी की केंद्र सरकार ने तय कर लिया है कि वह ममता सरकार को चैन नहीं लेने देगी। वैसे ही जैसे दिल्ली में चुनाव हारने के बाद से उसने दिल्ली सरकार को नाकाम और तबाह करने का हर मुमकिन प्रयास किया।
लक्षद्वीप प्रशासक के आदेश
अराजकता का ताजा उदाहरण लक्षद्वीप के शांत जनजीवन को छिन्न-भिन्न कर देने के आदेश हैं। शायद ही आजतक हमने वहाँ लोगों को आंदोलित होते देखा हो। लेकिन अभी केंद्र के प्रशासक एक-एक कर आदेश पारित कर रहे हैं जिससे उस द्वीप समूह के निवासियों की पारम्परिक जीवन शैली बदल दी जाए।
मुसलमान निशाने पर!
यह समझ के बाहर है कि जहाँ अपराध दर शून्य है वहाँ गुंडा क़ानून क्यों लगाया जा रहा है। जो खुद सात्विक भारतीय जीवन शैली की दुहाई देते हैं, वे वहाँ शराबबंदी को क्यों खत्म कर रहे हैं। क्यों अचानक वहाँ गोहत्या से जुड़ा क़ानून लागू किया जा रहा है? जाहिर है, यह सब कुछ वहाँ अस्थिरता पैदा करेगा। लोग आंदोलित होंगे। चूँकि वहाँ 97% मुसलमान हैं, भारत में शेष जगह दिखलाया जाएगा कि देखो मुसलमान फिर हंगामा कर रहे हैं।
असम में बीजेपी सरकार ने वापस आते ही एनआरसी की समीक्षा का फ़ैसला किया। यह एक बार फिर असम में भयानक अशांति पैदा करेगा और लोगों में बेचैनी। लेकिन यही सरकार का मकसद भी है।
जो लोग ऑक्सीजन और टीके के मामले में केंद्र द्वारा पैदा की गई अराजकता से हैरान हैं, वे अगर इस सरकार की कार्यशैली पर ध्यान देंगे तो मालूम होगा कि वह हर क्षेत्र में अराजकता और अस्थिरता पैदा करने की ही रही है।
नोटबंदी, जीएसटी की तबाही
नोटबंदी ने आर्थिक अस्थिरता पैदा की, वैसे ही जीएसटी ने। अब तक छोटे व्यापारी और शेष इसके झटके से नहीं उबर पाए हैं। अगर आप किसी छोटे व्यवसायी से बात करेंगे तब आपको मालूम होगा कि उसका जीवन कितना मुश्किल हो गया है। उसके बाद सीएए पारित करके एक अस्थिरता पैदा की गई।
जम्मू-कश्मीर का विभाजन
जम्मू-कश्मीर के विभाजन और उससे राज्य का दर्जा छीनकर उसके निवासियों में स्थायी अस्थिरता पैदा कर दी गई है। खेती किसानी के कानूनों ने किसानों को अस्थिर कर दिया है। उनके आन्दोलन को 6 महीने हो गए हैं। लेकिन सरकार को इसकी कोई परवाह नहीं है कि इतनी बड़ी आबादी इस कदर बेचैन है।
जैसे डोनाल्ड ट्रम्प ने अमेरिका में इतनी अराजकता और अस्थिरता पैदा कर दी थी कि वहाँ गृह युद्ध के हालात पैदा हो गए थे, सरकार वैसे ही भारत में स्थायी राजनीतिक, सामाजिक और प्रशासनिक अराजकता और अस्थिरता पैदा करती जा रही है। अमेरिका तो बाल-बाल बचा, क्या भारत खुद को बचा पायेगा?