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कोरोना: विपक्षी दलों की बैठक से क्यों दूर रहे सपा, बसपा और आप?

कोरोना: विपक्षी दलों की बैठक से क्यों दूर रहे सपा, बसपा और आप?

सपा और बसपा उत्तर प्रदेश में प्रियंका की बढ़ती सक्रियता से परेशान हैं तो केजरीवाल मोदी सरकार के साथ बन रही अपनी ‘कैमिस्ट्री’ को बर्बाद नहीं करना चाहते। 

कोरोना संकट के दौरान एक ओर जहां केंद्र और राज्य सरकारों के बीच आपसी सहयोग की कमी की शिकायत आई, वहीं विपक्षी दल भी इस दौरान एकजुट नहीं दिखाई दिए। शुक्रवार को कोरोना संकट को लेकर बुलाई गई विपक्षी दलों की बैठक से मायावती की बहुजन समाज पार्टी, अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और दिल्ली में सरकार चला रही अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने दूरी बनाए रखी। 

प्रियंका की सक्रियता से परेशान!

आइए, समझते हैं कि ऐसा क्यों हुआ। पहले बात करते हैं सपा और बसपा के बारे में। सपा और बसपा मूल रूप से उत्तर प्रदेश की राजनीति करती हैं। ये 2019 का लोकसभा चुनाव साथ मिलकर लड़ी थीं और उसके बाद अलग भी हो गईं। लेकिन अलग होने के बाद भी इनका सियासी प्रतिद्वंद्वी एक ही है और वह है कांग्रेस। वैसे, इनकी सियासी लड़ाई बीजेपी से भी है लेकिन पहले नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) और अब कोरोना संकट के दौरान जिस तरह कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने उत्तर प्रदेश में सक्रियता बढ़ाई है, उससे ये दोनों दल ख़ासे परेशान दिखते हैं। 

प्रियंका गांधी प्रवासी मजदूरों के लिए बसें चलाए जाने के विवाद को लेकर ख़ासी सुर्खियां बटोर चुकी हैं। सोशल मीडिया पर कांग्रेस समर्थकों ने ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की है कि इस कठिन वक्त में उत्तर प्रदेश में सिर्फ़ प्रियंका ही ऐसी नेता हैं जो योगी आदित्यनाथ सरकार से टक्कर ले सकती हैं।

प्रियंका गांधी महासचिव होने के साथ-साथ उत्तर प्रदेश की प्रभारी भी हैं और उनके मनोनयन के वक्त ही राहुल गांधी ने कहा था कि प्रदेश की सत्ता में कांग्रेस को वापस लाने की जिम्मेदारी प्रियंका की है। 

सीएए विरोधी आंदोलनों में भी जब मायावती और अखिलेश की सक्रियता लगभग शून्य थी, तब प्रियंका गांधी सड़कों पर उतर रही थीं। उस वक्त भी उत्तर प्रदेश के ये दोनों मुख्यमंत्री प्रियंका की सक्रियता से ख़ुद के सियासी वजूद पर ख़तरा महसूस करने लगे थे। 

उत्तर प्रदेश में हालांकि चुनाव में अभी डेढ़ साल का वक्त है लेकिन इतने बड़े प्रदेश में चुनावी तैयारियों के लिए समय चाहिए होता है। लॉकडाउन के दौरान जब राजनीतिक कार्यक्रमों पर पाबंदी है, ऐसे में कांग्रेस ने पहले देश भर में अपने घर लौट रहे प्रवासी मजदूरों के ट्रेन किराये का ख़र्च उठाने और फिर उत्तर प्रदेश में बसें चलवाकर ठीक-ठाक पॉलिटिकल स्कोर गेन किया है। 

कुल मिलाकर सपा और बसपा, क़तई ये मैसेज नहीं देना चाहते कि वे कांग्रेस के नेतृत्व में काम कर रहे हैं। उन्होंने विपक्षी दलों की बैठक में जाना इसलिए ज़रूरी नहीं समझा क्योंकि इसका नेतृत्व कांग्रेस कर रही थी। 

अब बात करते हैं आम आदमी पार्टी की। दिल्ली के विधानसभा चुनाव में बीजेपी से खुलकर दो-दो हाथ कर चुके पार्टी के संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल चुनाव जीतते ही एकदम से बदले-बदले नजर आए। 

चुनाव जीतने के बाद केजरीवाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से मिले और उन्होंने कहा कि वह केंद्र सरकार के साथ ‘मिलकर’ काम करेंगे। यानी वह टकराव की स्टाइल वाली अपनी राजनीति से तौबा कर चुके थे। जबकि 5 साल के कार्यकाल के दौरान उनका मोदी सरकार से छत्तीस का आंकड़ा रहा था।

केंद्र के साथ ‘मिलकर’ चलने का क्या मतलब है, यह केजरीवाल ने चुनाव जीतते ही कन्हैया कुमार के ख़िलाफ़ राजद्रोह का मुक़दमा चलाने की अनुमति देकर साफ कर दिया। जबकि इस मामले को उन्होंने लंबे समय से रोक कर रखा था और अमित शाह ने चुनाव के दौरान इसे लेकर उन पर जमकर हमले किए थे। 

कोरोना संकट के दौरान उन्होंने कई बार कहा कि उन्हें केंद्र से पूरा सहयोग मिल रहा है। अन्य विपक्षी दलों की राज्य सरकारों ने ज़ोन तय करने से लेकर कई तरह शिकायत की लेकिन केजरीवाल केंद्र के ख़िलाफ़ एक शब्द नहीं बोले। 

‘कैमिस्ट्री’ बर्बाद नहीं करना चाहते केजरीवाल

शायद केजरीवाल ने यह तय कर लिया है कि उन्हें किसी भी क़ीमत पर मोदी सरकार से टकराव नहीं लेना है। दिल्ली से बाहर पंख फैलाने की उनकी कोई सियासी महत्वाकांक्षा नहीं दिखती, इसलिए वह बहुत ज़्यादा हाथ-पैर मारना भी नहीं चाहते। उनकी भाषा में ही कहें तो वह केंद्र के साथ ‘मिलकर’ दिल्ली के लिए काम करेंगे। केंद्र सरकार के साथ पिछले 4 महीने में बनी उनकी यह ‘कैमिस्ट्री’ कहीं बर्बाद न हो जाए, इसीलिए उन्होंने भी विपक्षी दलों की बैठक से किनारा कर लिया। 

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